सिद्धार्थ शंकर गौतम
1976 में संविधान के 42वें संशोधन के तहत सातवीं अनुसूची की तीसरी सूची में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन जोड़ा गया था, जिसके तहत केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन सही मायनों में इस पर अमल कब होगा
लगातार बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या क्या देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक ताने-बाने के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है? जी हां, यह सत्य है कि देश की बढ़ती जनसंख्या में मुस्लिमों में व्याप्त सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक तथा मजहबी कट्टरता के कारण असमानता उत्पन्न हो रही है। हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने राज्य में गरीबी कम करने के उद्देश्य से जनसंख्या नियंत्रण के लिए मुस्लिमों से उचित परिवार नियोजन नीति अपनाने का अनुरोध किया था। हालांकि उनके इस अनुरोध ने विपक्ष सहित मुस्लिम समाज के अलम्बरदारों को उद्वेलित कर दिया, किन्तु सत्य को प्रमाण की क्या आवश्यकता?
यह सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद से ही मुस्लिमों में प्रजनन दर बढ़ती जा रही है। असम की ही बात करें तो 1991 से 2001 के एक दशक में ही असम में हिंदू जनसंख्या वृद्धि दर 14.9 प्रतिशत के मुकाबले मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 29.3 प्रतिशत हो गई, जबकि वर्ष 2001 से 2011 तक के दशक में हिंदू जनसंख्या वृद्धि दर 10.9 प्रतिशत के मुकाबले मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 29.6 प्रतिशत हो गई। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार, असम में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर पूरे देश में सबसे अधिक है। 2011 में हुई जनगणना के अनुसार असम की 3.12 करोड़ जनसंख्या में 34.22 प्रतिशत मुस्लिम थे, इस कारण असम के कई जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक हो गए हैं। इसके उलट, सिख, बौद्ध, जैन व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की जनसंख्या एक प्रतिशत से भी कम है जबकि राज्य में ईसाई 3.74 प्रतिशत हैं। 1971 में असम की कुल जनसंख्या में 72.51 प्रतिशत आबादी हिंदू थी, वहीं मुस्लिम आबादी 24.56 प्रतिशत थी, किन्तु 2011 में असम में हिंदू आबादी 61.46 प्रतिशत रह गई। इससे स्पष्ट है कि असम में मुस्लिम जनसंख्या में असामान्य बढ़ोतरी होने से वहां भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
छह वर्ष पूर्व केन्द्र सरकार ने 2011 की जनगणना के पंथ आधारित आंकड़े जारी किये थे, जिसके अनुसार 2001 से 2011 के बीच देश की कुल आबादी में मुस्लिमों की हिस्सेदारी 0.8 प्रतिशत बढ़ी है जबकि हिंदुओं की हिस्सेदारी 0.7 प्रतिशत घटी है। केंद्र शासित लक्षद्वीप में 96 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है जबकि जम्मू और कश्मीर में 85 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। पश्चिम बंगाल की बात करें तो राज्य में 2001 में मुस्लिम आबादी 25 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 27 प्रतिशत हो गई। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की आबादी में 1.94 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, जबकि राज्य में मुसलमानों की आबादी 1.77 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। 1951 की जनगणना में पश्चिम बंगाल की कुल जनसंख्या 2.63 करोड़ में मुसलमानों की आबादी लगभग 50 लाख थी, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 2.50 करोड़ हो गई। राज्य में 2011 में हिन्दुओं की 10.8 प्रतिशत दशकीय वृद्धि दर की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर दोगुनी यानी 21.8 प्रतिशत थी।
इन राज्यों में है आंशिक जनसंख्या नियंत्रण कानून
मध्य प्रदेश : 2001 में लागू कानून के तहत दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्तियों के सरकारी नौकरियां पाने और स्थानीय निकाय चुनाव लड़ने पर रोक थी, किन्तु 2005 में इस फैसले को पलट दिया गया। अब सरकारी नौकरियों और न्यायिक सेवाओं में ही दो बच्चों की नीति लागू है।
असम : 1 जनवरी, 2021 से दो से अधिक बच्चों वाले माता-पिता को सरकारी नौकरी की पात्रता नहीं होगी।
राजस्थान : राज्य का पंचायती कानून दो से अधिक बच्चों के उन्हीं माता-पिता को पंचायत चुनाव लड़ने की छूट देता है जिनका दो में से कोई एक बच्चा दिव्यांग हो।
गुजरात : स्थानीय प्रशासन कानून के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाले पंचायत और नगरपालिका का चुनाव लड़ने से वंचित किये जायेंगे।
आंध्र प्रदेश/तेलंगाना : पंचायती राज कानून के अनुसार दो से अधिक बच्चों वाले माता-पिता पंचायत चुनाव नहीं लड़ सकते।
बिहार : दो से अधिक बच्चों के माता-पिता के नगरपालिका चुनाव लड़ने पर रोक।
उत्तराखंड : दो से अधिक बच्चों के माता-पिता के नगरपालिका चुनाव लड़ने पर रोक।
महाराष्ट्र : दो से अधिक बच्चों वाले ग्राम पंचायत और नगरपालिका चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं रख सकेंगे। महाराष्ट्र सिविल सर्विसेज रूल्स, 2005 के तहत ऐसे व्यक्ति को राज्य सरकार में भी कोई पद नहीं दिए जाने का प्रावधान किया गया है।
ओडिशा : दो से अधिक बच्चों वाले माता-पिता को शहरी निकायों के चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं है।
जनसंख्या नियंत्रण के लिए कब-कब हुई कोशिश
1970 के दशक में संजय गांधी के जनसंख्या नियंत्रण के लिए शुरू किये गए नसबंदी कार्यक्रम की चहुंओर हुई आलोचना के बाद से राजनेताओं ने जनसंख्या नियंत्रण पर चुप्पी साध ली थी, किन्तु हाल के वर्षों में या यूं कहें कि 2014 में आई नरेन्द्र मोदी सरकार के बाद से अब विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता जनसंख्या नियंत्रण की वकालत करते नजर आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील अश्विनी उपाध्याय ने दिसंबर 2018 में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा था। इसके अलावा इस मुद्दे पर वे दिल्ली उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ चुके हैं। 2020 के बजट सत्र के दौरान भाजपा सांसद हरनाथ सिंह यादव ने राज्यसभा में जनसंख्या विस्फोट का मुद्दा उठाया था। राज्य सभा सांसद राकेश सिन्हा जुलाई 2019 में राज्य सभा में जनसंख्या विनियमन विधेयक को एक निजी विधेयक के रूप में पेश कर चुके हैं। जनसंख्या नियंत्रण की मांग को लेकर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह, राजेंद्र अग्रवाल और स्वामी यतींद्रानंद गिरि की अगुआई में 11 अक्तूूबर, 2019 को मेरठ से दिल्ली तक पैदल यात्रा की गई। इससे पहले भी गिरिराज सिंह जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की मांग को लेकर 2019 में जनसंख्या समाधान फाउंडेशन के बैनर तले 125 सांसदों का हस्ताक्षर युक्त पत्र राष्ट्रपति को सौंप चुके हैं। 2016 में वर्तमान संस्कृति मंत्री श्री प्रह्लाद सिंह पटेल भी जनसंख्या नियंत्रण पर एक निजी सदस्य बिल पेश कर चुके हैं। भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. अनिल अग्रवाल भी अगस्त 2020 में प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर आगामी संसद सत्र में ही जनसंख्या नियंत्रण बिल लाने का आग्रह कर चुके हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद भी जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने पर जोर देते रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से अब तक जनसंख्या नियंत्रण पर विभिन्न दलों के सांसद 35 बिल पेश कर चुके हैं जिनमें 15 बिल कांग्रेस सांसदों की ओर से पेश किए गए हैं। कई राजनेताओं ने सोशल मीडिया के माध्यम से भी जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता पर बल देते हुए अपनी आवाज मुखर की है।
केरल की बात करें तो वर्तमान में वहां कुल 3.50 करोड़ की आबादी में 54.7 प्रतिशत ही हिन्दू हैं जबकि 26.6 प्रतिशत मुस्लिम और 18.4 प्रतिशत ईसाई हैं। 2011 की जगनणना के पांथिक आंकड़ों के अनुसार केरल में हिन्दुओं की आबादी 16.76 प्रतिशत की दर से, तो मुस्लिम आबादी 24.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। पहली बार राज्य में हिन्दुओं की जनसंख्या 80 प्रतिशत से नीचे आई। राज्य में 2001 में हिन्दू 80.5 प्रतिशत थे जो घटकर 79.8 प्रतिशत रह गए जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गई। केरल में मुस्लिमों की बढ़ती जनसंख्या के साथ ही ईसाई भी अपनी आबादी बढ़ाने में लगे हुए हैं। 18.4 प्रतिशत ईसाई वहां के जनसंख्या संतुलन को असामान्य कर चुके हैं। हिन्दुओं का कन्वर्जन करवाकर भी मिशनरी और मुस्लिम अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हैं।
अब बात देश के सबसे बड़े सूबे की। उत्तर प्रदेश में 2001 की जनगणना के अनुसार 80.61 प्रतिशत हिंदू और 18.50 प्रतिशत मुसलमान थे, किन्तु 2011 में हिंदुओं की आबादी का प्रतिशत घटकर 79.73 रह गया और मुस्लिमों की आबादी बढ़कर 19.26 प्रतिशत हो गई। यहां तक कि उत्तर प्रदेश के 70 में से 57 जिलों में हिंदुओं की आबादी मुस्लिमों के मुकाबले घट रही है।
2017 में अमेरिका के एक थिंक टैंक प्यू रिसर्च सेंटर ने अपनी रिपोर्ट में प्रकाशित किया था कि 2070 तक दुनिया में सबसे अधिक आबादी मुस्लिमों की होगी। रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2050 के बीच मुस्लिमों की आबादी 73 प्रतिशत तक बढ़ेगी जबकि ईसाई आबादी 35 प्रतिशत बढ़ जायेगी। प्यू की ही रिपोर्ट कहती है कि 2050 तक भारत में विश्व के सबसे अधिक मुस्लिम होंगे, भारत में इनकी आबादी 30 करोड़ के पार हो जाएगी।
सवाल है कि यदि मुस्लिम अपनी जनसंख्या बढ़ा रहे हंै तो क्या इसे देश के लिए खतरा न माना जाए? दरअसल, मुस्लिमों में प्रचलित बहु-विवाह की प्रथा व कन्वर्जन ही उनकी जनसंख्या को बढ़ाने के मुख्य कारक हैं। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग के अनुसार भारत की जनसंख्या 2030 तक 1.5 अरब और 2050 में 1.64 अरब तक पहुंच जाएगी जबकि 2030 तक चीन की जनसंख्या 1.46 अरब तक पहुंचने का अनुमान है। वर्तमान में दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी भारत में वैश्विक सतह क्षेत्र के केवल 2.45 प्रतिशत और जल संसाधनों के 4 प्रतिशत हिस्से के साथ निवास करती है। इसी बढ़ती जनसंख्या को रोकना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है किन्तु मुस्लिम समाज अपनी मजहबी संकीर्णता के कारण इस ओर न तो ध्यान ही देता है, न ही इसे रोकने हेतु उपाय करता है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त, 2019 को लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए जनसंख्या नियंत्रण की बात की थी। उन्होंने कहा था कि जो छोटा परिवार रख रहे हैं वह भी एक प्रकार से देशभक्ति कर रहे हैं। उन्होंने परिवार को दो बच्चों तक सीमित रखने की अपील की थी। अब असम के बाद उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून को लेकर कवायद शुरू होती दिख रही है। राज्य सरकारों के इस कदम की विपक्ष आलोचना कर रहा है किन्तु व्यापक देश हित में उनका यह कदम राष्ट्रभक्ति की श्रेणी में माना जाएगा।
1976 में संविधान के 42वें संशोधन के तहत सातवीं अनुसूची की तीसरी सूची में जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन को जोड़ा गया था, जिसके तहत केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है। इस हिसाब से जो राज्य सरकारें जनसंख्या नियंत्रण पर कानून बनाने का मन बना रही हैं वे संवैधानिक दायरे में रहकर ही कार्य कर रही हैं।
देश में परिवार कल्याण कार्यक्रम स्वैच्छिक है जिसमें दंपती अपने परिवार के आकार का फैसला कर सकते हैं, अपनी इच्छानुसार परिवार नियोजन के तरीके अपना सकते हैं। इसमें किसी तरह की अनिवार्यता नहीं है। अत: अब यह सरकार व राज्य सरकारों को तय करना है कि वे जनसंख्या नियंत्रण पर क्या कदम उठाती हैं? फिलहाल तो असम तथा उत्तर प्रदेश से उठी आवाज की प्रशंसा की जाना चाहिये।
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