—सुरेंद्र किशोर
25 जून,1975 की आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं, राजनीतिक शिष्टाचार तथा सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर मात्र अपना राजनीतिक अस्तित्व और सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल लागू कर दिया था। जो लोग आज यह कह रहे हैं कि देश में आपातकाल जैसे हालात हैं, वे इंदिरा के आपातकाल के काले अध्यायों को जरूर पढ़ें। उन्होंने अपने विरोधियों की आवाज बंद करने के लिए सारी हदें पार कर दी थीं। उस आपातकाल को याद कर आज भी लोग सहम जाते हैं
आज की पीढ़ी के पत्रकारों को कैसा लगेगा, यदि सरकार यह आदेश दे दे कि अखबार में छपने से पहले हर खबर की कॉपी प्रेस सूचना ब्यूरो के अफसर के सामने प्रस्तुत करके उस पर मुहर लगवानी पड़ेगी? जेपी की तस्वीर की बात कौन कहे, विनोबा भावे के अनशन तक की खबर नहीं छपने दी गई थी आपातकाल में। जबकि विनोबा जी ने दमनकारी आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कह कर उसका समर्थन किया था। मीडिया की आवाज बंद कर देने के कुछ नमूने यहां प्रस्तुत हैं। याद रहे, ये कुछ ही नमूने हैं। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर से लेकर गौर किशोर घोष तक देश के करीब 200 पत्रकार आपातकाल में गिरफ्तार कर लिए गए थे। आपातकाल (1975-77) में इंदिरा गांधी गांधी सरकार के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो से समय-समय पर मीडिया को कड़े आदेशात्मक निर्देश दिए जाते थे। उन निदेर्शों के कुछ ही नमूने यहां दिए जा रहे हैं। समाचार जगत उसी के अनुरूप काम करने को बाध्य था।
25 और 26 जून 1975 के बीच की रात में देश में आपातकाल लगा। जेपी सहित हजारों नेताओं, कार्यकर्ताओं को पकड़कर जेलों में बंद कर दिया गया। पर जेपी तक का उस अवसर का चित्र अखबारों में नहीं छपने दिया गया। 16 जुलाई, 1976 को पीआईबी से अखबारों को यह निर्देश मिला कि जयप्रकाश नारायण के कहीं आने-जाने का समाचार न छापा जाए।
बड़ौदा डायनामाइट केस में दिल्ली कोर्ट में जार्ज फर्नांडिस ने बयान दिया था। उसे भी छपने से रोक दिया गया। लेकिन उसी केस के मुखबिर का अदालती बयान अखबारों के पहले पेज पर छपा। इस तरह घोटा गया था मीडिया का गला। जो कुछ लोग जब यह कहते हैं कि आज देश में आपातकाल वाली स्थिति है तो उन्हें निम्नलिखित बातें पढ़कर फिर अपनी टिप्पणी देनी चाहिए।
समाचार एजेंसियों के टेलीप्रिंटरों से सभी नेताओं की गिरफ्तारी के समाचार हटा दिए गए। जेपी भी गिरफ्तार हुए थे, पर उनका फोटो तक किसी अखबार में नहीं छपने दिया गया। और, जिस खबर को अधिकारी मना कर देता था, उसे नहीं छापना था। आपातकाल में यह काम रोज-रोज होता था। इसमें कोई अखबार अपवाद नहीं था। आज कैसा लगेगा यदि एक लाख से भी अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं व नेताओं को बिना अदालती सुनवाई की सुविधा दिए अनिश्चितकाल के लिए जेलों में बंद कर दिया जाए? खैर, आज तो यह संभव नहीं। किंतु आपातकाल में यही हुआ था।
इतना ही नहीं, आपातकाल में भारत सरकार के एटॉर्नी जनरल नीरेन डे ने सर्वोच्च न्यायालय में यह कह दिया कि यदि सरकार आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ अदालत से गुहार करने के जनता के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है। याद रहे कि ऐसा काम अंग्रेजों ने भी नहीं किया था।
यह और बात है कि अपने उस निर्णय को 35 साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक भूल माना। सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस न्यायालय से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने उस समय की अदालती भूल को स्वीकार किया।
जितना क्रूर व्यवहार अंग्रेजों ने भी जयप्रकाश नारायण के साथ नहीं किया, उतना इंदिरा सरकार ने आपातकाल में उनके साथ किया। जेपी ने शासन को यह कहलवाया था कि मेरे साथ कारावास में किसी राजनीतिक कैदी को रखा जाए। पर, जेपी की वह मांग नहीं मानी गई। जबकि अंग्रेजों ने जेपी की मांग पर लाहौर जेल में डॉ. राम मनोहर लोहिया को उनके साथ रहने दिया था।
वैसे आपातकाल तो 25 जून, 1975 की रात में लगी, किंतु इंदिरा गांधी उससे पहले से ही इसकी तैयारी कर रही थीं। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के संयुक्त सचिव बिशन टंडन ने 8 जून, 1975 को ही अपनी डायरी में लिखा था कि-पहले जजों की नियुक्ति में इंटेलिजेंस ब्यूरो से कोई मतलब नहीं था। पर, अब प्रधानमंत्री (इंदिरा गांधी) ने यह प्रथा चलाई है कि प्रस्तावित व्यक्तियों के राजनीतिक विचार व सहानुभूति जानने के लिए आई.बी. से पूछताछ जरूरी है। दो साल पहले तक केवल सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य सरकार की संस्तुति पर्याप्त थी। पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय में कई जजों की नियुक्तियां होनी हैं। एक नाम पिछले साल भी विचाराधीन था। पर अंत में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उनका अनुमोदन इस आधार पर नहीं किया कि उनकी निष्ठा पर संदेह था। आई.बी. की रपट में भी यही बात कही गई थी।
कानून मंत्री एच.आर. गोखले ने कहा, ‘जब तक प्रधानमंत्री की निर्वाचन याचिका पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती, तब तक वे मुख्य न्यायाधीश की बात नहीं टालना चाहते। जो कुछ मुख्य न्यायाधीश कहें, वही करना उचित होगा। जो भी पक्ष इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हारेगा, वह सर्वोच्च न्यायालय आएगा।’ याद रहे कि 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा चुनाव खारिज कर दिया।
आपातकाल में बिहार में भी सरकारी आतंक काफी था। कांग्रेसी -गैर कम्युनिस्ट दलों के वैसे नेता भी आतंकित थे जो गिरफ्तार नहीं हुए थे। भले उस दल के अधिकतर नेतागण जेलों में बंद थे। इस संबंध में भूमिगत कर्पूरी ठाकुर के निजी सामान की याद आती है। उसे अपने आवास में रखने के लिए उन्हीं के दल का एक एम.एल.सी. तैयार नहीं हुआ। पटना के वीरचंद पटेल पथ स्थित उनके सरकारी आवास से शासन ने कर्पूरी जी का सारा सामान बाहर सड़क पर फेंक दिया। ऐसा करने का शासन को पूरा हक था। क्योंकि तब तक वे किसी सदन के सदस्य नहीं रह गए थे। पर, उसके बाद की कहानी शर्मनाक है।
कर्पूरी ठाकुर के परिजन के समक्ष यह समस्या थी कि उस सामान को कहां रखा जाए? उनकी ही पार्टी के एक ऐसे एम.एल.सी.से संपर्क किया गया जो कर्पूरी जी की मेहरबानी से एम.एल.सी.बने थे। पर, उस एम.एल.सी.साहब ने अपने लंबे-चैड़े सरकारी आवास में उस सामान को रखने से साफ मना कर दिया।
फिर सामने आए एक कांग्रेसी विधायक। दक्षिण बिहार के मांडु क्षेत्र से कांग्रेसी विधायक वीरेंद्र कुमार पांडेय ने अपने घर में वह सब सामान रखा। जिस समाजवादी एम.एल.सी. ने कर्पूरी जी का सामान रखने से मना कर दिया था, वे फिर भी कर्पूरी जी के प्रशंसक -समर्थक थे। पर, वे भी एक खास स्थिति में डर गए थे। उन्हें लगा था कि सामान रखने के कारण ही उनकी भी गिरफ्तारी हो सकती है। 1977 में जब कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बने तो वे एक बार फिर ठाकुर जी की कृपा से एम.एल.सी. बन गए।
जिस दिन आपातकाल लगा, उस दिन पी. विश्वम्भरम पटना में थे। वे सन् 1967 में त्रिवेंद्र्रम से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से लोकसभा सदस्य चुने गए थे। वे पटना के फ्रेजर रोड स्थित एक होटल में टिके हुए थे। 26 जून, 1975 को मैं उनसे मिलने होटल गया। वे बालकोनी में बैठे उदास नजरों से सड़क की ओर निहार रहे थे। उन्होंने सड़क पर वाहनों की सामान्य दिनों जैसी भीड़ देखकर मुझसे कहा कि-आश्चर्य की बात है। यह जेपी का शहर है। वे गत रात गिरफ्तार हो गए। फिर भी पटना में सामान्य जनजीवन?
मैं उनसे क्या कहता! फिर भी मैं यह उम्मीद कर रहा था कि आने वाले दिनों में सरकार की ज्यादती का बदला बिहार के लोग कांग्रेस पार्टी से लेंगे। लिया भी। 1977 के लोकसभा चुनाव में बिहार ने बदला लिया। कुछ अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी सारी सीटें जनता पार्टी को ही मिलीं।
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