पण्डित माधव राव सप्रे : राष्ट्रीय जागरण के पुरोधा पत्रकार
May 20, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम भारत दिल्ली

पण्डित माधव राव सप्रे : राष्ट्रीय जागरण के पुरोधा पत्रकार

by WEB DESK
Jun 19, 2021, 05:09 pm IST
in दिल्ली
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

इंदुशेखर तत्पुरुष

हिंदू राष्ट्रीय जागरण के पुरोधा पत्रकार पंडित माधवराव सप्रे की आज 150वीं जयंती है। पत्रकार के रूप में पंडित सप्रे ने भारत के चहुंमुखी उत्थान के लिए सभी विषयों पर विचार किया। बात चाहे भारत के प्राचीन काल से राष्ट्र होने की अवधारणा की हो, हिंदू राष्ट्र के ही भारत राष्ट्र होने की हो, हिंदी की स्थापना की हो, या भारत एक कृषि प्रधान देश है, इस अवस्थापना के खंडन की बात हो, पंडित सप्रे ने पूरी प्रामाणिकता के साथ कलम चलाई।

    भारत में अंग्रेजी राज के दौरान भारतीय जनमानस पर सर्वाधिक प्रभाव दो बातों का पड़ा। पहला पश्चिमी सभ्यता का और दूसरा आधुनिकता के विचार का। पश्चिमी सभ्यता अंग्रेजी भाषा, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन आदि के रूप में अपना प्रबल आकर्षण जमा रही थी, तो आधुनिकता नए ज्ञान-विज्ञान, नई तकनीकी, नए शास्त्र और नई सामाजिक संरचनाओं के रूप में स्वीकृत हो रही थी। ये दोनों बातें एक-दूसरे से इतनी घुली-मिली थी कि पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता को एक ही वस्तु समझ लिया गया। पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण आधुनिक होने की अनिवार्य शर्त बन गयी। आधुनिकता के इस कुपाठ ने भारत की हजारों वर्षों की एक विकसित सभ्यता-संस्कृति के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी। अंग्रेजों के आने के पूर्व मुगलिया शासनकाल में भारत की अनेक उन्नत परम्पराएँ नष्ट हो चुकी थीं। समाज में ऐसी अनेक कुरीतियाँ थी, जो किसी स्वस्थ समाज का लक्षण नहीं हो सकती। कुछ कुरीतियाँ गुप्तकाल के बाद से शिथिल हुए साम्राज्य में ही समाज में पाँव पसारने लगी थीं, जो इस्लाम के आने पर और अधिक विकृत हो गईं। किन्तु भारत के तात्कालिक परिदृश्य में इन सबका कोई उपचार भी नहीं सूझता था। ऐसी विषम परिस्थितियों में इस वर्चस्वशाली नवागत आधुनिकता के प्रति आकर्षण होना स्वाभाविक ही था। किन्तु दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता में ऐसे अनेक तत्व थे जो भारतीय जनजीवन को पूरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर रहे थे। जटिल विषमता यहीं से प्रारंभ होती है कि पश्चिमी सभ्यता के अंगीकार को ही आधुनिकता का एकमात्र मार्ग मान लिया गया और पश्चिम की अनेक विकृत और मूर्खतापूर्ण बातों को भी आधुनिक कहा जाने लगा।
    स्वतंत्रता आंदोलन के समय बहुत कम ऐसे विचारशील लोग दिखाई पड़ते हैं जिनमें आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता के बीच अंतर करने का सूक्ष्म विवेक था। उदाहरण के तौर पर गांधी आधुनिक विचारों के समर्थक होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता के घोर विरोधी थे, जबकि उन्हीं के अनुयाई नेहरू आधुनिकता के साथ-साथ पश्चिमी सभ्यता के भी घोर समर्थक थे। वस्तुतः बीसवीं सदी के आरंभ में बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में जो राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई, वह अंग्रेजों के मुखर विरोध, प्रखर देशभक्ति और आधुनिक जीवनदृष्टि से निर्मित थी। किन्तु आधुनिक जीवनदृष्टि का समर्थन और अंग्रेजियत विरोध का द्वन्द्व इसे जटिल बनाता था। अस्तु, इस दौर में भारतीय अन्तरात्मा की सच्ची आवाज हमें वहीँ सुनाई पड़ती हैं जहाँ इस द्वन्द्व को पार कर लिया गया।

    भारतीय राष्ट्रबोध का प्रामाणिकता के साथ प्रतिपादन
    पंडित माधवराव सप्रे इस परंपरा के अग्रनायक हैं, जिन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय राष्ट्रबोध को प्रामाणिकता और प्राणवत्ता के साथ प्रतिपादित किया। तिलक के उपरांत राष्ट्रीय पत्रकारिता की मशाल उन्होंने ही थामे रखी। प्रखर राष्ट्रभक्त माखनलाल चतुर्वेदी, सेठ गोविंद दास, लक्ष्मीधर वाजपेयी, पण्डित द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे हिंदी के ध्वजवाहक इन्हीं की प्रेरणा से, इन्हीं की बनाई हुई लीकों पर आगे बढ़ सके। तत्कालीन परिदृश्य में जब विदेशी विद्वान अपनी औपनिवेशिक कुटिलता के कारण वास्तविकता से मुँह मोड़कर भारत की श्रेष्ठता पर कीच-कादा उछाल रहे थे और अनेक भारतीय अध्येता भी उनके प्रभाव में आकर उनके पिछलग्गू हो चले थे, माधवराव सप्रे जैसे विचारकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती भारतीय दृष्टि एवं भारतबोध को व्याख्यायित करने की थी। यह सिद्ध करने की थी कि सम्पूर्ण भारत एक राष्ट्र है। भारतीय संस्कृति का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। यह कुछ सदियों से भले ही परतंत्र राष्ट्र है, किंतु सहस्त्राब्दियों पूर्व भारत ने ही सम्पूर्ण संसार का पथदर्शन किया है। विश्व की सर्वाधिक समृद्ध परम्पराएँ इसकी बृहत्तर सीमाओं में विकसित हुईं।
    19 जून 1871 को मध्य प्रदेश के दमोह जिले के छोटे से गाँव पथरिया में पिता कोड़ोपन्त और माता लक्ष्मीबाई की के घर जन्मे पंडित माधवराव सप्रे ने आजीवन न केवल उन बौद्धिक चुनौतियों का सटीक उत्तर दिया अपितु भारतीय राष्ट्रबोध का एक सुविचारित और तथ्यपरक खाका भी तैयार करने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य को माध्यम बनाया। अखबार निकाले, विचारोत्तेजक लेख लिखे, साहित्य सृजन किया। अपने प्रखर सम्पादकीय लेखों और वैचारिक निबंधों के द्वारा लोकजागरण और शिक्षण का कार्य किया। स्वदेशी आन्दोलन और हिंदी भाषा के प्रति उनका समर्पण और साधना अप्रतिम थी, जिसके कारण उन्हें भारतीय नव जागरण का पुरोधा पत्रकार कहा जाता है।
    वस्तुतः अंग्रेज इस मिथ्या दम्भ के साथ भारत पर शासन करते रहे कि पूर्वकाल में भारत कभी एक राष्ट्र नहीं था। अंग्रेजी राज ने इसे एकसूत्र में बाँध कर एक राष्ट्र की हैसियत प्रदान की है। कालान्तर में उनके बौद्धिक दासों ने भी इस झूँठ को सत्य मान कर छाती से चिपका लिया। सप्रे जी ने सरस्वती के मार्च, 1918 अंक में "भारत की एक – राष्ट्रीयता" शीर्षक से विचारोत्तेजक लेख लिखकर इन आक्षेपों का सप्रमाण खण्डन किया तथा भारत की प्राचीन राष्ट्रीयता का प्रतिपादन किया।
 
   भारत बोध की पड़ताल
    माधव राव सप्रे के भारत बोध की पड़ताल हेतु हम उनके लेख , "हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों पर विचार" पर दृष्टि डालें तो कुछ महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगते हैं। यह लेख उन्होंने सरस्वती पत्रिका के अंक जुलाई-अक्टूबर,1915 में लिखा था, जो महात्मा गांधी के "हिंद स्वराज" में व्यक्त हुए विचारों के आगे की कड़ी प्रतीत होता है। उल्लेखनीय है कि सन् 1909 में लिखे गांधी के उन विचारों से न उनके राजनैतिक गुरु गोखले कभी सहमत हो पाए और न उनके राजनैतिक शिष्य पंडित नेहरू। नेहरू जी ने तो वैचारिक स्तर पर ही नहीं अपितु कर्म के स्तर पर भी "हिन्द स्वराज" की स्थापनाओं की धज्जियाँ उड़ा दी थी। हिंद स्वराज के 6 वर्ष बाद लिखे गए इस लेख में सप्रे जी गाँधी की तरह उस मूल भारत के दर्शन करते हैं जो अभी भी अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त था। वे लिखते हैं,
    " इस देश में अब भी ऐसे लोग हैं जिन पर पश्चिमी शिक्षा का बुरा असर नहीं पड़ा है। वह लोग अपने देश, समाज, धर्म और पूर्वजों के यथेष्ट अभिमानी बने हैं- उनका आत्मभाव जागृत है। उनके विषय में कभी-कभी आश्चर्य से यह कहा जाता है कि, "हम लोगों ने हिंदुओं को इतनी विद्या पढ़ाई, इतनी शिक्षा दी, इतने अच्छे अच्छे विचार दिए, इतने व्यावहारिक लाभों से मोहित किया, हिंदुस्तानी समाज की हीनता अनेक प्रमाणों और अनुभवों से सिद्ध करके सुधार और सभ्यता की इतनी स्फूर्ति दी, तो भी यह लोग स्वाभिमान का त्याग नहीं करते"! सोचना चाहिए कि इन लोगों में अब तक स्वाभिमान क्यों बना है?"
    इन खांटी भारतीय आत्मा वाले लोगों के सरल किन्तु दृढ़ स्वभाव का व्यंजनापूर्ण वर्णन करते हुए सप्रे जी इनकी चट्टान की तरह अडिग निष्ठा का जो कारण बताते हैं वह निस्संदेह नेत्रोन्मीलक है। वास्तव में यही एकमात्र भाव था जो औपनिवेशीकरण की प्रचंड आँधी में भी भारतीयता को उड़ जाने से बचा ले गया।
    "कारण यही है कि इन लोगों ने केवल बुद्धि या तर्क की उन्नति को शिक्षा का सार नहीं माना। इन लोगों ने अपने अंतःकरण की श्रेष्ठ मनोवृत्तियों की उन्नति पर ही उचित ध्यान दिया है।"
    इसी के साथ सप्रे जी यहां एक मर्मवेधी सवाल भी उठाते हैं,-
    "हम लोग हिंदुस्तान में रहते हुए भी अपने देश, समाज, धर्म, नीति, रहन-सहन, भाषा, कुटुंब, वात्सल्य, पूर्वज-पूजा आदि के विषय में विदेशियों के समान विचार करने लग गए हैं। धर्मांतरण न करने पर भी अपने धर्म पर हमारी श्रद्धा नहीं; जाति में रहकर भी हम लोग विजातीय से हो गए हैं। क्या यह हमारे समाज का भयंकर ह्रास नहीं है?
    सप्रे जी अंतःकरण की जिन श्रेष्ठ मनोवृत्तियों की बात करते हैं, अंग्रेजी शिक्षा ने उन्हें (कु-)बुद्धि के मशीनी पहियों तले कुचल कर रख दिया।
    हिंदी के राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकास पर बल
    पत्रकारिता के माध्यम से हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में विकसित और उन्नत करना सप्रे जी की बहुत बड़ी देन हैं। छत्तीसगढ़ मित्र मासिक के प्रवेशांक में उनका संकल्प था, "छत्तीसगढ़ मित्र हिंदी भाषा की उन्नति करने में विशेष प्रकार से ध्यान देवें। आजकल बहुत सा कूड़ा करकट जमा हो रहा है, वह न होने पावे। इसलिए प्रकाशित ग्रंथों पर प्रसिद्ध मार्मिक विद्वानों के द्वारा समूह समालोचना भी करें।"

    इस पत्रिका का दूसरा प्रमुख उद्देश्य वे बताते हैं,
    "पदार्थ विज्ञान, रसायन, गणित, अर्थशास्त्र, मानसिक शास्त्र, नीतिशास्त्र, आरोग्य शास्त्र आदि अनेक शास्त्रों और मनोरंजक कथा कहानियों के अन्य भाषाओं की अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, बंगाली, संस्कृत आदि भाषाओं के ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद कर लोगों तक पहुंचाना।"
    यह दोनों उद्देश्य इस बात के द्योतक हैं कि हिंदी के विस्तार और समृद्धि के प्रति वे कितने सजग और उत्तरदायी संपादक थे। ध्यान रखने की बात है कि यह बात वे जनवरी, 1901 में लिख रहे हैं, जब हिंदी एक नया रूपाकर ग्रहण करने ही लगी थी। अँगुलियों पर गिने जाने लायक लोग ही इस तरह स्वभाषा के प्रति संकल्पबद्ध दिखाई पड़ते थे। भाषा को लेकर सप्रे जी का दृष्टिकोण अत्यंत व्यवहारिक एवं भारतीयता परक था। "छत्तीसगढ़ मित्र" में एक पुस्तक की समालोचना करते हुए वे कहते हैं, " हम उर्दू या फारसी के उन शब्दों से विरोध नहीं रखते जो हिंदी की बोलचाल में कई वर्षों तक प्रयुक्त होने के कारण अब बिल्कुल साधारण और परिचित हो गए हैं; और जहां कहीं प्रसंगानुसार ऐसे शब्दों का उपयोग लेखक को आवश्यक जान पड़े वहां उन शब्दों से काम लेने का उसे पूर्ण अधिकार है। परंतु अप्रासंगिक स्थलों में और बिना हेतु किसी पराई भाषा का एक शब्द भी लेना हमें स्वीकार नहीं है।"
    राजनैतिक और साम्प्रदायिक एजेंडे के तहत हिंदुस्तानी के नाम पर हिंदी का स्वाभाविक स्वरूप विकृत कर उर्दू के शब्दों की जबरन घुसपैठ कराये जाने से बहुत पहले ही सप्रे जी की दूरदृष्टि तथा हिंदी के प्रति अटूट दृढ़ता का यह भाव स्मरणीय है।

    हिंदू एक जीवित राष्ट्र का नाम
    सरस्वती के मार्च, 1918 अंक के लेख "भारत की एक राष्ट्रीयता" में वे भारतीय राष्ट्रीयता को हिंदू राष्ट्रीयता के रूप में ही देखते हैं तथा कुछ लोगों के यह आरोप कि, "हिन्दुओं को राष्ट्र संज्ञा नहीँ दी जा सकती" का प्रखरता से प्रतिवाद करते हुए यह उद्घोष करते हैं, "हम जोर देकर कह सकते हैं कि प्रत्येक हिंदू, सभ्यता की तथा अन्य सभी दृष्टियों में भी समान है और हिंदू एक जीवित राष्ट्र का नाम है।
    सप्रे जी का अध्ययन प्रगाढ़ और बहुआयामी था। एक ओर वे "इंग्लैंड की व्यापार नीति" पर विचारोत्तेजक लेख लिखते हैं तो दूसरी ओर "कालिदास के काव्यों में नीतिबोध" जैसे साहित्यिक विषयों पर सरस निबन्ध लिखते हैं। "आत्मा का अमरत्व" तथा "मन को मापना" जैसे निबंधों को पढ़कर उनकी आधुनिक मनोविज्ञान और दार्शनिक विषयों पर गहरी पकड़ का पता चलता है।

    कृषि-कारीगरी-कुटीर उद्योग प्रधान था भारत
    केवल राजनीतिक-सामाजिक विषयों पर ही नहीं, अपितु आर्थिक क्षेत्र जैसे जटिल विषयों पर उन्होंने अपनी कलम चलाई। जिस विषय पर लिखना हो उसका कैसा प्रामाणिक और प्रगाढ़ अध्ययन चाहिए इस की जीती-जागती मूर्ति थे माधवराव सप्रे। इसका महत्वपूर्ण साक्ष्य है उनका "स्वदेशी आंदोलन और बायकाट" नामक लेख। लगभग पचास पृष्ठों का यह सुविस्तृत निबंध उन्होंने सन् 1906 में लिखा था जिसमें स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि और सैद्धांतिकी का प्रतिपादन किया था। देशसेवक प्रेस नागपुर से यह पुस्तकाकार छापा गया। उस काल में इसकी आठ हजार प्रतियों का छपना कोई साधारण बात नहीं थी।
    इस प्रसिद्ध लेख में वे दो टूक शब्दों में कहते हैं, "इस देश में अंग्रेजों के सिर्फ दो ही कर्तव्य हैं,- शासन करना (अर्थात हिंदुस्तानियों को सदा दासत्व में रखना) और संपत्ति को चूसना…।"
    यहाँ सप्रे जी द्वारा संकलित किये गए आंकड़ों पर एक नजर डालना जरूरी है कि अंग्रेजों ने किस तरह भारत के व्यापार को बरबाद कर हमें कंगाल कर दिया –
    " प्राचीन समय में इस देश का व्यापार बहुत अच्छी दशा में था। यूरोप के कवियों,लेखकों और प्रवासियों ने इस देश की कारीगरी, कला कुशलता और वैभव की बहुत प्रशंसा की है। उस समय इस देश की वस्तु दुनिया के सब भागों में भेजी जाती थी और वह अन्य देशों की वस्तु से ज्यादा पसंद की जाती थी। अकेले बंगाल प्रांत से 15 करोड़ का महीन कपड़ा हर साल विदेशों में भेजा जाता था, पटना में 330426 स्त्रियाँ, शाहबाद में 159500 स्त्रियां, गोरखपुर में 175600 स्त्रियाँ, चरखों पर सूत काटकर 35 लाख रुपये कमाती थीं। इसी प्रकार दीनापुर की स्त्रियां 9 लाख और पूर्णिया जिले की स्त्रियों 10 लाख रुपये का सूत कातने का काम करती थी।
    ये आँकड़े भारत के घर घर के आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होने की कथा तो कहते ही हैं, सामाजिक संरचना में स्त्री की भागीदारी को भी रेखांकित करते हैं। निष्कर्ष यह हैं कि -अनेक अन्यायी, कठोर और जालिम उपायों से अंग्रेजों ने इस देश के जुलाहों और अन्य व्यवसायियों का रोजगार बंद कर दिया।"
    इस निबन्ध में एक ऐसी जानकारी भी मिलती है जो हमें स्तब्ध कर देती है। भारत के लिए वेद-वाक्य की तरह कहा जाने वाला वाक्य कि "भारत एक कृषि प्रधान देश है", पूर्व से चला आ रहा यथार्थ नहीं, अंग्रेजों में अमानवीय शोषण और अत्याचारों का परिणाम है। भारत के घर घर में चलने वाले कुटीर उद्योगों, काम-धंधों और कारीगरी को बुरी तरह चौपट कर पहले सभी को बेरोजगार किया गया, फिर कड़े कानून बनाकर जबरदस्ती उनसे खेती करवाई गई। सप्रे जी अनेक अंग्रेज अधिकारियों और इतिहासकारों को उद्धृत कर यह प्रमाणित करते हैं कि भारत में केवल कृषि ही नहीं, कारीगरी तथा अन्य कुटीर उद्योग भी प्रधान थे। इसे कृषि प्रधान देश तो अंग्रेजों ने अपने कुटिल इरादों से बना दिया। भारत के लोग केवल कच्चा माल तैयार करेंगे, कोई उत्पादन नहीं। उत्पादन केवल इंग्लैंड के कारखानों में होगा। सारे कारीगर बलपूर्वक खेत मजदूर बना दिये गए। और अनेक उद्योगों, उत्पादनों, व्यवसायों से भरापूरा भारत कृषि प्रधान देश में बदल गया। इन तथ्यों से गुजरना सचमुच लोमहर्षक है। सप्रे जी द्वारा उद्धृत केवल दो टिप्पणियां देखें- "ट्रैवीलियन साहब कहते हैं – हम लोगों ने हिंदुस्तानियों का व्यापार चौपट कर दिया अब उन लोगों को भूमि की उपज के सिवा अन्य कोई आधार नहीं है। ……. लारपेंट साहब कहते हैं – हम लोगों ने हिंदुस्तान की कारीगरी का नाश किया है।"
    भारत का उत्थान भारतीय परंपरा में नवाचार करने में
    यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति और इतिहास का गहन अध्ययन कर उनका निष्कर्ष है कि भारत का उत्थान और विकास यूरोपीय अंधानुकरण करने में नहीं अपितु भारतीय परम्परा में ही नवाचार करने में है। वे इस पश्चिमी सभ्यता को "भ्रममूलक सभ्यता" कहते हैं। सरस्वती- जुलाई, 1917 में "भौतिक प्रभुता का फल" शीर्षक लेख में सम्पन्नता के शिखर पर पहुँचे राष्ट्र जर्मनी पर प्रश्न उठाते हैं,-
    "जर्मनी ने केवल भौतिक विज्ञान की सहायता से अपनी प्रभुता स्थापित करने का निश्चय किया है। उसने स्वतंत्रता, समता, बंधुभाव, नीति और न्याय का नाश कर डाला है क्या यही सभ्यता या सुधार है?"
    वे मानते हैं कि मनुष्यता का प्रश्न इतना सरल नहीं है जो केवल भौतिक विज्ञान की सहायता से हल हो जाये। इस कारण वे सम्पूर्ण यूरोप को जो चेतावनी देते हैं वह आज भी उतनी ही खरी है। अपितु, आज तो वह सारे संसार के लिए एक जरूरी सन्देश है।
    "प्रकृति को जीत लेने का उनका प्रयत्न केवल अमानुष कहलावेगा। मनुष्य भी प्रकृति का एक स्वाभाविक अंग है, उसे प्रकृति के साथ हिल मिलकर रहना ही उचित है। मनुष्य केवल भौतिक जीव नहीं, केवल औद्योगिक जीव नहीं, केवल आर्थिक जीव नहीं, और ना केवल राजनैतिक जीव ही है।
    अपने समाज, राष्ट्र, संसार और समकाल की गहरी पड़ताल कर सप्रे जी जिस निष्कर्ष पर पहुँचे वह आज सौ वर्ष बाद भी अकाट्य है। कहीं अधिक जरूरी हो गया है।
    "भारतीय राष्ट्र का भविष्य केवल दो बातों पर अवलंबित है – एक तो भारतवासी अपने राष्ट्रीय साहित्य का सम्यक ज्ञान प्राप्त करें; और दूसरी बात यह है कि सभी शिक्षालयों तथा विद्यालयों में शिक्षा मातृभाषा के द्वारा दी जाए। …… यह स्वतंत्र बुद्धि से काम लेने का समय है और यदि इस समय हमने उचित मार्ग पर चलना फिर से प्रारंभ कर दिया तो हमारा भविष्य बहुत ही उज्जवल और कल्याणप्रद होगा।"
    यह हमारी विडम्बना है कि पण्डित माधवराव सप्रे जैसे मनीषियों की बातें अनसुनी रह गईं। हम स्वतंत्रता प्राप्ति के पचहत्तर वर्ष बाद भी न तो राष्ट्रीय साहित्य की महत्ता पुनर्स्थापित कर सके और न मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम ही बना सके। भाषा और साहित्य, इन दोनों ही क्षेत्रों में विदेशी पिछलग्गूपन की भौंडी मानसिकता ने हमारी स्वतंत्र बुद्धि को गिरवी रखा हुआ है।

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

Indian Airforce on mission mode

‘विश्व की पुकार है ये भागवत का सार कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है’, भारतीय वायुसेना ने शेयर किया दमदार वीडियो, देखें

पर्यावरण संरक्षण गतिविधि की कार्यशाला

India Pakistan Border retreat ceremony started

भारत-पाकिस्तान के बीच सामान्य हो रहे हालात, आज से फिर शुरू होगी रिट्रीट सेरेमनी

Singapor Doctor punished for commenting on Islam

सिंगापुर: 85 वर्षीय डॉक्टर ने सोशल मीडिया पर इस्लाम को लेकर की पोस्ट, अदालत ने ठोंका S$10,000 का जुर्माना

Administartion buldozed Illegal mosque

उत्तराखंड: मुरादाबाद-काशीपुर हाईवे पर बनी अवैध मस्जिद और मजारों पर प्रशासन ने चलाया बुल्डोजर

सुप्रीम कोर्ट

‘भारत कोई धर्मशाला नहीं’ सुप्रीम कोर्ट का फैसला और केंद्र की गाइड लाइन

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

Indian Airforce on mission mode

‘विश्व की पुकार है ये भागवत का सार कि युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है’, भारतीय वायुसेना ने शेयर किया दमदार वीडियो, देखें

पर्यावरण संरक्षण गतिविधि की कार्यशाला

India Pakistan Border retreat ceremony started

भारत-पाकिस्तान के बीच सामान्य हो रहे हालात, आज से फिर शुरू होगी रिट्रीट सेरेमनी

Singapor Doctor punished for commenting on Islam

सिंगापुर: 85 वर्षीय डॉक्टर ने सोशल मीडिया पर इस्लाम को लेकर की पोस्ट, अदालत ने ठोंका S$10,000 का जुर्माना

Administartion buldozed Illegal mosque

उत्तराखंड: मुरादाबाद-काशीपुर हाईवे पर बनी अवैध मस्जिद और मजारों पर प्रशासन ने चलाया बुल्डोजर

सुप्रीम कोर्ट

‘भारत कोई धर्मशाला नहीं’ सुप्रीम कोर्ट का फैसला और केंद्र की गाइड लाइन

Operation sindoor

‘ऑपरेशन सिंदूर रुका है, खत्म नहीं हुआ’, इजरायल में भारत के राजदूत बोले-लखवी, हाफिज सईद और साजिद मीर को सौंपे पाकिस्तान

‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद बलूच लड़ाकों ने पाकिस्तानी फौज पर हमले तेज कर दिए हैं

अत्याचार का प्रतिकार, हमले लगातार

Voice president jagdeep dhankarh

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने जस्टिस यशवंत वर्मा के घर कैश बरामदगी मामले में एफआईआर न होने पर उठाए सवाल

Hindu Family in Sylhat converted to Islam

बांग्लादेश: जमात ए इस्लामी ने हिन्दू परिवार का करवाया इस्लामिक कन्वर्जन, लगाए अल्लाह हु अकबर के मजहबी नारे

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies