रवि पाराशर
चीन के वुहान लैब से लीक कोरोना वायरस के दाग धोने के लिए चीन ने आक्रामकता, कूटनीति, और भ्रमजाल बुनने तक हर तरकीब अपना ली। इससे भी बढ़ कर उसने जबरदस्त मीडिया मैनेजमेंट किया, वह चीन से बाहर शेष विश्व की मीडिया का जिसके फलस्वरूप चाइना वायरस की चर्चा बंद होकर उसके वैरिएंट्स की चर्चा होने लगी। परंतु आज समय है जब विश्व को इस नरसंहार के दोषी को दंडित करना ही चाहिए ताकि मानव जाति को खतरे में डालने की हिमाकत कोई न कर सके।
लगभग डेढ़ साल में ही कोविड-19 वायरस पूरी दुनिया में भयंकर नरसंहार करने वाला हथियार बन गया है। भारत में विपक्ष के राजनीतिक अरण्यरोदन को थोड़ा अनसुना करें, तो पता चलता है कि कुल 220 वैश्विक ठिकानों में कोरोना से मृत्यु के मामले में भारत की स्थिति लगभग 90 से बेहतर है। अमेरिका के बाद कोरोना संक्रमितों की संख्या के मामले में भारत भले ही दूसरे नंबर पर हो, लेकिन जनसंख्या घनत्व को देखें, तो भारत में प्रति 10 लाख आबादी में कोरोना से मरने वालों की संख्या फिलहाल 250 के आसपास ही है।
दाग धोने की चीन की युक्ति
● चाइना वायरस के विमर्श से ध्यान हटाना
● दक्षिण एशिया में कूटनीतिक अफरातफरी मचाना
● नेपाल को शह देकर भारत की घेरेबंदी
● नरेंद्र मोदी की छवि बदरंग करने के प्रयास
● कांग्रेस के रुख पर चीन के असर के संदेह
चाइना वायरस से ध्यान हटाने को चीन की युक्ति
कोरोना से युद्ध जारी है, लेकिन पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष कोरोना विमर्श में जो मूलभूत अंतर आया है, वह यह है कि अब इसके लिए चीन के उत्तरदायी होने का उल्लेख करीब-करीब नहीं हो रहा है। पिछले साल दुनिया भर में कोविड-19 के प्रसार के लिए चीन को प्रथम खलनायक माना जा रहा था। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो कोविड-19 का नाम ही चाइना वायरस, वुहान वायरस और कुंग फ्लू वायरस रख दिया था। चीन की आपत्ति के बावजूद ट्रंप ने बहुत बार खुल कर सार्वजनिक मंचों पर कोरोना महामारी के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया। कोरोना की पहली लहर के मुकाबले कई गुना प्रचंड दूसरी लहर से हो रही तबाही के बीच दुनिया में चीन के प्रति गुस्सा अधिक उबलना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। डेढ़ वर्ष बाद चाइना या वुहान या कुंग फ्लू वायरस की बजाय अब कोविड-19 के ब्रिटिश, ब्राजील, साउथ अफ्रीका, इंडियन और सिंगापुर वेरिएंट की ही चर्चा चारों ओर है, तो ऐसा क्यों है, इसे समझना चाहिए।
कोविड-19 की पहली लहर में ऐसा माहौल बना था जैसे पूरी दुनिया चीन को मानवता का दुश्मन मानने लगी हो। वैश्विक आर्थिक मोर्चों की वास्तविकता जो भी हो, आम भारतीय चौक पर चर्चा करने लगा था कि चीन को घेरने के लिए दुनिया एकजुट हो रही है। कोरोना को लेकर चीन की प्रखर आलोचना ने हमारे नागरिकों में भारतीयता के प्रति सकारात्मक चिंतन को भी बढ़ावा दिया। लेकिन अब लगता है कि डेढ़ वर्ष के छोटे अंतराल में ही इंसानियत के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में चीन ने अपने दामन पर लगा सबसे भद्दा दाग चुपचाप धो दिया है। ध्यान देने लायक बात यह है कि चीन ने यह उपलब्धि अपने मीडिया के इस्तेमाल से नहीं, बल्कि विश्व मीडिया के माध्यम से हासिल की है।
किसी तथ्य को नकारने के लिए एक तरीका तो यह है कि घड़ी-घड़ी ढोल पीट कर तरह-तरह छद्म तार्किक वातावरण बनाया जाए कि अमुक बात सही नहीं है। किंतु दूसरा अधिक कारगर तरीका यह है कि जिस विमर्श को लापता करना हो, उसके बारे में कानों-कान चर्चा ही न हो, ऐसी व्यवस्था कर दी जाए। चतुर चीन ने दूसरे तरीके पर बल दिया और आम भारतीय का ध्यान इस ओर से हट गया कि डेढ़ साल पहले ही दुनिया को महाविनाश का महाश्राप उसने दिया था। चीन की इस उपलब्धि को मीडिया मैनेजमेंट विषय में शामिल किया जा सकता है।
मोदी की छवि बदरंग करने के प्रयास संयोग मात्र!
ध्यान देंगे, तो चौंक जाएंगे कि चीन ने जिस दौरान अपना दाग धीरे-धीरे ओझल किया, उसी दौरान कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने भारत में नरेंद्र्र मोदी सरकार के विरोध में माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। केंद्र्र सरकार ने कोविड-19 से युद्ध में भले ही अपना सब कुछ झोंक रखा हो, संविधान में भले ही स्वास्थ्य राज्यों का ही विषय हो और गैर-बीजेपी पार्टियों की सरकारों ने भले ही अपनी जिम्मेदारी बिल्कुल नहीं निभाई हो, लेकिन वे मोदी विरोधी माहौल बनाने में शिद्दत से लगी हैं। नोटबंदी जैसे कठिन समय में भी जिन देशवासियों का विश्वास ब्रैंड मोदी के प्रति डिगा नहीं था, वे अब उतने मुखर नहीं हैं। चीन का दाग धुलना और मोदी की छवि बदरंग करने के प्रयास क्या मात्र संयोग हैं? या फिर यह बेहद सुनियोजित षड्यंत्र है?
पिछले लगभग पांच साल के दौरान भारतीयों के मन में चीन के प्रति संशय बढ़ा है। इसे नई आॅक्सीजन मिली जून, 2017 में 72 दिनों तक चले डोकलाम गतिरोध के दौरान। चीन, भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान का कूटनीतिक साझीदार है। ऐसा नहीं है कि वह पाकिस्तान का स्वाभाविक मित्र है। 1 अक्टूबर, 1949 को स्वतंत्र सत्ता स्थापित होने के बाद से ही चीन दक्षिण एशिया में स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने में लगा है। इसके लिए वह भारत की राह में रोड़े अटकाते रहने की नीति पर चलता है। क्योंकि पाकिस्तान भारत का धुर विरोधी है, लिहाजा चीन, उसका स्वाभाविक मित्र है।
घिरने पर चीन ने मचाई कूटनीतिक अफरा-तफरी
वुहान प्रयोगशाला में कोविड-19 को लेकर हुई भूल के बाद चीन बुरी तरह घिरा, तो उसने सबसे पहला काम किया दक्षिण एशिया में कूटनीतिक अफरा-तफरी मचाने का। इसे षड्यंत्र का सुनियोजित अध्याय मानें, तो कोविड-19 की पहली जानलेवा लहर के बीच दक्षिण एशिया में घटे कूटनीतिक घटनाक्रम के ठोस कारण स्पष्ट होने लगते हैं। 1962 के युद्ध के बाद से ही भारतीय नागरिकों में चीन के विस्तारवादी रवैये को लेकर रोष छिपी हुई बात नहीं है, लिहाजा अप्रैल-मई, 2020 में पूर्वी लद्दाख में चीन की सीनाजोरी ने भारतीयों को और भड़का दिया। इसका चरम आया 14-15 जून, 2020 की रात में। गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों में जानलेवा झड़प हुई, जिसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए और 40 से अधिक चीनी सैनिक मारे गए। भारत में पहले से ही जारी चीन विरोध और प्रबल हो गया। भारतीय मीडिया में चीन के विरोध में जबर्दस्त अभियान चलने लगा। लोगों ने चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की गति बढ़ा दी। भारत सरकार ने भरपूर गर्जना के साथ आत्मनिर्भरता का मंत्रनाद कर दिया। कोविड-19 की बजाय भारत-चीन के रिश्ते बिगड़ने की चर्चा केंद्र्र में आ गई।
चीन की शह पर नेपाल ने तरेरी आंखें
इतना ही नहीं, चीन की शह पर नेपाल ने तीन भारतीय क्षेत्रों लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा को अपने नक्शे में शामिल करने का ऐलान कर आंखें तरेर लीं। नेपाल को भारत के तत्कालीन ब्रिटिश शासकों और महाराजा के बीच हुई सुगौली संधि 204 साल बाद याद आ गई। भारतीय फौज की गोरखा रेजीमेंट के नेपाली जवानों को भड़काने की साजिश रची गई। भारत को उकसाने के लिए नेपाली संसद में हिंदी के विरोध में माहौल बनाया गया। साथ ही, नेपाली युवकों से विवाह करने वाली भारतीय युवतियों को तुरंत नेपाली नागरिकता देने की व्यवस्था में भी व्यवधान डाल दिया गया। कुल मिलाकर चीन की शह पर नेपाल ने भारत के प्रति कई मोर्चे खोल दिए। पाकिस्तान तो लगातार आतंकवाद को बढ़ावा दे ही रहा है। साफ है कि कोविड के कारण बने प्रतिकूल माहौल की तरफ से ध्यान हटाने के लिए चीन ने तुरंत ही तमाम तरह के हथकंडे अपनाए और मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने की अपनी चाल में सफल भी हो गया।
चीन ने कोविड-19 के संक्रमण का एकमात्र कारण बनने के मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए दक्षिण एशिया में तनाव पैदा करने की कई साजिशें रचीं, अब डेढ़ साल बाद इसमें कोई संदेह नहीं है। इसके अलावा चीन को यह भी बुरा लगता है कि कोविड-19 पर असरदार नियंत्रण के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या कुल मिलाकर भारत की प्रशंसा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो। पहली लहर के दौरान चीन को यह भी रास नहीं आया होगा कि उस पर तो दुनिया निशाना साध रही है, वहीं भारत की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है। इसी वजह से उसने भारत में अपने दोस्तों को उकसाया कि केंद्र्र सरकार के प्रति कुछ भी अनाप-शनाप प्रचारित कर उसे बदनाम किया जाए।
चीन-कांग्रेस कनेक्शन के संदेह!
गौर करेंगे, तो समझ में आएगा कि लद्दाख में चीन के अतिक्रमण के मसले पर भारत के कड़ा रुख अपनाने पर चीन के दबाव में आ जाने के बावजूद राहुल गांधी समेत कई कांग्रेस नेता लगातार ऐसे आरोप लगाते रहे, जिनसे भारतीय सेना का मनोबल कम हो। भारत के पक्ष में तमाम तथ्य सामने आने के बाद भी कांग्रेस ऐसे बयान देती रही, जिनसे चीन को ही फायदा पहुंचता था।
पिछले साल ही यह बात भी सामने आई कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सोनिया और राहुल गांधी की मौजूदगी में कांग्रेस ने 2008 में एमओयू पर हस्ताक्षर किए थे। भारतीय जनता पार्टी आरोप लगाती है कि इस एमओयू के बदले चीन ने कांग्रेस को भारी रकम दी, ताकि वह चीन के हितों की रक्षा कर सके। भाजपा आरोप लगाती है कि यही कारण है कि कांग्रेस ने मई, 2020 में अपने नेता अधीर रंजन चौधरी को एक ट्वीट डिलीट करने पर मजबूर किया, जिसमें उन्होंने लद्दाख में दादागीरी करने वाले चीन को जहरीला सांप बताते हुए लिखा था कि भारतीय सेना जहर उतारने में माहिर है। चौधरी ने ट्वीट में सुझाव दिया था कि चीन को सबक सिखाने के लिए भारत को तुरंत ताइवान से राजनयिक संबंध बनाने चाहिए। कांग्रेस पार्टी ने ट्वीट से पल्ला झाड़ते हुए इसे चौधरी की निजी राय बताया। दबाव में आए चौधरी को ट्वीट डिलीट करना पड़ा। 31 मार्च, 2020 को अरुणाचल प्रदेश के कांग्रेस विधायक निनोंग एरिंग ने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से लिखित अपील की कि ‘जैव युद्ध छेड़ने के लिए भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चीन पर मुकदमा चला कर 22 अरब डॉलर का हजार्ना मांगना चाहिए।’ कांग्रेस ने अपने विधायक की मांग को बिल्कुल भी तूल नहीं दिया।
भ्रामक सूचनाओं का संजाल
चीन के दुष्प्रचार मैनेजमेंट की बात समझ में आने के बाद अब यह भी जानना चाहिए है कि चाइना वायरस, वुहान वायरस या फिर कुंग फ्लू वायरस की बजाय डेढ़ साल बाद अब कोविड-19 के इंडियन, ब्रिटिश, ब्राजीलियन या साउथ अफ्रीकी वेरिएंट की चर्चा युद्ध स्तर पर क्यों होने लगी है? यह भी ध्यान दीजिए कि चीन की बजाय दूसरे देशों के नाम पर कोविड-19 के वायरस के नाम का इस्तेमाल अधिक कर कौन रहा है? हाल ही में सिंगापुर सरकार के रवैये से जुड़े मामले में कांग्रेस नेता कमलनाथ ने ‘भारतीय कोरोना’ का उल्लेख किया, तो उन पर एफआईआर दर्ज की गई। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी ‘सिंगापुर वेरिएंट’ नाम का इस्तेमाल कर जगहंसाई करा चुके हैं। असल में वह भारत में पाया गया वेरिएंट ही था, प्रेस कॉन्फ्रेंस में जिसका उल्लेख सिंगापुर सरकार ने किया था।
भ्रामक सूचनाओं का जाल बिछाने वाला तंत्र सहज मानवीय मनोविज्ञान का ध्यान रखता है, ताकि मामला विश्वसनीय लगे, एकदम से संदेह न हो, लोग उस पर सहज ही विश्वास कर लें। वह तंत्र चाहता तो है कि सिर्फ भारत को बदनाम किया जाए, लेकिन भ्रम को विश्वसनीय बनाने के लिए आवश्यक है कि कुछ और देशों के नाम भी जोड़े जाएं। कोविड-19 के मामले में अमेरिका पहले नंबर पर है। लेकिन उसके नाम का कोई वेरिएंट अभी तक चर्चा में नहीं है। कोई नहीं चाहेगा कि वह दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश से एक और सीधा टकराव मोल ले, जबकि निशाने पर कोई और हो। कोविड से संक्रमित होने के मामले में ब्राजील तीसरे नंबर पर है, लिहाजा उसके नाम के वेरिएंट पर भी किसी को सहज ही संदेह नहीं होगा। ब्रिटेन सातवें और दक्षिण अफ्रीका 20वें नंबर पर है। इन देशों के वेरिएंट का जिक्र कर भ्रम को सशक्त आधार दिया जा रहा है। क्योंकि संक्रमण संख्या के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है, इसलिए कोविड को उसके नाम से जोड़ा जाए, तो इस पर शक की गुंजाइश नहीं रहेगी।
वैज्ञानिक रूप से सही है कि बहुत से वायरस समय और मौसम के साथ रूप बदलते हैं। कोविड-19 भी रूप बदल रहा है और उसके स्वरूप के हिसाब से उसका उपनामकरण भी किया जा रहा है, ताकि अध्ययन में सहूलियत रहे। 12 मई, 2021 को विश्व स्वास्थ्य संगठन का दक्षिण एशिया कार्यालय ट्वीट कर स्पष्ट कर चुका है कि किसी देश के नाम पर वायरस का नाम रखने की नीति नहीं है। न ही देश विशेष के नाम से वायरस का संदर्भ लिया-दिया जा सकता है, लिहाजा कोविड-19 के किसी वेरिएंट का आधिकारिक नाम इंडिया, ब्रिटेन, ब्राजील, साउथ अफ्रीका या किसी और देश के नाम पर रखे जाने का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर भी अगर ये सारे नाम प्रचलन में हैं, तो बाकायदा षड्यंत्र के तहत ऐसा किया जा रहा है। अब तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाकायदा टूलकिट बनाकर भ्रम फैलाने के षड्यंत्र भी सामने आ चुके हैं।
किसी राष्ट्र, संस्था या व्यक्ति विशेष के विरोध में भ्रामक माहौल बनाने के लिए बहुआयामी षड्यंत्र रचे जाते हैं। त्रुटिपूर्ण सूचनाओं का संजाल खड़ा किया जाता है। जातीय वैमनस्य बढ़ाने के लिए कई दूसरे स्तरों पर कार्रवाई की जाती है। न्यूयॉर्क की एक संघीय अदालत में गत 20 मई को चाइना वायरस कहने के लिए डोनाल्ड ट्रंप पर केस दर्ज किया जाना ऐसी ही कोशिश है। न्यूयॉर्क से लेकर कैलीफोर्निया तक जातीय हिंसा बढ़ाने के आरोप में यह केस अमेरिका में सक्रिय चीनी-अमेरिकी मानवाधिकार गठबंधन नाम के एनजीओ ने दर्ज कराया है। ध्यान देने वाली बात है कि न्यूयॉर्क में हुई इस घटना से जुड़ा समाचार सिर्फ चीन की एजेंसी शिन्हुआ ने ही जारी किया।
31 दिसंबर, 2019 को कोविड-19 का पहला केस चीन के वुहान में दर्ज किया गया। कुछ समय बाद ही इसकी चर्चा विश्व स्तर पर होने लगी और चीन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो लगभग शुरू से ही चीन पर महाषड्यंत्र रचने और विश्व सास्थ्य संगठन पर उसका सहयोग करने के आरोप खुलकर लगाए। डब्ल्यूएचओ को दी जाने वाली अमेरिकी मदद तो रोकी ही, उससे किनारा करने तक का निर्णय कर लिया। अमेरिका में उस समय राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया चल रही थी। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध नई बात नहीं है और संभव है कि ट्रंप एशियाई वोट बैंक को प्रभावित करने के लिए कोविड-19 को लेकर चीन की मुखर आलोचना कर रहे हों। जो भी हो, तथ्य यह है कि कोरोना को लेकर एक वर्ष पहले चीन पूरी दुनिया के निशाने पर था।
डब्ल्यूएचओ पर चीन का दबदबा
ट्रंप ने डब्ल्यूएचओ को हर साल मिलने वाली 45 करोड़ डॉलर से ज्यादा की मदद बंद करने का निर्णय लिया। उनकी चिंता थी कि चीन डब्ल्यूएचओ को हर साल करीब चार करोड़ डॉलर ही देता है, फिर भी उसका दबदबा अमेरिका से ज्यादा क्यों है? कम्युनिटी हेल्थ विषय में पीएचडी टेड्रोस एडहानॉम डब्ल्यूएचओ के पहले ऐसे प्रमुख हैं, जिनके पास चिकित्सा शास्त्र की डिग्री नहीं है। चीन ने उनकी नियुक्त में अहम भूमिका निभाई थी। टेड्रोस जब इथियोपिया के स्वास्थ्य मंत्री थे, तब आरोप लगा था कि उन्होंने हैजे की बीमारी की बात छिपाई। इस बात की भी चर्चा है कि टेड्रोस जब विदेश मंत्री थे, तब चीन ने इथियोपिया में जमकर निवेश किया था। हो सकता है कि उन्होंने चीन से दोस्ती निभाई हो। यहां उल्लेखनीय है कि जनवरी, 2021 में तमाम अंतरराष्ट्रीय दबाव में डब्ल्यूएचओ की टीम ने वुहान प्रयोगशाला की पड़ताल के बाद इस साल मई में जारी अपनी रिपोर्ट में यह आरोप खारिज कर दिया है कि कोविड-19 वायरस वहां से लीक हुआ था।
ट्रंप की हार और कोविड-19 पैदा होने के डेढ़ साल बाद अब अमेरिका में डेमोक्रेटिक शासन में चीन की उतनी कड़ी आलोचना नहीं की जा रही है। लेकिन अमेरिका के वैज्ञानिक हलकों में उसे क्लीनचिट भी नहीं दी जा रही है। गत 24 मई को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार व्हाइट हाउस के मुख्य चिकित्सा सलाहकार संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. एंथनी फासी ने कोरोना वायरस के प्राकृतिक होने पर संदेह जताया है। उन्होंने कहा है कि विस्तृत जांच होनी चाहिए कि चीन में ऐसा क्या हुआ, जिससे यह वायरस अस्तित्व में आया। इस बीच हाल ही में अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जनरल ने खुफिया सूत्रों के हवाले से खबर प्रकाशित की है कि नवंबर, 2019 में वुहान लैब के तीन शोधकतार्ओं को अस्पताल में भर्ती किया गया था। इसके एक महीने बाद कोविड-19 की जानकारी चीन ने दुनिया से साझा की। रिपोर्ट साबित करती है कि वायरस वुहान लैब से ही फैला। अब भारत ने भी चीन की जांच की मांग में खुलकर सुर मिलाया है।
कोविड-19 वायरस की उत्पत्ति की जांच की मांग
डेढ़ साल बाद अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोविड-19 वायरस की उत्पत्ति को लेकर बहुआयामी जांच की मांग तेज होने लगी है। अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'साइंस' में प्रकाशित एक अपील में कैलीफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के माइक्रोबॉयोलॉजिस्ट डेविड रिलमैन और यूनिवर्सिटी आॅफ वॉशिंगटन के वॉयरोलॉजिस्ट जेसी ब्लूम समेत 16 दूसरे मशहूर जीव विज्ञानियों ने चीन की प्रयोगशालाओं और जांच एजेंसियों से अपनी रिपोर्टें सार्वजनिक करने की मांग की है, ताकि स्वतंत्र जांच हो सके। लेकिन सभी जानते हैं कि चीन ऐसा हरगिज नहीं करेगा।
मार्च, 2021 में क्वॉड देशों की पहली वर्चुअल शिखर बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, आॅस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरीशन और जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा ने संयुक्त हस्ताक्षर से पत्र लिख कर चीन को चेताया था। पत्र में मुख्य रूप से चीन को उसके हस्तक्षेप के लिए आगाह करते हुए हिंद-प्रशांत क्षेत्र को स्वतंत्र बनाए रखने की प्रतिबद्धता दोहराई गई। कोरोना के मामले में चारों देशों ने चीन पर सीधे कोई हमला नहीं बोला। उन्होंने शपथ ली है कि वे भारत में सुरक्षित, सर्वसुलभ और प्रभावी वैक्सीन के उत्पादन को व्यापक करेंगे और तय करेंगे कि वर्ष 2022 तक पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में टीकाकरण पूरा कर लिया जाए।
यह ठीक है कि कोविड-19 के रूप में जैव हथियार विकसित करने के चीन के बड़े षड्यंत्र का पदार्फाश हो चुका है। लेकिन वुहान लैब में हुई गलती के कारण चीन की बंद मुट्ठी खुल गई। असावधानीवश दुनिया पर हुए कोविड-19 के हमले ने एक बात और साबित कर दी है कि जैविक हथियार अगर भविष्य में भी विकसित और प्रयुक्त होंगे, तो उनका असर सीमित भौगोलिकी तक सिमटा हुआ नहीं रह पाएगा। ग्लोबल विलेज बन चुकी दुनिया को हर जैविक हमले की बहुत बड़ी कीमत चुकानी होगी। दुनिया के अत्याधुनिक लोकतांत्रिक डिजिटल स्वरूप में भी चीन इकलौता ऐसा देश है, जिसके बारे में सही जानकारी किसी के पास नहीं होती। ऐसे में चीन को उसकी कोविड-19 हिमाकत के लिए उचित दंड शेष विश्व को अवश्य देना चाहिए, ताकि दूसरे विघ्नसंतोषी देशों के लिए भविष्य में मिसाल कायम हो सके और इंसानियत पर फिर से कोई इतना बड़ा संकट एक साथ न आए।
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