डॉ.अजय खेमरिया
क्लब हाउस बातचीत में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का पाकिस्तानी पत्रकार से यह कहना कि "कांग्रेस अनुच्छेद 370 पर पुनर्विचार कर सकती है" – मीडिया की सुर्ख़ियों और भाजपा की प्रतिक्रिया के नजरिये से देखा जाए तो महज एक न्यूज आइटम की खोखली महत्ता के साथ कल तक खत्म हो जाएगा। सवाल इस सुर्खी से बड़ा है और यह कि क्या कांग्रेस की इस वैचारिकी को देश इसी हल्की प्रतिक्रिया के साथ लेकर छोड़ दे? आखिर जिस राजनीतिक दल की नींव स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्लेटफार्म के रूप में रखी गई हो वह इस वैचारिक अधोगति को कैसे प्राप्त हो रहा है?
भारत की संसदीय व्यवस्था के लिए भी यह अहम पक्ष है क्योंकि कांग्रेस ने 50 साल तक इस राष्ट्र पर एकछत्र शासन चलाया है। इसलिए क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि कांग्रेस केवल सत्ता और चुनाव का प्लेटफार्म बनकर रह गई है? जिस अनुच्छेद 370 के नासूर को भारत की सम्प्रभु संसद ने बड़े बहुमत से हटाया है, उसे कांग्रेस क्यों सत्ता में आने पर बहाल कर देना चाहती है? सीधा जवाब केवल तुष्टीकरण की निकृष्ट चुनावी चाहत से अधिक कुछ नही हैं। यह भारत की संसदीय प्रणाली में अल्पसंख्यकवाद का एक आत्मघाती रोग है जिसे कांग्रेस केवल सत्ता के लिए पल्लवित और पोषित करती आई है।
भारतीय संविधआन की सम्प्रभुता को चुनौती
ताजा बयान न केवल भारतीय संविधान की सम्प्रभुता को चुनौती है बल्कि मुस्लिम वोटों के लिए कांग्रेस की सबसे ताकतवर नेता रही इंदिरा गांधी के मत का विरोध भी है जो इस अनुच्छेद को हटाने के स्वयं पक्ष में थीं। बड़ा सवाल यह भी है कि आखिर कांग्रेस अल्पसंख्यकवाद की घटिया राजनीति से देश के करोड़ों मुसलमानों पर पाकिस्तानी-लीगी और अलकायदा की पहचान क्यों अधिरोपित करना चाहती है? क्या चुनावी लोकतंत्र केवल अल्पसंख्यकवाद से जीवित रह सकता है? इस अल्पसंख्यकवाद को देश की जनता 2014 एवं 2019 के आम चुनावों में पहले ही खारिज कर चुकी है और नतीजों के नजरिये से इतिहास के कूड़ेदान में पहुँच चुकी है – सवा सौ साल पुरानी पार्टी इस तथ्य को समझना ही नहीं चाहती है।
कई कांग्रेस नेता दे चुके हैं पाक परस्त बयान
यही कारण है कि पाकिस्तान और लीगीपरस्त बयानों पर कभी भी मौजूदा पार्टी नेतृत्व ने प्रतिकार नहीं किया है। दिग्विजय सिंह अकेले ऐसे नेता नहीं है जो अल्पसंख्यकवाद को जिंदा रखने के चक्कर में भारत के विरुद्ध पाकिस्तान के पाले में जाकर खड़े हो जाते हैं। दस जनपथ के नवरत्नों में शुमार रहे पूर्व मंत्री व आईएएस मणिशंकर अय्यर मोदी को हटाने के लिए पाकिस्तान में जाकर मदद मांगते हैं। लोकसभा में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी पुलवामा हमले की जांच की मांग सदन में खड़े होकर करते हैं। मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष संजय निरुपम ने सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जीकल कहा था। प्रियंका गांधी के दुलारे नवजोत सिद्धू ने बालाकोट एयर स्ट्राइक का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि आतंकी मारे गए हैं या वहां पेड़ गिरे हैं। मुंबई आतंकी हमले पर दिग्विजय सिंह कह चुके हैं कि मुंबई हमले में आरएसएस का हाथ है। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद सोनिया गांधी रातभर रोई थीं। पूर्व विदेश मंत्री शशि थरूर ने भी लाहौर लिटरेचर फेस्टिवल में भारत विरोधी टिप्पणी की थी।
सुन्नीवाद के विरुद्ध सशक्त राजनीतिक माहौल
इन बयानों के आधार पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने पाकिस्तान परस्त नीति को आत्मसात कर लिया है। उसकी नजर केवल इस सबके माध्यम से अपने मुस्लिम खासकर सुन्नी वोटरों को एकीकृत करने की है। फिलहाल इस वोटबैंक के सामने दो खतरे हैं, पहला तो भारतीय जनमानस में इस सुन्नीवाद के विरुद्ध सशक्त राजनीतिक माहौल निर्मित हुआ है। इसकी बानगी 2014 एवं 2019 के लोकसभा के नतीजे हैं। यानी बहुसंख्यकवाद खड़ा हो चुका है। दूसरा यूपी, बिहार, बंगाल, असम, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक से लेकर अन्य राज्यों में इस सुन्नी वोटबैंक पर क्षेत्रीय दलों का कब्जा हो गया है। इसलिए कांग्रेस ने नीतिगत रूप से यह तय कर लिया है कि सत्ता के लिए उसे हर कीमत पर सुन्नी मुसलमानों को खुश करना है।
कांग्रेस का लीगीकरण
नीतिगत मामला इसलिए प्रतीत होता है क्योंकि पार्टी केरल में उसी मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है जो जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के अवशेष चिपकाकर चलती है। पार्टी के तब के अध्यक्ष राहुल गांधी को अमेठी के बाद 543 लोकसभा सीटों में से केवल वायनाड ही नजर आया जहां मुस्लिम लीग का प्रभाव है। असम में बदरुद्दीन अजमल के साथ पार्टी का गठबन्धन हो या बंगाल में पीरजादा के साथ चुनावी गलबहियां। मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व एक तरफ संविधान और गांधी की शपथ उठाती है, दूसरी तरफ लीगी वैचारिकी को अपनी चुनावी नीति में खुलेआम शामिल करती है।
ताजा मामला इसी नीतिगत लीगीयत का नमूना भर है जो इस पार्टी की वैचारिक कृपणता को भी प्रमाणित करता है। देश की बहुसंख्यक जनता को दशकों तक सेक्युलरिज्म के नाम पर जिस तरह से कमतर बनाकर सुन्नीवाद को खड़ा किया गया है, उसका सुगठित प्रतिकार संसदीय व्यवस्था का हिस्सा बनता जा रहा है। नेतृत्व के साथ-साथ कांग्रेस का वैचारिक संकुचन भी इस हद तक आ सकता है यह गांधी, नेहरू, शास्त्री और इंदिरा ने भी नहीं सोचा होगा। भाजपा पर साम्प्रदायिकता का आरोप मढ़ने वाली इस पार्टी को समझना होगा कि उसके चुनावी षड्यंत्र से देश के करोड़ों अल्पसंख्यक सुन्नी मुसलमानों के साथ वह कैसे पाकिस्तान, मुगल, और लीगीयत को चस्पा कर रही है। क्या कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में अनुच्छेद 370 की बहाली को अपने घोषणापत्र में शामिल करके मैदान में जाने की हिम्मत भी दिखाएगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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