आहार : मनुष्य जीवन का आधार

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हृदयनारायण दीक्षित

आहार मनुष्य जीवन का आधार है। गीता की स्थापना है कि दुःख और शोक भी आहार से ही आते हैं। परंतु आहार क्या है? स्वाद के अलावा गंध, ध्वनियां, दृश्य, स्पर्श भी आहार हैं। आहार की शुद्धि से हमारे जीवन की सत्व शुद्धि है। मनोनुकूल स्थान पर भोजन से मानसिक विकार नहीं होते। मनोनुकूल स्थान और मनोनुकूल भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक हैं।

आहार का अर्थ सामान्यतया भोजन होता है लेकिन इन्द्रिय द्वारों से हमारे भीतर जाने वाले सभी प्रवाह आहार हैं। आहार व्यापक धारणा है। मनुष्य में पांच इन्द्रियां हैं। आंख से देखे गए विषय हमारे भीतर जाते हैं और संवेदन जगाते हैं। इसलिए दृश्य भी हमारे आहार हैं। कान से सुने गए शब्द और सारी ध्वनियां भी आहार हैं। संगीत आनंदित करता है और गीत भी। अपशब्द गाली, सुभाषित या संगीत पदार्थ नहीं होते। तो भी वे हमारे भीतर रासायनिक परिवर्तन लाते हैं। ध्वनियां भी हमारा आहार हैं। हम नाक से सूंघते हैं। सुगंध या दुर्गन्ध भीतर जाती है। हम प्रसन्न/अप्रसन्न होते हैं, हमारा मन बदलता है। गंध भी आहार है। स्पर्श भी आहार है। प्रियजन का स्पर्श भी संवेदन जगाता है। हम प्रिय पशु कुत्ता, बिल्ली को सहलाते हैं, वह प्रसन्न होता है। हम प्रसन्न होते हैं। स्पर्श भी आहार है। अन्न भोजन भी आहार है।
छान्दोग्य उपनिषद् में आहार विषयक मंत्र है, “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि। सत्वशुद्धौ धु्रवा स्मृतिः। स्मृति लाभै सर्व ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः – आहार की शुद्धि से हमारे जीवन की सत्व शुद्धि है। “सत्व शुद्धि से स्मृति मिलती है।” सत्व व्यक्तित्व का रस है। सत्व शुद्धि का परिणाम स्मृति की प्राप्ति है। स्मृति अतीत का स्मरण है। अतीत की घटनाएं मस्तिष्क में होती हैं। लेकिन जन्म के पहले भी हमारा अस्तित्व है। हम मां के गर्भ में होते हैं, जीवन्त होते हैं। मस्तिष्क में उस काल की भी स्मृतियां होनी चाहिए।

वैज्ञानिक बताते हैं कि जीवन की हलचल गर्भधारण के कुछेक दिन बाद ही प्रारम्भ हो जाती है। ऐसी स्मृति भी हमारे मस्तिष्क में सुरक्षित होगी। गर्भ के पहले की स्मृति का स्मरण भी संभव है। ऋषि इसी स्मृति की प्राप्ति का उल्लेख करते हैं। शुद्ध आहार जीवन का आधार है। वार्तालाप में शुभ की चर्चा कम होती है। अशुभ की चर्चा में सबकी रुचि है। हम किसी की प्रशंसा करते हैं। तत्काल कुतर्क होंगे- ऐसा असंभव है, सब भ्रष्ट हैं। किसी को भ्रष्ट और चरित्रहीन बताओ, सब सुनने को तैयार हैं। हम दिनभर अशुद्ध सुनते हैं। शुद्ध स्वीकार्य नहीं। अशुद्ध प्रिय है। वार्तालाप का आहार भी अशुद्ध है।

प्रकृति की गतिविधि में तमाम कर्णप्रिय ध्वनियां हैं। वायु के झोंकों में नृत्य मगन वृक्षों की ध्वनि उत्तम श्रवण आहार है। कोयल की बोली भी प्रिय है। ऋग्वेद के ऋषियों ने मेढक ध्वनि में भी सामगान सुने थे। बच्चों की बोली से कर्णप्रिय और श्रवण आहार क्या होगा? उनका तुतलाना सम्मोहनकारी है। हम ऐसे जीवंत दृश्यों पर ध्यान नहीं देते। गालियां याद रखते हैं, सुभाषित चौपाइयां नहीं सुनते। प्राचीन ज्ञान सुना हुआ आहार है। यह भी प्रभाव डालता है और प्रकाश की सूक्ष्म तरंग भी। आधुनिक दृश्य आहार और भी भयावह है। आंखें शुद्ध सौन्दर्य की प्यासी हैं। सिनेमा दृश्य-श्रव्य माध्यम है। हिंसा, तोड़फोड़ खतरनाक दृश्य आहार हैं। आकाश में उगे मेघ देखने में हमारी रुचि नहीं। वर्षा की हरीतिमा या बसंत की मधुरिमा के दृश्य हमारा आहार नहीं बनते। स्कूल जाते छोटे बच्चों को हम ध्यान से नहीं देखते लेकिन सड़क पर जाता किन्नर प्रिय दृश्य आहार हैं। नदी का प्रवाह, किसी संकरी गली का दाएं-बाएं मुड़ना, इसी बीच में पेड़ों का लहराना हमारा दृश्य आहार नहीं बनता। हम पक्षियों को ध्यान से नहीं देखते। उनकी निर्दोष आंखों से आंख नहीं मिलाते। उनके बच्चों का शुद्ध सौन्दर्य नहीं देख पाते।

चरक संहिता में आहार को जीवों का प्राण कहा गया है – “वह अन्न-प्राण मन को शक्ति देता है, बल वर्ण और इन्द्रियों को प्रसन्नता देता है।” यहां सुख और दुःख की दिलचस्प परिभाषा है “आरोग्य अवस्था (बिना रोग) का नाम सुख है और रोग अवस्था (विकार) का नाम दुःख है।“ (वही 133) बताते हैं “भोजन से उदर पर दबाव न पड़े, हृदय की गति पर अवरोध न हो, इन्द्रियां (भी) तृप्त रहें।” (वही 562-63) चरक की स्थापना है “सत्व, रज और तम के प्रभाव में मन तीन तरह का दिखाई पड़ता है परन्तु वह एक है।” (वही 118) बताते हैं “जब मन और बुद्धि का समान योग रहता है, मनुष्य स्वस्थ रहता है, जब इनका अतियोग, अयोग और मिथ्या योग होता है, तब रोग पैदा होते हैं।” (वही 122) मनोनुकूल स्थान पर भोजन करने के अतिरिक्त लाभ हैं, “मन-अनुकूल स्थान पर भोजन से मानसिक विकार नहीं होते। मन के अनुकूल स्थान और मनोनुकूल भोजन स्वास्थ्यवर्द्धक हैं।” (वही 559) आधुनिक काल में फास्ट फूड की संस्कृति है। मांसाहार के नए तरीके आये हैं। शराब की खपत बढ़ी है। नए-नए रोग बढ़े हैं। तनाव बढ़े है। क्रोध बढ़ा है, क्रोधी बढ़े हैं। चरक संहिता में रोगों का वर्णन है। यहां शब्द, स्पर्श, रूप (दृश्य) रस और गंध के ‘अतियोग और अयोग’ रोग के कारण हैं। ध्वनि शब्द के बारे में कहते हैं, “उग्र शब्द सुनने, कम सुनने अथवा हीन शब्दों को सुनने से श्रवणेन्द्रिय जड़ हो जाती है।” गाली, अप्रिय शब्दों को मिथ्यायोग कहते हैं।” स्पर्श पर टिप्पणी है, “कीटाणु विषैली वायु आदि का स्पर्श” गलत है। रूप के विषय में कहते हैं, “बहुत दूर से देखने और अतिनिकट से देखने को भी गलत बताया गया है। गंध के बारे में कहते हैं “उग्र गंध अतियोग है।”

अन्न भौतिक पदार्थ है। एक मंत्र में कहते हैं “यह व्रत संकल्प है कि अन्न की निन्दा न करें- अन्नं न निन्द्यात्। अन्न ही प्राण है। प्राण ही अन्न है। यह शरीर भी अन्न है। अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित है। जो यह जान लेता है, वह महान हो जाता है – महान् भवति, महानकीत्र्या। (7वां अनुवाक) फिर बताते हैं “यह व्रत है कि अन्न का अपमान न करें- अन्नं न परिचक्षीत, तद् व्रतम्। जल अन्न है। जल में तेज है, तेज जल में प्रतिष्ठित है, अन्न में अन्न प्रतिष्ठित है। जो यह जानते हैं वे कीर्तिवान होते हैं।” (8वां अनुवाक्) फिर कहते हैं “यह व्रत है कि खूब अन्न पैदा करें- अन्नं बहुकुर्वीत। पृथ्वी अन्न है, आकाश अन्नाद है। आकाश में पृथ्वी है, पृथ्वी में आकाश है। जो यह बात जानते हैं, वे अन्नवान हैं और महान बनते हैं।” (9वां अनुवाक) अंतिम मंत्र बड़ा प्यारा है “यह व्रत है कि घर आए अतिथि की अवहेलना न करें। अतिथि से श्रद्धापूर्वक कहें- अन्न तैयार है। इस कार्य को ठीक से करने वाले के घर अन्न रहता है।”

ऐतरेय उपनिषद् में कहते हैं, “सृष्टि रचना के पूर्व ‘वह’ अकेला था, दूसरा कोई नहीं था। उसने सृजन की इच्छा की- स ईक्षत् लोकान्नु सृजा इति। उसने लोक रचे। लोकपाल रचे। फिर इच्छा की कि अब लोक और लोकपालों के लिए अन्न सृजन करना चाहिए। उसने अन्न बनाये। (खण्ड 2 से खण्ड 3 तक) आहार को सुस्वाद बनाने की परम्परा प्राचीन है। मनुष्य जो खाता है, उसी का श्रेष्ठतम अतिथि को खिलाता है। श्रेष्ठतम खाद्य को ही देवों को अर्पित करता है। ऋग्वेद में भुना हुआ अन्न करम्भ कहा गया है। धाना भी भूना जाता है। ऋषि इन्द्र को भुना हुआ धाना भेंट करते हैं। स्तुति है “दिवे-दिवे धानाः सिद्धि – रोज आओ, धाना पाओ। (3.53.3) अग्नि भी धाना पाकर धान्य (सम्पदा) देते हैं। (6.13.14) इन्द्र ‘करम्भ’ प्रेमी हैं लेकिन उन्हें धाना, करम्भ, अपूप (पुआ, पूड़ी) सोम एक साथ भी दिए जाते हैं। ऋषि ‘अपूप’ (पूड़ी, पुआ) खिलाने के लिए इन्द्र के साथ मरुद्गणों को भी न्यौता देते हैं। (3.52.7) आर्यों की दृष्टि में सर्वोत्तम खाद्य सामग्री यही है।

शरीर में प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोष हैं। इसी तरह प्राण, मन, आनंद का प्रभाव भी शरीर पर पड़ता है। आहार मनुष्य जीवन का आधार है। गीता की स्थापना है कि दुःख और शोक भी आहार से ही आते हैं। आधुनिक भारत में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी है लेकिन आहार की शुद्धि के आदर्श भुला दिए गये हैं। आहार की शुद्धता का दर्शन, रोगरहित, दीर्घायु की गारंटी है।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

 

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