मद्रास उच्च न्यायालय के 7 जून को आए ऐतिहासिक फैसले के तहत अब बनेगा विरासत आयोग, जर्जर मंदिरों की होगी साज-संभाल, मंदिरों की हड़पी 47,000 एकड़ भूमि पर मांगा राज्य सरकार से स्पष्टीकरण
मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में तमिलनाडु के मंदिरों, मूर्तियों और ऐतिहासिक स्मारकों की पहचान, मरम्मत, रखरखाव और पुनरुद्धार के लिए एक हैरिटेज कमीशन यानी विरासत आयोग के गठन का निर्देश दिया है। मंदिरों की सुरक्षा के संबंध में निर्देश देते हुए अदालत ने तमिलनाडु सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से सभी मंदिरों की मूर्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को भी कहा है। सभी मूर्तियों के छायाचित्रों सहित उन सभी का कम्प्यूटरीकृत डाटा भी मांगा गया है। अदालत ने इसके अलावा हर मंदिर में वीडियो निगरानी वाले 'स्ट्रांग रूम' बनाने को भी कहा है।
एक मामले में सुनवाई करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने गत 7 जून को राज्य सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इन कार्यों की निगरानी के लिए 17 सदस्यीय विरासत आयोग का गठन करने का आदेश दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो, आयोग का उद्देश्य पूरे राज्य में नष्ट हुए या किए गए हजारों मंदिरों को सुरक्षित करना है।
तमिलनाडु भाजपा के प्रवक्ता एडवोकेट डी. कुप्पुरामू ने इस संबंध में बताया है कि तमिलनाडु सरकार मंदिरों का प्रबंधन हिंदू धार्मिक निधि बोर्ड के माध्यम से करती है। अभिलेखों के अनुसार, राज्य में लगभग 34,000 मंदिर हैं। इनमें से लगभग 1,000 मंदिर ही वर्तमान में मौजूद हैं, जबकि अन्य नजरों से ओझल हो चुके हैं। निहित स्वार्थी तत्वों ने इन मंदिरों की 47,000 एकड़ से अधिक भूमि सत्ताधारी दलों की मदद से हड़प ली है। स्पष्ट है कि इन मंदिरों की आय भी दूसरे लोगों के हाथों में पहुंच गई है।
अभिलेखों के अनुसार, राज्य में लगभग 34,000 मंदिर हैं। इनमें से लगभग 1,000 मंदिर ही वर्तमान में मौजूद हैं, जबकि अन्य नजरों से ओझल हो चुके हैं। निहित स्वार्थी तत्वों ने इन मंदिरों की 47,000 एकड़ से अधिक भूमि सत्ताधारी दलों की मदद से हड़प ली है।
तमिलनाडु के मंदिरों की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्दशा का कारण 1967 से अब तक राज्य की सत्ता पर कई बार काबिज रहा, अनीश्वरवादी और घोर नास्तिक दल द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम है। चूंकि इस दल का मूल दर्शन ही अनीश्वरवाद है, ऐसे में उसके शासन से मंदिर किस सहानुभूति की उम्मीद करते!
एडवोकेट कुप्पुरामू ने यह भी कहा है कि राज्य में जो मंदिर निजी प्रबंधन के अधीन हैं, उचित और वैज्ञानिक प्रबंधन के कारण उनकी स्थिति अच्छी है। वर्तमान में नट्टुक्कूट्टा चेट्टियार और नादर महाजन संघम के नियंत्रण में बहुत सारे मंदिर हैं। कुशल प्रबंधन के कारण वे सभी बहुत अच्छी स्थिति में हैं। ये मंदिर समुदाय विशेष के होने के बावजूद हिंदू पूजा पद्धति के मूल सिद्धांतों और प्रणालियों का कड़ाई से पालन करते हैं।
दरअसल, तमिलनाडु के मंदिरों की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्दशा का कारण 1967 से अब तक राज्य की सत्ता पर कई बार काबिज रहा, अनीश्वरवादी और घोर नास्तिक दल द्रविड़ मुन्नेत्र कझगम (द्रमुक) है। चूंकि इस दल का मूल दर्शन ही अनीश्वरवाद है, ऐसे में उसके शासन से मंदिर किस सहानुभूति की उम्मीद करते!
द्रमुक की मातृसंस्था द्रविड़ कझगम के संस्थापक तथा द्रमुक के पहले मुख्यमंत्री रहे अन्नादुरै और उनके उत्तराधिकारी एम. करुणानिधि के गुरु पेरियार ई.वी.रामास्वामी नायकर हिंदू संस्कृति और हिंदू देवी—देवताओं के प्रति अपशब्द बोलने और हिन्दू धर्म का विरोध करने के कारण एक वर्ग विशेष में प्रसिद्ध हुए थे। जनवरी 1971 में पेरियार ने सालेम में एक हिंदू विरोधी जुलूस निकाला था। उन दिनों की मीडिया रपटों के अनुसार उस जुलूस में हजारों द्रविड़ कार्यकर्ताओं ने हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया था। इन कार्यकर्ताओं ने हिंदू देवताओं की निर्वस्त्र तस्वीरें बनाकर उनको लेकर प्रदर्शन किया था। इस जुलूस का आयोजन 'अंधविश्वास उन्मूलन सम्मेलन' (इसे हिंदू धर्म विरोधी सम्मेलन पढ़ें) के नाम पर किया गया था।
अपनी पार्टी को द्रविड़ पार्टी कहने वाले पेरियार का मानना था कि दक्षिण भारतीय द्रविड़ हैं और उनका आर्यों की संस्कृति अथवा सनातन धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। वह अतीत के अर्थहीन और झूठे साबित हो चुके आर्य-द्रविड़ टकराव के तथ्यहीन सिद्धांत को बार—बार उभारते थे।
मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को उपर्युक्त इतिहास के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। सही सोच वाले लोग इसे अतीत की गलतियों को सुधारने की दिशा में एक बड़े कदम के रूप में स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि मंदिरों में अब और लूट नहीं होनी चाहिए।चर्च और मस्जिद कभी भी 'सरकारी विभाग' जैसे नहीं रहे हैं, बल्कि उनका नियंत्रण उनके मत के नेताओं के नियंत्रण वाली संस्थाओं के पास रहता है। लेकिन इससे उलट, जहां भी मंदिर सरकारी नियंत्रण में होते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। केरल ऐसे ही चलन का एक और प्रत्यक्ष उदाहरण है। केरल में सरकार के नियंत्रण वाले देवासम बोर्ड द्वारा अपने प्रभार वाले मंदिरों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जाता है, उसे कौन भूल सकता है? ज्यादा दिन नहीं बीते, माकपा के नेतृत्व वाली केरल की वाममोर्चा सरकार एक राजनीतिक निर्णय के आधार पर प्रसिद्ध गुरुवायूर मंदिर की आय पर अधिकार जमाने जा रही थी। सरकार के इस कदम को केरल उच्च न्यायालय ने दिसंबर 2020 में 'अवैध' घोषित किया था। पूरी दुनिया ने तीन साल पहले देखा था कि वाममोर्चा शासन ने कैसे विश्व प्रसिद्ध सबरीमला मंदिर में प्राचीन परंपराओं से इतर, वर्जित आयुवर्ग वाली महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति देकर मंदिर के मानदंडों का उल्लंघन किया था। पूरे हिंदू समाज को लगभग चुनौती देते हुए, पुलिस की सुरक्षा में सेकुलर महिला एक्टिविस्टों को मंदिर में रात के समय गुपचुप प्रवेश कराया गया था।
संक्षेप में, मद्रास उच्च न्यायालय का यह फैसला मंदिरों की दुर्दशा को दूर करने के प्रयासों में उम्मीद की एक किरण जैसा है। यह सही दिशा में दिया गया आदेश है। इस फैसले ने दुनिया भर में बसे करोड़ों हिन्दुओं में एक उम्मीद जगाई है।
सरकारी कागजों से 'गायब' हो गई मंदिरों की 47,000 एकड़ जमीन
मद्रास उच्च न्यायालय ने 'लापता मंदिरों' के मामले में बड़ा कदम उठाया है। अदालत ने तमिलनाडु सरकार से कथित तौर पर गायब हो चुकी मंदिरों की 47,000 एकड़ जमीन को लेकर स्पष्टीकरण माँगा है। 1984-85 के नीति प्रपत्र के अनुसार यह जमीन 5.25 लाख एकड़ थी, जबकि 2019-20 के प्रपत्र में इसे केवल 4.78 लाख एकड़ बताया गया है। उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन.किरुबाकरण और टी.वी. थमिलसेल्वी ने सरकार के वकील रिचर्ड विल्सन को ‘हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट्स डिपार्टमेंट’ की तरफ से आगामी 5 जुलाई, 2021 तक इस मामले में एक जवाबी हलफनामा दायर करने को कहा है। अदालत ने स्पष्ट कहा है कि दो नीति प्रपत्रों का अध्ययन करने से ऐसा लगता है जैसे 47,000 एकड़ जमीन कहीं गायब हो गई है।
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