अदालतों में लटके करोड़ों वाद के बावजूद कुछ मामलों में न्यायपालिका की अति सक्रियता हैरान करती है। कई मौकों पर लोकतंत्र के स्तम्भ अपने-अपने अधिकार क्षेत्र का उल्लंघन करते दिखते हैं। फंगस की दवा के संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय की बुजुर्गों की बजाय युवाओं को प्राथमिकता देने की टिप्पणी ने एक बार फिर सवाल खड़े किए हैं
देश में आज एक बहस छिड़ी है। बहस कोरोना काल में उपजी नई घातक बीमारी फंगस की दवा के लिए प्राथमिकता में बुजुर्गों को युवाओं से पीछे रखने की न्यायालय की टिप्प्णी पर। 1 जून को दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी की फंगस की दवा में कमी के मामले की सुनवाई करते हुए। न्यायमूर्ति विपिन सांघी और न्यायमूर्ति जसमीत सिंह की बेंच ने बुजुर्गों की बजाय युवाओं को प्राथमिकता पर रखने की टिप्पणी में यह भी कहा कि 80 वर्षीय बुजुर्ग देश को आगे क्या बढ़ाएगा। बुजुर्गों ने तो अपनी जिंदगी जी ली है। आदर्श तो यह होना चाहिए कि सभी की जिंदगी बचे, लेकिन इस स्थिति में जब एक को चुनना हो तो ‘हमें युवाओं को बचाना होगा’। इसके साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि उच्च पद पर देश की सेवा कर रहे लोगों की सुरक्षा के महत्व को देखते हुए, केन्द्र उनके संदर्भ में नीति में एक अपवाद रख सकता है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि आंकड़े बताते हैं कि फंगस की दवा 66 प्रतिशत कम है, मरीजों को दवा उपलब्ध नहीं हो रही है। इसे देखते हुए कुछ जिंदगियां बच सकें, इसके लिए केन्द्र को प्राथमिकता नीति बनानी होगी। अदालत ने यह भी कहा कि हम भारतीय परिवारों में बुजुर्गों के प्रति भावनात्मक समर्थन को कम नहीं कर रहे हैं। न्यायमूर्तियों की ओर से इटली का उदाहरण दिया गया, जहां पिछले साल कोरोना से निपटते हुए अस्पतालों में बिस्तर कम पड़ जाने पर युवाओं को प्राथमिकता देने की बात की गई थी।
अदालत की इस टिप्पणी को लेकर बहस दो बिन्दुओं पर छिड़ी है। पहली, बुजुर्गों के प्रति भले अदालत पारंपरिक भावात्मक लगाव व आदर को मानती है, लेकिन तो भी उन्हें पीछे रखने की टिप्पणी ऐसे वर्ग में गले नहीं उतरी जहां वैक्सीन लगवाने में परिवार के युवाओं ने अपने से पहले अपने बुजुर्गों को महामारी से सुरक्षित करने को तरजीह दी। जहां बुजुर्गों के भोजन—स्वास्थ्य की चिंता अपने से पहले की जाती है। इस वर्ग का मानना है कि पश्चिमी सभ्यता में रंगा इटली अपने यहां जो भी फैसले ले, वे भारतीय परंपराओं के संदर्भ में भी सही ही कैसे हो सकते हैं!
सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संदीप महापात्रा की टिप्पणी गौर करने लायक है। दिल्ली उच्च न्यायालय के उक्त फैसले के संदर्भ में वे कहते हैं, ”भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय को तीसरा स्तम्भ माना जाता है। न्यायलय की भूमिका है समाज को सही दिशा दिखाना। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय का यह कहना कि आज की परिस्थिति में युवाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए क्योंकि बुजुर्ग अपना जीवन जी चुके हैं, यह तर्कसंगत नहीं लगता। अगर उच्च न्यायालय की बात मान भी लें तो सबसे बड़ा प्रश्न है कि यह कौन तय करेगा कि युवा कौन है और बुजुर्ग कौन!”
महापात्रा आगे कहते हैं, ”आज किसी व्यक्ति का 70 साल का होेने के बाद भी स्वस्थ आनंदित जीवन जीना एक आम बात है। कई बार तो 80 वर्ष तक लोग स्वस्थ जीवन जीते और कमाने की क्षमता रखते दिखते हैं। यह भी ध्यान रहना चाहिए, कि खुद न्यायालयों ने ही कहा है कि आज के समय में समाज को फिर से संयुक्त परिवार के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। समाज में बढ़ती अराजकता के संदर्भ में खासतौर पर अदालतों ने यह बात कही है। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय को अपनी टिप्पणी पर फिर से विचार करना चाहिए क्योंकि यह एक अच्छे समाज के विचार के विपरीत जाती दिखती है।”
बहस का दूसरा मुद्दा है न्यायिक सक्रियता। सवाल है कि जो कार्य लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के हैं उनमें अदालत का दखल कितना उचित है! वह भी तब जब देश की अदालतों में करोड़ों मामले लंबित हैं, तब हर तरह के विषयों को अदालत में क्यों ले जाया जा रहा है और अदालतें उन विषयों पर टिप्पणियां करती हैं जो उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर के हैं! इसी संदर्भ में 1 जून को ही सर्वोच्च न्यायालय की एक टिप्पणी ध्यान खींचती है। उपभोक्ता विवाद से जुड़े एक मामले पर टिप्पणी करते हुए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम. आर. शाह की पीठ ने एक तल्ख टिप्पणी की कि देश की सबसे बड़ी अदालत का वक्त ऐसे विषयों पर बहस में बर्बाद हो रहा है जो राष्ट्ीय महत्व के नहीं हैं। शीर्ष अदालत का कहना है कि उसके सामने बड़ी तादाद में ऐसे मामले लाए जा रहे हैं जिससे सबसे बड़ी अदालत का वक्त बर्बाद हो रहा है और वह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण मामलों को नहीं देख पा रही है। जिस वक्त में अदालत राष्ट्ीय महत्व के किसी विषय पर गौर कर सकती है, उसे वह वक्त बेवजह के मामलों में लगाना पड़ रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी एक गंभीर चलन की ओर इशारा करती है और फिर से विषय को जनहित याचिकाओं और उस पर ‘न्यायिक सक्रियता’ की ओर ले जाती है। दिल्ली उच्च न्यायालय में कानूनी सलाहकार के नाते काम कर रहे एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि, यह सही है कि अदालत का काम विवाद निपटाना होता है, पर अब तो ऐसा देखने में आ रहा है कि अदालतें ऐसे फैसले या टिपप्णियां दे रही हैं जो कार्यपालिका की जद में आते हैं और उसे ही देखने होते हैं।
जनहित याचिकाओं की भूमिका
वैेसे जनहित याचिकाओं का महत्व भी कम नहीं आंका जा सकता है। बात 1977 में आपातकाल हटने के बाद की है, जब जनहित याचिकाएं न्यायपालिका में बड़ी तादाद में दायर होनी शुरू हुई थीं। इन्हीं याचिकाओं की बदौलत 40 हजार विचाराधीन कैदी रिहा हुए थे; लेकिन इसके बाद प्रदूषण नियंत्रण और जंगलों की कटाई को रोकने जैसे किसी बड़ी समस्या से जुड़े कितने ही विषय आएदिन अदालत में लाए जाने लगे। कई मौकों पर तो लगा जैसे अदालतें कहीं न कहीं कार्यपालिका की भूमिका में आती जा रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता का कहना है कि जो काम सरकार के अफसरों का है अब वह भी न्यायपालिका में लंबी बहस और सुनवाई के बाद निपटाया जाना कहां तक उचित है? जिन अधिकारियों का यह काम है उनकी नियुक्ति ही ऐसे मामलों को देखने के लिए हुई है। अदालतों का काम सिर्फ यह देखना होना चाहिए कि किसी नीति या योजना को लागू करने में कहीं संविधान की अवहेलना तो नहीं हुई, पर उसे छोड़कर हर तरह के विषय अदालतों में लाना ठीक नहीं है।
अधिकार क्षेत्र के पार
उदाहरण के लिए, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णय या टिप्पणियां देखी जा सकती हैं। तब शीर्ष अदालत का एक फैसला था कि ‘नीट’ की परीक्षा ही एकमात्र परीक्षा होनी चाहिए मेडिकल पाठ्यक्रमों में भर्ती के लिए। इस पर केन्द्र और राज्यों में चर्चाओं के दौर चले, क्योंकि कुछ राज्यों के अपने सिलेबस सीबीएसई के सिलेबस से अलग थे। फिर भाषा की अड़चनें भी थीं। उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अदालतों को लक्ष्मणरेखा का ध्यान रखते हुए कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देनी चाहिए।
इसी तरह तब सबसे बड़ी अदालत ने सूखे से निपटने के लिए केन्द्र सरकार को नई नीति बनाने का आदेश दिया था। तब भी सवाल उठा था कि क्या शीर्ष अदालत को हक है कि सरकार को नीतियां बनाने का आदेश दे? तब भी केन्द्र के एक मंत्री ने टिप्पणी की थी कि राष्टीय और राज्य स्तर पर डिजास्टर रिसपोंस फंड होने के बाद अब अदालत आदेश दे रही है कि हम तीसरा फंड बनाएं! यह कहां तक संभव है? भारत में बजट बनाने पर भी क्या न्यायिक पुनर्समीक्षा होगी?
क्या शीर्ष अदालत को बैंक अपने ऋण कैसे उगाहें या माफ करें, इस पर फैसला लेने का हक है? यह सवाल तब खड़ा हुआ था जब सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बैड लोन्स पैनल’ बनाने की अनुशंसा की थी।
देश की सबसे बड़ी अदालत ने कांग्रेस की याचिका पर, अरुणाचल प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा को नोटिस भेज दिया। लेकिन फिर धारा 361 के तहत उसे वापस भी ले लिया, जो कहती है कि राज्यपाल और राष्ट्पति अपनी शक्तियों और पद के कर्तव्यों के निर्वाह के संदर्भ में किसी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होते। अदालत उनके आचरण की समीक्षा जरूर कर सकती है।
एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं जिनमें लोकतंत्र के चार स्तम्भ एक—दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल देते दिखते हैं।
नवम्बर 2020 में केवड़िया, गुजरात में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला की अध्यक्षता में देश की सभी विधानसभाओं के सभापतियों की दो दिन की बैठक हुई थी। इसे संबोधित करते हुए उप राष्ट्पति वेंकैया नायडु ने अपने भाषण में एक जगह कहा था कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया—अगर अपने अधिकार क्षेत्रों का ध्यान रखते हुए आचरण करें तो परिणाम बहुत अच्छे होते हैं। उनका इशारा साफ था कि कहीं न कहीं ये स्तम्भ जाने—अनजाने सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं।
अगर यह अतिक्रमण न्यायपालिका की तरफ से कार्यपालिका अथवा विधायिका के अधिकार क्षेत्रों में होता है तो यह सीधे—सीधे कहलाता है न्यायिक सक्रियता। यह मोटे तौर पर तब से शुरू हुआ जब कहा गया कि धारा 226 के तहत हर व्यक्ति ‘किसी वाद में खास दिलचस्पी’ होने पर उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है। कई मुद्दे थे जिन पर तब तक आम जन की अदालत तक पहुंच नहीं ही थी। इससे सुनिश्चित हुआ कि संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों के उल्लंघन पर कोई सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर सकता है।(एसपी गुप्ता बनाम भारत एआईआर 1982 एससी 149)। इस फैसले से संगठनों, एनजीओ आदि को आम लोगों की तरफ से अदालत का दरवाजा खटखटाने की छूट जैसी मिल गई। 1980 से पूर्व, सिर्फ पीड़ित पक्ष ही अदालत में याचिका दे सकता था। न्यायमूर्ति पीएन भगवती और न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने जनहित याचिका को न्यायालय में दाखिल करने की मंजूरी दी थी। और फिर जनहित याचिकाओं की बाढ़ लगनी शुरू हो गई। इनमें से कई के फैसलों का स्वागत किया गया तो कई पर सवाल खड़े हुए। लेकिन जिन अदालतों में पहले ही करोड़ों महत्वपूर्ण मामले लंबित हों वे कार्यपालिका, विधायिका के विषयों में उलझें और उन पर अपनी टिप्पणियां करें, इस पर भी एक बड़े वर्ग को एतराज रहा है। शायद न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति शाह की उपरोक्त टिप्पणी इसी तरफ संकेत करती है।
कोरोना काल और अदालत के फैसले
कोरोना महामारी के इस संकटकाल में भी हमने न्यायालय को कई ऐसे मामलों पर सुनवाई करते पाया है जो ‘न्यायिक सक्रियता’ की परिधि में आते हैं। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में वकालत कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी. दातार ने एक लेख में लिखा—”भारत में शायद ही ऐसा कोई विवाद या संकट हो जो जनहित याचिका का विषय नहीं बनता। कोविड—19 की दूसरी लहर में कितनी ही याचिकाएं देखने में आई हैं। आठ उच्च न्यायालयों ने दूरगामी असर वाले फैसले दिए हैं, जिनमें राज्य के अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में रेमडिसीवर इंजेक्शन होने तक उन्हें निजी अस्पतालों में न दिए जाने, ओद्यौगिक आक्सीजन को लोगों के लिए इस्तेमाल करने से लेकर निजी अस्पतालों और फार्मा कंपनियों पर कार्रवाई करने तक। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो उत्तर प्रदेश में 5 बड़े शहरों में लॉकडाउन लगवाने तक का आदेश दिया। ये सभी आदेश हालांकि सकारात्मक भाव से दिए गए थे, पर ये कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हैं।” वे आगे लिखते हैं—”यही समय है जब राष्ट्ीय समस्याओं को सुलझाने में अदालतों की भूमिका पर विचार होना चाहिए। नीतियां बनाने का काम विधायिका और कार्यपालिका पर रहने देना चाहिए। अदालत का काम सिर्फ यह देखना है कि नीति कहीं संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रही।” दातार लिखते हैं कि महामारी बहुकेन्द्रीय परिस्थिति का खास उदाहरण है जिसके कई आयाम हैं। ऐसी संकटपूर्ण स्थिति का समाधान कार्यपालिका या विधायिका द्वारा ही हो सकता है। संतोषपूर्ण समाधान तक पहुंचने के लिए न्यायपालिका के पास न डाटा है, न उसकी विशेषज्ञता। हर मामले में उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायलय का रुख करने के चलन पर लगाम लगनी चाहिए।
समस्याओं को सुलझाने में अदालतों की भूमिका पर विचार होना चाहिए। नीतियां बनाने का काम विधायिका और कार्यपालिका पर रहने देना चाहिए। अदालत का काम सिर्फ यह देखना है कि नीति कहीं संविधान का उल्लंघन तो नहीं कर रही। कोरोना महामारी बहुकेन्द्रीय परिस्थिति का खास उदाहरण है जिसके कई आयाम हैं। ऐसी संकटपूर्ण स्थिति का समाधान कार्यपालिका या विधायिका द्वारा ही हो सकता है। संतोषपूर्ण समाधान तक पहुंचने के लिए न्यायपालिका के पास न डाटा है, न उसकी विशेषज्ञता।
केवड़िया, गुजरात में देश की सभी विधानसभाओं के सभापतियों की तीन दिन की बैठक को संबोधित करते हुए उप राष्ट्पति वेंकैया नायडु ने कहा था कि लोकतंत्र के चार स्तम्भ—विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया—अगर अपने अधिकार क्षेत्रों का ध्यान रखते हुए आचरण करें तो परिणाम बहुत अच्छे होते हैं। उनका इशारा साफ था कि कहीं न कहीं ये स्तम्भ जाने—अनजाने सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं।
संविधान सर्वोपरि है, सर्वोच्च न्यायालय नहीं
—डॉ. सुभाष कश्यप, सुप्रसिद्ध संविधानविद्
दिल्ली उच्च न्यायालय का फंगस की दवा में युवाओं को प्राथमिकता देने का यह तर्क समझ से परे है कि बुजुर्ग तो अपनी जिंदगी जी चुके। अदालत यह तय करने वाली कौन होती है कि परिवार के लोग किसे पहले दवा दिलाना चाहते हैं! भारत में तो परिवार तय करते हैं कि प्राथमिकता किसे दी जाए। मुझे अदालत की यह टिप्पणी संविधान की उद्देश्यिका में सबसे आखिर में लिखी पंक्ति के विरुद्ध जाती दिखती है, जो कहती है कि व्यक्ति की गरिमा और देश की एकता—अखंडता सुनिश्चित होनी चाहिए।
यह भी देखने में आया है कि अदालतें या शीर्ष अदालत सरकार को नीति बनाने को कहती हैं। जबकि संविधान उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता। यह विधायिका का काम है, उसे ही करने दिया जाना चाहिए। न्यायपालिका के दो काम बताए हैं संविधान ने—एक, वह यह देखे कि किसी के मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा। इस संदर्भ में अदालत निर्देश दे सकती है। दूसरा, दो पक्षों के बीच विवाद सुलझाना। अदालत ही देख सकती है कि दोनों में से दोषी कौन है।
यह खेद की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक शक्तियां अपने हाथ में ले ली हैं। उसका शायद यहां तक मानना है कि संविधान में संशोधन भी वही तय करेगा। यानी वही देखेगा कि संशोधन से संविधान के मूल तत्व को कोई आघात तो नहीं पहुंच रहा। यह विरोधाभासी बात है। संविधान में स्पष्ट लिखा है कि संशाोधन ‘सिर्फ’ संसद के किसी भी सदन द्वारा विधेयक लाए जाने पर ही किया जा सकता है।
हमारा संविधान कहता है कि, संविधान सर्वोपरि है। उसके भी उपर कोई है तो वह है देश की जनता, जिसमें सार्वभौम शक्तियों का वास है। संविधान ने गठन किया है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का। उसी ने तीनों की शक्तियां परिभाषित की हैं। इनका अतिक्रमण करने वाला एक तरह से संविधान का उल्लंघन ही करता है। कई बार ऐसा लगता है जैसे संविधान की बजाय सर्वोच्च न्यायालय खुद को सबसे शीर्ष पर मानने लगा है, जबकि असल में तो यह सभी न्यायालयों में शीर्ष पर है, देश में नहीं। लेकिन दुर्भाग्य से सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णय ऐसे रहे जिनसे ऐसी झलक मिली है। उदाहरण के लिए, न्यायाधीशों के चयन के लिए न्यायिक आयोग के गठन की बात लिखी है 99वें संशोधन में। आयोग का गठन भी हुआ लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के मूल तत्व के विरुद्ध है, लिहाजा आयोग लागू नहीं होना चाहिए। सरकार की ओर से भी कोई जवाब नहीं आया है, इसलिए अभी स्थिति यथावत बनी हुई है।
साथ ही, आजकल इस विषय पर भी जोरदार बहस चल रही है कि न्यायालय कुछ मामलों में अधिक सक्रिय दिखते हैं, जबकि कई महत्वपूर्ण विषय सालों तक लटके रहते हैं। मेरा अनुमान है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस वक्त करीब 20 हजार मामले लंबित हैं, लेकिन उन्हें पीछे रखकर शीर्ष अदालत उन विषयों में तुरंत दिलचस्पी लेती दिखी है जो दरअसल कार्यपालिका या विधायिका के हैं। हां, लंबी सुनवाई के बाद कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर फैसले होते भी हैं तो वे 1800-2000 पन्नों के होते हैं, जिनमें दुनियाभर के संदर्भ दिए जाते हैं। मुझे नहीं लगता, कोई उन्हें पूरा पढ़ता भी होगा। अगर अदालतें लंबे लिखित फैसलों की बजाय 15—20 पन्नों में पूरा निर्णय जारी करें तो वह कहीं ज्यादा पठनीय और काम का होगा। इससे अदालतों का बहुत वक्त भी बचेगा।
=आलोक गोस्वामी
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