अमेरिकी गैर—सरकारी संगठन ‘पेटा’ पशुओं से दूध निकालने को क्रूरता मानता है, लेकिन बकरीद पर एक ही दिन में करोड़ों पशुओं की हत्या पर कुछ नहीं बोलता है। यानी यह संगठन मानता है कि पशुपालक तो ‘क्रूर’ हैं और पशुओं को तड़पा—तड़पा कर मारने वाले ‘पशु—प्रेमी’ हैं। अब इस संगठन ने अमूल इंडिया को नसीहत दी है कि वह दूध के उत्पादों को छोड़कर शाकाहारी दूध से उत्पाद तैयार करे। अमूल इंडिया ने इसका करारा जवाब दिया है
भारत में अनेक ऐसी विदेशी संस्थाएं हैं, जो कहने के लिए तो गैर—सरकारी संगठन (एनजीओ) हैं, पर अपने बयानों और हरकतों से इन संगठनों के कर्ताधर्ता अपना असली उद्देश्य खुद ही बता देते हैं। एक ऐसा ही संगठन है द पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स यानी ‘पेटा’। यह संठन भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बोलता ही रहता है, लेकिन इस बार इसने जो किया है, उससे लगता है कि पेटा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में मार्ग सुलभ करने का काम कर रहा है।
उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले ‘पेटा’ ने अमूल इंडिया के प्रबंध निदेशक आर.एस. सोढ़ी को एक पत्र लिखा है। इसमें उसने उनसे कहा है कि अमूल इंडिया पशुओं के दूध के बजाय पौधों से प्राप्त होने वाले दूध के उत्पाद बनाने की ओर कदम बढ़ाए। ऐसे दूध को ‘वीगन मिल्क’ यानी शाकाहारी दूध कहा जाता है, जो सोया, मूंगफली, बादाम आदि से बनता है। ‘पेटा’ का कहना है कि पशुओं का दूध निकालना उनके साथ क्रूरता है। इसलिए इस दूध का इस्तेमाल बंद होना चाहिए।
जैसे ही ‘पेटा’ का पत्र सार्वजनिक हुआ, सोशल मीडिया में उसकी जबरर्दस्त खिंचाई हुई। स्वयं आर. एस. सोढ़ी ने ट्वीटर पर इसका जबर्दस्त विरोध किया। उन्होंने एक ट्वीट में लिखा, “क्या वे (पेटा वाले) 10 करोड़ डेयरी किसानों, जिनमें लगभग 70 प्रतिशत भूमिहीन हैं, को आजीविका देंगे? उनके बच्चों की पढ़ाई का खर्च कौन देगा? कितने लोग रसायन और सिंथेटिक विटामिन से बनी खाने-पीने की वस्तुओं का खर्च उठा सकते हैं?”
”पेटा कथित पशु क्रूरता के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में बाजार तैयार करने का काम कर रहा है। इस समय देश में दूध का सालाना कारोबार लगभग 8,00,000 करोड़ रु. का है। इस अर्थव्यवस्था पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो, इसलिए ‘पेटा’ सोया, बादाम आदि से निर्मित वस्तुओं पर जोर दे रहा है, क्योंकि इन चीजों पर विदेशी कंपनियों की मनमानी चलती है।”
—आर.एस. सोढ़ी, प्रबंध निदेशक, अमूल इंडिया
”दूध का कोई विकल्प नहीं है। इसके बावजूद पेटा जैसे संगठन पशु क्रूरता के नाम पर दूध का विरोध कर रहे हैं। यह भारत की अर्थव्यवस्था के विरुद्ध एक बड़ा षड्यंत्र है।”
—गीता पटेल, अध्यक्ष, सरस डेयरी, उदयपुर
”ऐसा लगता है कि ‘पेटा’ भारतीय संस्कृति और परंपराओं का विरोध करने लगा है। कुछ साल पहले ‘पेटा’ ने तमिलनाडु की संस्कृति से जुड़े खेल जल्लीकट्टू का विरोध किया था। इसी तरह पिछले साल रक्षाबंधन के समय बेबुनियाद बातें कीं। इन प्रकरणों ने एक बात तो तय कर दी है कि ‘पेटा’ भारतीयता विरोधी है। यदि ऐसा नहीं होता तो ‘पेटा’ उन बूचड़खानों के विरोध में भी कोई चिट्ठी लिखता, जहां पशुओं को क्रूरतम तरीके से मारा जाता है।”
—अश्वनी महाजन, राष्ट्रीय संयोजक, स्वदेशी जागरण मंच
उल्लेखनीय है कि अमूल इंडिया एक सहकारी संस्था होने के कारण सीधे पशुपालकों से दूध खरीदती है। इसके बाद उससे अनेक उत्पाद तैयार कर बाजार में बेचती है। आर.एस. सोढ़ी कहते हैं, ”पेटा कथित पशु क्रूरता के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में बाजार तैयार करने का काम कर रहा है। इस समय देश में दूध का सालाना कारोबार लगभग 8,00,000 करोड़ रु. का है। इस अर्थव्यवस्था पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो, इसलिए ‘पेटा’ सोया, बादाम आदि से निर्मित वस्तुओं पर जोर दे रहा है, क्योंकि इन चीजों पर विदेशी कंपनियों की मनमानी चलती है।” उन्होंने यह भी कहा, ”पेटा वाले न तो किसी गांव में कभी गए हैं और न ही कभी किसी पशुपालक से मिले हैं। यदि वे ऐसा करते तो कभी पशु से दूध निकालने को क्रूरता नहीं कहते। यदि पशु का दूध न निकाला जाए तो उसका जीना मुश्किल हो जाएगा।” उन्होंने यह भी बताया, ”इस समय देश में लगभग 30 करोड़ गाय और भैंस हैं। मनुष्य और पशु एक—दूसरे के पूरक हैं। पशु दूध देता है और मनुष्य उसे खाना देता है। यदि पशु किसी के काम के न हों, तो लोग उन्हें खाना भी नहीं देंगे। इसके बाद क्या होगा! इसका अंदाजा ‘पेटा’ के संचालकों को नहीं है।”
सरस डेयरी, उदयपुर की अध्यक्ष गीता पटेल ने भी पेटा के पत्र का विरोध किया है। उन्होंने कहा, ”दूध का कोई विकल्प नहीं है। इसके बावजूद पेटा जैसे संगठन पशु क्रूरता के नाम पर दूध का विरोध कर रहे हैं। यह भारत की अर्थव्यवस्था के विरुद्ध एक बड़ा षड्यंत्र है।”
अनेक लोग मानते हैं कि ‘पेटा’ एक ऐसा दोमुंहा अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जो कहने को पशुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करता है, पर भारत में इसकी गतिविधियां हमेशा हिंदू विरोध तक सीमित रहती हैं। विशेषकर, त्योहारों पर इसका हिंदू विरोधी चेहरा खुलकर सामने आ जाता है। 2020 में भी रक्षाबंधन करीब आते ही इसने देश में जगह-जगह होर्डिंग लगाकर ‘चमड़ा मुक्त राखी’ का दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया था। पहले लोगों को यह समझ नहीं आया कि रक्षाबंधन में तो कहीं भी चमड़े का प्रयोग नहीं होता है, फिर ‘पेटा’ ने इस तरह के होर्डिंग क्यों लगवाए! यह सवाल जब अनेक मंचों से उठने लगा तो ‘पेटा’ ने गोलमोल शब्दों में सफाई दी। ‘पेटा इंडिया’ की समन्वयक राधिका सूर्यवंशी ने कहा, ”रक्षाबंधन बहनों की रक्षा का समय है। गायें हमारी बहनें हैं। हमारी तरह वे भी मांस, रक्त और हड्डियों से बनी हैं। वे भी जीना चाहती हैं। हमारे विचार प्रतिदिन गायों की रक्षा को लेकर हैं। हम आजीवन चमड़ामुक्त रहना चाहते हैं।” ‘पेटा’ के इस रवैये पर स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. अश्वनी महाजन कहते हैं, ”ऐसा लगता है कि ‘पेटा’ भारतीय संस्कृति और परंपराओं का विरोध करने लगा है। कुछ साल पहले ‘पेटा’ ने तमिलनाडु की संस्कृति से जुड़े खेल जल्लीकट्टू का विरोध किया था और इस कारण अदालत ने इस सांस्कृतिक खेल पर प्रतिबंध लगा दिया था। बाद में कई संगठनों ने इसका विरोध किया और सरकार तक भी अपनी बात पहुंचाई। इसके बाद नियमावली में कुछ परिवर्तन करके जल्लीकट्टू पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। इसी तरह गत वर्ष पेटा ने रक्षाबंधन के संबंध में भी बेबुनियाद बातें कीं। इन प्रकरणों ने एक बात तो तय कर दी कि ‘पेटा’ भारतीयता विरोधी है। यदि ऐसा नहीं होता तो ‘पेटा’ उन बूचड़खानों के विरोध में भी कोई चिट्ठी लिखता, जहां पशुओं को क्रूरतम तरीके से मारा जाता है।”
इस बार जब सोशल मीडिया में ‘पेटा’ की घोर आलोचना हुई तो उसके संचालकों ने कहा, ”पेटा ने तो अमूल डेयरी को केवल एक सलाह दी थी। पेटा डेयरी उत्पादों का विरोधी नहीं है।”
22 मार्च, 1980 को अमेरिका में स्थापित ‘पेटा’ का सालाना बजट लगभग 40 मिलियन डॉलर है। जानकारों का मानना है कि इनमें से ज्यादातर पैसे अफवाह उड़ाने में खर्च होते हैं, पशु के अधिकरों की रक्षा के लिए नाम मात्र का खर्च किया जाता है।
जो संगठन केवल दुष्प्रचार के लिए साल में करोेड़ों रु. खर्च करता हो, वह यदि अमूल इंडिया, जो लाखों लोगों को रोजगार दे रही है, को कुछ सलाह देती है, तो उस पर अंगुली उठना स्वाभाविक है।
—अरुण कुमार सिंह
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