जोधपुर के रायमलवाड़ा ने सामूहिक चेतना और साझी मेहनत से एक अलग ही कहानी लिख दी। कभी गोवंश के चरागाह रही गोचर भूमि पर झाड़-झंखाड़ ने कब्जा जमा लिया जिससे मवेशी बेआसरा हो गये। पानी भी 800 फुट तक नीचे चला गया। कुछ लोगों ने समस्या का सिरा पकड़ा और 20 बीघा से शुरू कर 2000 बीघा गोचर भूमि को आबाद कर दिया। अब गांव के हर घर में टांका है।
पुरखों की नसीहतें हमें याद हों या नहीं, लेकिन उनके बनाये कायदे आज भी संगत हैं। उनके तर्क हमें पसन्द हों या नहीं, लेकिन उसकी तह में जीवन की बुनियादी समझ है। गावों की बसावट रही हो या नगरों की, वहां इन्सानी बस्ती के साथ पेड़, तालाब, पशु, पक्षी और पानी सबके इलाकों का बंटवारा था। एक-दूसरे की दुनिया में दखलन्दाजी किए बगैर सबकी अपनी-अपनी खासियत का अहसास था। अपने को बाकी से अलग देखने की सोच तो हाल ही की कहानी है। लेकिन सभ्यता की कहानियां तो नदी किनारे ही पनपी हैं। पेड़ों ने पानी को जमीन में बांधा, पानी से पेड़ों को जमीन मे बोया, मिट्टी ने जड़ों को थामा, असंख्य जीवों ने मिट्टी को आबाद किया। जल-जंगल-जमीन के इसी गठजोड़ ने सबको पाला-पोसा। भरे-पूरे इस जीवन को बेरंग किया तो सिर्फ इन्सानी भूख ने, लालच ने, दोहन की व्यवस्था ने। किसी एक जीवन की अहमियत दूसरे से ज्यादा हो पाएगी, ये तो कुदरत के नियमों के ही खिलाफ है।
ये बात फलसफों में तो कही जाती रही लेकिन अमल में लाने वाले दिमागों ने खुद को दुनिया पर इतना हावी कर लिया कि उसे एकाकी दुनिया ही मुकम्मल नजर आने लगी। अब जीने की जंग ने फिर से साबित किया है कि जहां-जहां पुरानी रवायतों में तर्क और वैज्ञानिकता घुली-मिली है, वो कारगर हैं। उन्हें जिन्दा करने में ही सबका फायदा देखने वाले कई युवा अपने-अपने गांवों में इस मुहिम में जुटे हैं कि परम्पराएं भी बची रहें, जलवायु के बिगाड़ से भी बचाव रहे और बेहतरी के प्रयोग खूब होते रहें। कोरोना से पस्त देश के पश्चिमी राजस्थान के एक नहीं कई गांवों में ऐसा जोश है कि वो पुराने निशां मिटाकर नया जीवन रोपने में जुटे हैं। इनमें से एक है रायमलवाड़ा, जिसे ‘ड्रोन’ से खींची तस्वीर ने सोशल मीडिया पर बड़ी पहचान दिला दी। इस गांव की पहल ऐसी है जिससे पेड़, पशु और पानी का रिश्ता और मजबूत होता जाएगा और साझी समझ इसका सबसे बड़ा हासिल होगा।
चरागाह की फिक्र
राजस्थान जमीन के लिहाज से देश का सबसे बड़ा इलाका है। यहां पशुओं की आबादी भी देश में सबसे ज्यादा है यानी कुल 11 प्रतिशत। इंसानी आबादी देश की करीब 5 प्रतिशत मगर पानी सिर्फ सवा प्रतिशत। जुताई वाला इलाका भी ज्यादा बड़ा नहीं है, सिर्फ 13 प्रतिशत। बाकी गोचर की जमीन है करीब 5 प्रतिशत और जंगल केवल 8 प्रतिशत ही। सरकारी रिकॉर्ड ही कहते हैं कि गोचर यानी चरागाह की जमीन की सेहत प्रदेश की पशु केन्द्रित अर्थव्यवस्था के हालात बयां करती है। लेकिन राजस्थान के 5 प्रतिशत गोचर इलाके का हिसाब किसी के पास नहीं कि इनमें से कितने हरे-भरे हैं, कितने सूखे और कितने विदेशी बबूल की जकड़ में हैं। पूरे समुदाय के हिस्सेदारी वाली इन गोचर जमीनों की ही रखवाली ठीक से हो तो गोवंश को चारे-पानी के लिए भटकने की जरूरत भी ना हो। बाकी जिस मिट्टी की नमी पेड़, घास से आती है, वो पूरे गांव की जमीन को भी सेहतमन्द रखती है।
राजस्थान का पश्चिमी इलाका तो थार का है, इसलिए पानी और हरियाली, सबकी किल्लत हमेशा से वहां रही है। जीवन की दुश्वारियां बेहद हैं और सदियों से इन्हीं के साथ जीने के आदी हैं लोग। पानी बचाने के सबसे कारगर तरीके, रिवाज आपको यहीं मिलेंगे जो सूबे के मारवाड़ इलाके की संस्कृति में इतना रचा-बसा है कि अब पूरे राजस्थान की पहचान इसी से है। लेकिन अब इन इलाकों ने भी अपनी नई पहचान कायम करने की इसलिए ठानी है कि वो भीड़ का हिस्सा नहीं बने रहना चाहते। अपनी पढ़ाई-लिखाई को समझदारी से जोड़कर जमीनी काम करने की उनकी कसक उन्हें नवाचारों की ओर खींच रही है।
बेसहारा के लिए मन
पिछले सालों में एक समस्या देशभर के लिए शर्मिन्दगी की वजह बन गई, उसे इस इलाके ने दिल से महसूस किया। दान-धर्म वाले देश में जहां गायों को माता मानकर पूजा जाता है, वहां गायों का आसरा छूट गया। घर-समाज में पूजा जाने वाला पशु, बेसहारा सड़कों पर नजर आने लगा। समाज की उधड़ी हुई सोच का नजारा हमें हर दिन दिखाई देता है लेकिन उसकी वजह से हम अनजान बने रहते हैं और समाधान से भी। मतलबी और सिकुड़ते समाज का आईना भर हैं ये गोवंश जो पानी, चारा ना मिलने पर सड़कों और हाईवे तक पहुंच जाती हैं। दुर्घटना में खुद भी घायल और इंसान भी। इंसानों का फिर भी हिसाब है हमारे पास मगर कितने मवेशी, पशु, जंगल की आबादी हमने खो दी है, इसका कोई पुख्ता खाता नहीं है।
जब इस्तेमाल आ चुका गोवंश छोड़ दिया जाता था तो भी उसके चारे-पानी का इंतजाम गांव में रहता ही था। गांवों में चरागाह की जमीन इसीलिए होती थी कि घूमता-फिरता गोवंश किसी का मोहताज नहीं रहे। बाकी मवेशियों का भी गुजर-बसर आराम से होता था। ये चरागाह, तालाबों, बावड़ियों के आसपास ही होते थे ताकि पानी, पेड़, घास एक-दूसरे का नाता करीबी बना रहे। लेकिन पिछले सालों में सुख-सुविधाओं ने पैर इतने जमा लिये कि हम अपनी जल धरोहरों की संभाल भी ठीक से नही कर पाए और आधुनिकता की धुन में हमने आगे के लिए मिट्टी और पानी की सेहत खराब कर ली। ऐसे में इसका असर भोग रही पीढ़ी लगातार इस तलाश में रही कि कहीं से एक सिरा मिल जाए तो सारा बिगाड़ दुरुस्त कर लें। जोधपुर के रायमलवाड़ा गांव का एक सिरा पकड़ में आया जिसे थामने के लिए गोपाल जान्दु, बजरंग जोशी, भंवर सिंह, भोजाराम, प्रकाश गोदारा, खुशहाल, ओमप्रकाश मुंडण और लक्ष्मण बेनीवाल समेत सारे साथियों की टीम बनी और गांव के कायापलट का काम शुरू हुआ।
बगल के काम की लौ
यहां के गांवों ने आपस में जुड़े रहने के लिए सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया है। अपनी ही पंचायत समिति के बगल के गांव में हो रहे बड़े बदलावों ने रायमलवाड़ा को भी झकझोरा। बदलाव की अगुवाई वाली टीम से बातचीत कर मन बनाया कि समस्याएं तो सबकी एक ही हैं तो क्यों नहीं मिलकर ही काम करें। अच्छे कामों का दोहराव भी जरूरी है। पानी नीचे जा रहा है, पेड़ कट रहे हैं, मनरेगा के दिखावटी काम जारी हैं, गोवंश बेआसरा हैं, जख्मी हैं और गांव वहीं के वहीं ठहरे हुए हैं। आगे बढ़ने की सूरत सिर्फ यही एक सिरा है कि एक गांव में जलती लौ से दूसरा भी उजाले में नहा ले। साल 2019 में गांव की 2000 बीघा गोचर जमीन में से करीब 20 बीघा पर काम करने का मन बनाया। पहला कदम था गोशाला तैयार करना। बात की, तय किया और 15-20 जन मिलकर इस काम में जुट गए। करीब दो-तीन लाख की राशि जुटाकर इस 20 बीघा जमीन पर उगा झाड़-झंखाड़ हटाया। विलायती बबूल को जेसीबी लगाकर हटाया। तारबन्दी की और गायों के लिए सबसे अच्छा चारा मानी जाने वाली सेवण घास की बुवाई की। किस्मत से बारिश अच्छी बरसी तो छह महीने में ही तस्वीर खूबसूरत दिखने लगी। ढाई-तीन फुट की घास उग आने से बंजर पड़ी गोचर जमीन के बीचों-बीच बगीचा सा खिल गया। इसमें दो सौ पौधे और लगने से तस्वीर इतनी कमाल दिखाई दी कि सबका ध्यान जाने लगा। बड़ी फिक्र गायों की थी, उसका समाधान तो हो ही गया।
सोशल मीडिया पर बने ग्रुप से जुड़े सभी साथी एक-दूसरे का हौसला बढ़ाते रहे और अब बड़े लक्ष्य तय करने के लिए योजना बनाते रहे। गांव के लोगों ने काम का नतीजा देखकर तन-मन-धन तीनों से साथ दिया। इस बार भी पूरे गांव ने मिलकर तीन लाख की पूंजी इकट्ठा की और अब 20 से बढ़कर 300 बीघा गोचर की खड़ाई करने, बबूल उखाड़कर सेवण घास बोने की ठानकर निकले तो अद्भुद नजारा था। तीन घंटे 300 बीघा बंजर जमीन की खड़ाई करते 50 ट्रैक्टर के वीडियो ने रातों-रात इस गांव को सबकी नजर में ला दिया। अन्जाम ये हुआ कि इस नेक काम के लिए मददगारों के इतने हाथ उठे कि दस लाख रुपये जमा हो गए। इस काम की यही पहचान बड़ी हो गई कि जेसीबी, ट्रैक्टर से स्वैच्छिक सेवा के इतने बड़े और सालों से दरकिनार हुए इस काम को एक गांव अपने हौसले से अन्जाम दे रहा है।
मनरेगा का मान
जमापूंजी अच्छी होते ही लक्ष्य बढ़ता गया। अब 700 बीघा जमीन और 250 ट्रैक्टर और धीरे-धीरे आधी गोचर जमीन यानी 1000 बीघा पर सेवण घास लग गई। इस गांव का ये काम इसलिए भी अनोखा था कि बाकी गांवों में जहां गोचर की जमीन पर अवैध कब्जे हैं, झगड़े हैं, वहीं इस गांव में सब शामिल होकर गोचर बचा रहे हैं, उन्हें आबाद कर रहे हैं। ये काम देखकर नेताओं के पांव यहां पड़ने लगे और इसका फायदा ये भी हुआ कि सरपंच मांगीलाल जान्दू की भागदौड़ की वजह से पहली बार जिला परिषद से मनरेगा के जरिए गोचर विकास के लिए 36 लाख रुपये जारी हुए। सरपंच ने आगे बढ़कर काम किया और काम की शुरुआत में भी अपनी जेब से 51 हजार की मदद की। अब तक मनरेगा के लिए लोगों का मन बन चुका था कि इसमें होने वाले काम से गांव का कोई भला नहीं होता, ना ही कोई सार्थक काम होता है। लेकिन जब रायमलवाड़ा गांव ने गोचर की ये तस्वीर पेश की तो मनरेगा योजना का भी मान बढ़ा।
कोरोना के पहले हमले से बचे रहे गांव को ये भरोसा हुआ कि कोरोना, टिड्डी के हमले से गांव इसीलिए बचा कि उन्होंने गोचर के जरिए धर्म-कर्म किया। ये सोच उपजते ही गांव पूरी तरह गोचर के रखरखाव के लिए पूरे मन से साथ रहा। साल 2020 में गांव की पूरी की पूरी गोचर जमीन यानी 2000 बीघा पर जब जेसीबी और ट्रैक्टर का जमावड़ा हुआ तो इस काम में समस्त महाजन संस्था ने जेसीबी मुहैया करवाकर करीब 50 हजार की राशि के बराबर मदद की, और बगल के गांव के सरपंच रहे प्रकाश ने सेवण घास के बीज के साथ ही जो सोच सौंपी, उसकी तो कीमत तय ही नहीं की जा सकती। दो महीने तक गोचर की खड़ाई का काम जारी रहा। एक महीना की बढ़त इसमें सिर्फ इस वजह से कि चौमासे में पेड़ नहीं काटे जाने की मान्यता का निर्वाह भी करना था। बबूल कटा तो सेवण घास की बुआई हुई जो अच्छी बारिश की वजह से एक-डेढ़ फुट की हो गई। गांव के करीब 200 की आबादी वाले गोवंश को अब सब गांव में ही मुहैया है। झुंड के झुंड यहां घूमते हैं, खाते हैं और अपनी मस्ती में रहते हैं। बकरियों के रेवड़ भी घूमते हैं जिनकी वजह से घास जड़ पकड़ने से पहले ही खत्म हो जाती है। रेवड़ का यहां रुकना गोचर के पनपने में अड़चन जरूर है लेकिन फिलहाल इसका कोई इलाज नहीं। इस मुहिम के अहम किरदार और पेशे से शिक्षक गोपाल का कहना है सेवण घास के बीज की किल्लत से भी अभी ये गांव जूझ रहा है क्योंकि आसपास के तीन दर्जन गांवो में गोचर बचाने का काम शुरू हो चुका है। एक बीघा में डेढ़-दो किलो के हिसाब से अभी जरूरत बड़ी है।
असर और आस्था
पानी को लेकर भी खासी फिक्र है गांव में। हजार परिवारों के इस गांव में पन्द्र्रह साल पहले जहां 400 फुट पर पानी था अब 800 फुट तक जा पहुंचा है। बोरवेल खेती का सहारा हैं। पीने का पानी इन्दिरा गांधी नहर से आ रहा है। हर घर में टांका है जिसमें बारिश का जल सहेजा रहता है। गांव में दो तालाब हैं जो चार महीने ही भरे रहते हैं। फिलहाल सारा ध्यान गोचर पर है और सबसे बड़ा हासिल कहें तो ये साझा जिम्मेदारी का भाव। एकजुट होकर पूरे गांव की बेहतरी के लिए जुट जाने की कहानियां आज कितनी बची हैं हमारे पास। आज बड़ा बदलाव ये है कि अब तक नजरअन्दाज हुआ काम धर्म के निर्वाह की तरह देखा जाने लगा है।
ये समझ भी पैरना जरूरी है कि बदलाव की अगुवाई वाले साथी कड़ी से कड़ी जोड़ने में हमेशा कामयाब रहते हैं। पांच साल पहले नशे पर पाबन्दी लगाने वाले इस गांव में अब वार-त्योहार अफीम की मनुहार नहीं होती। कोरोना की दूसरी लहर में गांव में 16 मौतें हुईं तो ये समझ भी पनपी कि सिर्फ एक सिरे को नहीं, जीवन के सारे सिरों को थामना होता है। शादी समारोहों में बेफिक्र होकर शामिल होने के कारण बीमारी की चपेट में तो आए सब लेकिन फिर ये भी तय किया कि मृत्युभोज नहीं होगा। गांव का नाम अच्छे कामों से रोशन हो, इसका तरीका यही है कि मिलकर काम करते हुए बुराइयों को भी जड़ सहित उखाड़ दें। दो साल के सफर में इस गांव ने इतना तो समझ ही लिया है कि पहचान और मान के लिए भरपूर मन से किए सलीके के काम ही काफी हैं।
डॉ. क्षिप्रा माथुर
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