कोविड-19 के जैविक हथियार होने की चर्चाओं के बीच हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि युद्धक सामग्री तैयार करने में हम किस भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुनिया में मानव विकास के आविष्कारों के समांतर मारक हथियारों की तकनीक विकसित करने की होड़ मची है। अगला विश्व युद्ध होता है तो परंपरागत हथियार कहीं पीछे छूट जाएंगे। कौन से नए हथियार होंगे अगली लड़ाई में, यह देखना समीचीन है
प्रकृति ने तो इंसान को सबसे शक्तिशाली जीव बनाया लेकिन न जाने यह उसकी कौन सी ग्रंथि है कि वह हमेशा खुद को और ताकतवर बनाने की जद्दोजहद में लगा रहता है। शायद इसीलिए मानव विकास के आविष्कारों के समानांतर मारक हथियारों की तकनीक विकसित करने की होड़ भी चलती रही। आज जिस कंप्यूटर-इंटरनेट के बिना जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती, जिस जीपीएस के बिना हमारे कदम ठिठक जाते हैं, जिस एसयूवी के पीछे पूरी दुनिया दीवानी है, उस कुल का सबसे पुराना संस्करण जीप, ज्यादातर घरों की रसोई में जगह बना चुका माइक्रोवेव, युवाओं का मनपसंद कार्गो पैंट, ऐसी न जाने कितनी चीजें हैं जो मूलत: सैन्य उद्देश्यों के लिए विकसित की गईं।
सस्ती जान, महंगे औजार
आज चीनी वायरस के कारण जब लाखों-लाख लोगों की जान जा रही है, तो हमारा ध्यान सीधे तौर पर इस ओर जा रहा है कि युद्धक सामग्री तैयार करने में हम किस भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं और इसकी तस्वीर किस हद तक भयावह होने वाली है। सतह से हवा में मार करने वाली एक स्ट्रिंगर मिसाइल की कीमत लगभग 40 हजार अमेरिकी डॉलर है तो एक इंटर-कंटिनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल की कीमत लगभग 7 करोड़ अमेरिकी डॉलर। किसी भी युद्ध में कितनी मिसाइलें दागी जाती हैं और उस पर कितना पैसा खर्च होता है, उसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं। जाहिर है, इंसान की कोशिश उन तकनीकों को पाने की रही है जो सस्ती से सस्ती और घातक से घातक हों!
जैविक हथियार
जैविक हथियार एक कम लागत वाला विकल्प है जिसमें ऐसी तबाही आ सकती है जिससे कि लोग कीड़े-मकोड़े की तरह मर जाएं। वैसे तो जैविक हथियारों का विकास करना, इन्हें रखना और इनका इस्तेमाल करना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंधित है लेकिन दुनिया में इसपर चोरी-छिपे काम चल रहा है। दुनियाभर में ऐसी प्रयोगशालाएं हैं जिन्हें बायोसेफ्टी-4 का प्रमाणन दिया गया है जहां तरह-तरह के वायरस पर प्रयोग होता है और अनुसंधान और विकास के तथाकथित पवित्र उद्देश्यों वाले यही केंद्र अंतत: व्यापक जनसंहार का कारण बनते हैं। चीनी वायरस इसी का परिणाम दिखता है। अलग-अलग जैविक एजेंट के असर करने की आवृत्ति अलग होती है। जैसे ऐंथ्रैक्स का 12 घंटे से लेकर 21 दिन, वायरल इन्फेक्शन का 3-24 और फंगल इन्फेक्शन का 5-21 दिनों तक असर रह सकता है। जल स्रोत को दूषित करके भी ह्यदुश्मनह्ण पर इसका प्रयोग हो सकता है। आधुनिक युग में कथित तौर पर जैविक हथियार का पहली बार इस्तेमाल प्रथम विश्व युद्ध में ऐंथ्रैक्स और ग्लैंडर्स के इस्तेमाल से हुआ; जापान-चीन युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध में शाही जापानी सेना ने चीनियों पर जैविक हथियार का प्रयोग किया; 2001 में अमेरिका में ऐंथ्रैक्स हमले के कई मामले आए। इस तरह के अनुभवों से लैस हम जैविक हथियारों को और घातक बाने में जुटे हैं।
रासायनिक हथियार
जैविक हथियारों की ही तरह रासायनिक हथियारों के बनाने, रखने और इस्तेमाल करने पर रोक है, लेकिन इसका भी इस्तेमाल होता रहा है। वैज्ञानिक मानते हैं कि पहली बार क्लोरिन का इस्तेमाल ऐसे ही हथियार के तौर पर किया गया। अमोनिया, डाईबोरेन, फॉर्मलडिहाइड, हाइड्रोजन साइनाइड, नाइट्रिक एसिड, सल्फर डाईआॅक्साइड, हाइड्रोजन फ्लोराइड, फास्फोरस ट्राईक्लोराइड ऐसे कई रसायन हैं जिन्हें हथियार के तौर पर विकसित किया जा सकता है और अनुमान है कि इस तरह के कार्यक्रम चोरी-छिपे चल रहे हैं।
संचार और साइबर हमला
संचार के माध्यम से दुनिया जिस तरह आपस में जुड़ती जा रही है, उसमें भविष्य में बड़े स्तर पर इस तरह के हमले देखने को मिलेंगे। किसी भी देश की युद्धक क्षमता संचार प्रणाली पर टिकी है और दुनियाभर में इस तरह के तमाम साइबर हमले रोज ही होते हैं। हाल ही में अमेरिका में तेल पाइप लाइन से जुड़े नेटवर्क पर हमला हुआ जिससे वहां पेट्रोल का संकट हो गया। ईरान के परमाणु संयंत्र पर भी साइबर हमला हाल का अनुभव है। भारत में भी आए दिन इस तरह के हमले होते रहते हैं। कभी परमाणु संयंत्र को ठप करने की कोशिश होती है तो कभी किसी मंत्रालय में सेंध लगाने की। यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें शह-मात का खेल चलता ही रहेगा। मतलब, खतरा जितना बढ़ेगा, साइबर सुरक्षा का व्यवसाय उतना ही फलेगा-फूलेगा। 2018 में वैश्विक साइबर सुरक्षा बाजार 152.7 अरब अमेरिकी डॉलर का था जिसके 2023 तक बढ़कर 248.6 अरब डॉलर का हो जाने का अनुमान है।
लेजर
पिछले दो दशकों में खास तौर पर लेजर तकनीक का सैन्य इस्तेमाल काफी बढ़ गया है और यह आगे भी आक्रमण का एक मुख्य साधन बना रहने वाला है। इनका इस्तेमाल दो तरीके से हो रहा है। एक तो परंपरागत हथियार की सटीकता को बढ़ाने और दूसरा लेजर को ही हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने में। किसी नई तकनीक का इस्तेमाल जनसंहार में कैसे हो सकता है, इसका एक और प्रमाण है लेजर तकनीक। 1960 में यह तकनीक खोजी गई और 1963 तक इसके सैन्य इस्तेमाल की तैयारी हो गई। आने वाले समय में आक्रमण और प्रतिरक्षा, दोनों क्षेत्रों में लेजर तकनीक का इस्तेमाल बढ़ने वाला है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसपर कई देश काम कर रहे हैं और माना जाता है कि यह भी अरबों डॉलर का उद्योग है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
एक और क्षेत्र है जिसमें लगातार काम हो रहा है और वह है रोबोटिक्स का। युद्ध में खुद दूर सुरक्षित रहकर युद्ध को निर्णायक मोड़ देने के क्रम में रोबोटिक्स का भी इस्तेमाल हो रहा है और इसपर लगातार काम चल रहा है। इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित तकनीकों को भविष्य के युद्ध का प्रमुख हथियार माना जा रहा है। सैन्य क्षेत्र में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बाजार अभी तो अपने शुरूआती चरण में है, फिर भी माना जा रहा है कि 2025 तक यह बाजार 11.6 अरब अमेरिकी डॉलर का होगा। लेकिन दुनिया जिस रफ्तार से जिस ओर बढ़ रही है, उसे देखते हुए यही माना जा सकता है कि यह बाजार इससे कहीं बड़ा होने जा रहा है। कहां हमला करने से कितना अधिक नुकसान होगा, इसके तरीके खोजते-खोजते हम संचार उपग्रहों तक को मार गिराने की तकनीक का इजाद कर चुके हैं। लेकिन खुद को जनसंहार की ताकत से लैस करने की प्रतिस्पर्धा में हम जिस राह पर बढ़ रहे हैं, उसमें तनिक ठहरकर सोचने का वक्त शायद तब तक न मिले जब तक पूरी मानव प्रजाति के अस्तित्त्व पर ही खतरा पैदा न हो जाए।
-आराधना शरण
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