पश्चिम बंगाल में हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही। तृणमूल के गुंडों द्वारा भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएं की जा रही हैं। उनके घर, दुकान, प्रतिष्ठान में लूटपाट कर आग लगाई जा रही है। यहां तक कि महिलाओं पर भी अत्याचार करने की खबरें हैं। इस सबसे डरकर कई इलाकों के हिन्दू अपने घरों को छोड़कर भागने को मजबूर हुए हैं
रैली में जाने ना जाने से बंगाल की राजनीति को क्या फर्क पड़ा, इसका अभी विश्लेषण होना शेष है। लेकिन इस वक्त जिन लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर विश्वास करके भाजपा को चुना है, उन्हें इन दोनों की सबसे अधिक जरूरत है। उन दुकानों और व्यावसायियों को चुन—चुन कर निशाना बनाया जा रहा है, जिन्होंने भाजपा का झंडा तक चुनाव प्रचार के दौरान अपनी दुकान पर लगाया था। क्या इसी लोकतंत्र की दुहाई तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी देती रही हैं। भाजपा के दफ्तरों की पहचान कर, वहां आग लगाई जा रही है, तोड़—फोड़ की जा रही है।
नवनिर्चाचित भाजपा विधायक चंदना बाउरी ने केन्द्र सरकार से मदद की गुहार लगाई हैं— बंगाल में 2 मई के बाद से दर्जनों कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी हैं। नरेन्द्र मोदी जी, अमित शाह जी कृपया हमें सुरक्षा दीजिए।
दो-चार दिन देश के गृह मंत्री कोलकाता में बिताएं, यह नामुमकिन काम नहीं है, लेकिन इतने भर से बंगाल में हत्या किए जाने के संभावित खतरे से जो हजारों भाजपाई डरे हुए हैं, उन्हें विश्वास मिलेगा। अपराधियों का हौसला पस्त होगा।
चुनाव आयोग ने जीत का उत्सव मनाने पर जब पाबंदी लगा दी लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता के गुंडे सड़क पर भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को लहुलुहान कर रहे। वे भाजपा कार्यकर्ताओं के घर जला रहे है।
बोलपुर, इलमबाजार में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ट्रस्ट के निदेशक और बोलपुर विधानसभा से भाजपा प्रत्याशी अनिर्वाण गांगुली पर जिस तरह से जानलेवा हमला हुआ, ऐसी गुंडागर्दी की राजनीति तृणमूल को सीपीएम से विरासत में मिली है। ममता और उससे पहले वामपंथी दलों ने पश्चिम बंगाल में लाशों के ऊपर बैठकर ही राजनीति की है। नंदीग्राम और सिंगुर में ममता जिस राजनीति के विरोध में खड़ी थी, वह लाशों के ऊपर कम्युनिस्ट पार्टी की चल रही राजनीति थी। 2011 में बंगाल के लोगों को पता नहीं था कि वे सीपीएम को हटाकर तृणमूल के रूप में भी एक दूसरे सीपीएम को चुनकर सत्ता में ला रहे हैं। यदि पूरे देश में इस समय कहीं जंगलराज है तो उस प्रदेश का नाम पश्चिम बंगाल लिखा जा सकता है।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि ममता आज पश्चिम बंगाल में जीत कर आई हैं तो उसके पीछे बंगाली और बांग्लादेशी मुसलमानों का बहुत बड़ा योगदान है और अनिर्वाण पर बोलपुर में हुए हमले के पीछे भी यही लोग बताए जा रहे हैं। अनिर्वाण के शब्दों में वे जिहादी गुंडे थे। अनिर्वाण गांगुली लिखते हैं,”ये जिहादी गुंडे सोनार बांग्ला के मेरे संकल्प को तोड़ नहीं सकते हैं।”
पश्चिम बंगाल के अंदर बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ कोई छिपी हुई बात नहीं है। जो सीमा पार से भारत आए, उनमें अधिकांश मेरा-तेरा रिश्ता क्या, के हवाले से आए। जिसकी अगली पंक्ति है— या इलाह लिल्लाह। नागरिकता संशोधन कानून के आने के बाद बंगाल, असम से लेकर उन तमाम राज्यों में रोंहिंग्या से लेकर बांग्लादेशी मुसलमानों के अंदर खौफ है कि भारतीय जनता पार्टी की राज्य में ताकत बढ़ेगी तो भागना पड़ेगा।
पश्चिम बंगाल के चुनाव में मुसलमान फैक्टर की बात की जाए तो कुल मतदाताओं में 30 प्रतिशत के आस—पास मतदाता मुसलमान हैं, जो राज्य की करीब 100 सीटों पर निर्णायक मतदान करते हैं। जानकारों के अनुसार मुसलमान प्रभाव वाली 100 की 100 सीटों पर तृणमूल ने जीत दर्ज की है। मुसलमानों के बीच राजनीति करने का दावा करने वाली ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ), इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ), इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन जैसी पार्टियां भी इन सीटों पर कोई खास प्रभाव नहीं छोड़ पाई।
पूरे भारत में ही मुसलमानों ने अपनी हालत भेड़ जैसी बना ली है। उनके पास ‘मोदी से नफरत’ पर एकमत होने के अलावा अपना कोई मत नहीं है। उनका मत कहां जाएगा, इसके लिए फैसले कोई और लेता है ? यह जरूरी नहीं कि हर बार कोई मौलवी या मुफ्ती हो। कई बार यह फैसला अपराधी भी करते हैं। अपराधी मुसलमान हो तो मुस्लिम समाज में सिर्फ नाम सुनकर ही उसके हजारों फॉलोअर हो जाते है। 1990—95 की बात होगी, बिहार के पश्चिम चंपारण की एक प्रभावशाली मस्जिद से सुबह चार बजे लाउडस्पीकर पर कहा गया कि शाहबुद्दीन की दरख्वास्त पर इस बार हम मुसलमानों का वोट राष्ट्रीय जनता दल को जाएगा। उसके बाद यह बात जंगल में आग की तरह समुदाय विशेष में फैली। सारा मत एक तरफ से राजद को गया।
यह मोहम्मद शाहबुद्दीन वही है, जिसकी मृत्यु पर सेकुलर निष्पक्ष खेमे में शोक की लहर दौड़ गई थी। बावजूद इसके शाहबुद्दीन बिहार का एक दुर्दांत अपराधी था। जिसने दो बच्चों को तेजाब से नहलाकर मार दिया। इसी अपराध की सजा वह जेल में भुगत रहा था।
कई प्रभावशाली लोगों ने मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए उसकी तारीफ में स्टोरी लिखीं और लिखवाई गईं। उसे मसीहा तक लिख दिया। शेखर गुप्ता ने द प्रिंट में एक स्टोरी लिखवाई कि कैसे उसकी वजह से सिवान में महिलाएं सुरक्षित थीं।
यदि दिल्ली में मुसलमानों ने गिन—गिन कर एक—एक वोट आम आदमी पार्टी को डाला और टक्कर में कई महत्वपूर्ण इस्लामिक पार्टियों के होते हुए यदि पश्चिम बंगाल में सारा मत तृणमूल को गया तो फिर यह मानना चाहिए कि मुसलमानों को नियंत्रित करने वाला कोई एक संगठन उनके बीच काम करता है। वह संगठन जमात के नाम पर चल रहा हो या जकात के नाम पर। लेकिन वह मुसलमानों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मोदी से नफरत करने के नाम पर नियंत्रित जरूर कर रहा है।
यह नफरत सिर्फ मोदी तक सीमित नहीं है, यह नफरत हर उस आदमी से करना सिखाता है जो इस्लाम में सुधार की बात करता हो। जो कहता हो कि जब कुरआन कहती है कि शिक्षा को जीवन में मुसलमानों को सबसे अधिक महत्व देना चाहिए फिर इस्लाम को मानने वाले इस देश में सबसे अधिक अशिक्षित कैसे रह गए ? मुसलमानों को मदरसों के चंगुल से निकाल कर अच्छी शिक्षा दी जाए तो फिर कोई उन्हें नियंत्रित नहीं कर पाएगा। वे मोहम्मद शाहबुद्दीन की मौत पर सिर्फ इसलिए मातम नहीं मनाएंगे कि वह भी मुसलमान था। वह जानने की कोशिश करेंगे कि उसके कर्म क्या थे ?
जब टीवी पत्रकार रोहित सरदाना की मृत्यु की खबर आई, उन पर अनर्गल लिखने वालों में मुकेश कुमार, रवीश कुमार, उमाशंकर सिंह, स्वतंत्र मिश्र, अभिषेक कश्यप जैसे दर्जनों नाम शामिल थे। संयोग था कि इन सभी की पारिवारिक पृष्ठभूमि हिन्दू परिवार की थी और ये सभी खुद को ‘प्रगतिशील—निष्पक्ष’ पत्रकार कहलाना पसंद करते हैं। यहां सवाल रोहित की आलोचना का नहीं है। सवाल यह है कि इस देश के प्रगतिशील-निष्पक्षों ने दशकों तक व्यवस्था का हिस्सा रहकर भी ऐसे दस मुसलमान खड़े नहीं किए जो जेल में बंद शाहबुद्दीन को अपराधी लिख पाएं। उसके अपराधों पर चार शब्द खरे-खरे लिख पाएं। मुसलमानों के सभी समूहों में मोहम्मद शाहबुद्दीन को हत्यारा की जगह मसीहा लिखा जा रहा है। तमाम प्रगतिशील कम्युनिस्ट इस बात पर अपनी सहमति दर्ज करा रहे हैं।
रोहित सरदाना की रिपोर्टिंग पर मत की बात है। कोई सहमत और कोई अहसमत हो सकता है। लेकिन शाहबुद्दीन के अपराधी होने पर कोई विवाद नहीं है। उसके बावजूद भी शाहबुद्दीन को हत्यारा कहने वाले पांच प्रगतिशील मुसलमान मिलने दुर्लभ क्यों हैं ?
वाम मोर्चा की विदाई के बाद पश्चिम बंगाल में मुस्लिम समुदाय सामूहिक रूप से टीएमसी के लिए वोट करता है, लेकिन पिछले छह वर्षों में सांप्रदायिक दंगों को रोक पाने में ममता की विफलता ने मुसलमानों को ममता से थोड़ा दूर किया था। इस बार एकमत होकर फिर मुसलमानों ने टीएमसी को सिर्फ इसलिए वोट किया क्योंकि भाजपा को राज्य में सत्ता से बाहर रखा जा सके। अपनी योजना में वे सफल रहे।
सफलता तो ठीक है, लेकिन इस सफलता का मुहर्रम तृणमूल की सह पर बीजेपी कार्यकर्ताओं के खून के साथ मनाने को सही नहीं ठहराया जा सकता। शुभेन्दु अधिकारी पर हमला क्यों हुआ ? क्योंकि उन्होंने ममता को परास्त कर दिया। राज्य में भारतीय जनता पार्टी के एक उम्मीदवार काशीनाथ विश्वास के घर में आग क्यों लगाई गई। जिसमें विश्वास का मकान का गैरेज और ग्राउंड फ्लोर पूरी तरह से जल गया। अखबार में इस संबंध में लिखा गया कि तृणमूल उम्मीदवार परेश पाल के लोगों ने यह हमला किया है। अब नाम सामने आने के बाद ममता की सरकार क्या कार्रवाई करेगी ?
पश्चिम बंगाल की स्थिति पर राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ट्वीट में लिखा है कि,”लोकतंत्र के जनादेश का सभी लोगों को सम्मान करना चाहिए। लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। बंगाल में चुनाव बाद भड़क रही हिंसा को रोकने के लिए मैंने गृह विभाग, बंगाल पुलिस और कोलकाता पुलिस को कहा है।”
बावजूद इस ट्वीट के पश्चिम बंगाल में हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही। कहां तो ममता जी ने पश्चिम बंगाल में ईद की तैयारी कर रखी थी, अब हर तरफ मोहर्रम है और भाजपा के नेताओं—कार्यकर्ताओं में डर का माहौल है।
आशीष कुमार ‘अंशु’
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