बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की भारी विजय को किसकी पराजय मानें ? भाजपा की, कांग्रेस या वाममोर्चे की ? बुनियादी तौर पर यह भाजपा की पराजय है, क्योंकि कांग्रेस और वाममोर्चा मुकाबले में ही नहीं थे। पर भाजपा तो बंगाल की पार्टी ही नहीं है। सन, 2016 के चुनाव में उसे सिर्फ तीन सीटें मिली थीं। उसे तो बंगाल की राजनीति में प्रवेश का मौका मिला है। अगले पांच साल में वह अपने स्थानीय नेतृत्व को भी विकसित कर सकती है और संगठनात्मक जड़ें भी जमा सकती है
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के बहुमत में आते ही जोशो-जश्न के अलावा हिंसा की घटनाएं भी सामने आ रही हैं। यह सब तब, जब चुनाव आयोग ने नतीजों का जश्न मनाने पर रोक लगा रखी है। परिणाम आ जाने के बाद चुनाव आयोग की जिम्मेदारी खत्म हो गई है, पर अब इस तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान है कि बंगाल की सड़कों पर क्या हो रहा है। इसे रास्ते पर लाने की जिम्मेदारी अब ममता बनर्जी की सरकार पर है।
गत रविवार को जब चुनाव परिणाम आ रहे थे, तभी खबर आई कि आरामबाग स्थित भाजपा कार्यालय में आग लगा दी गई है। आरोप है कि वहां से तृणमूल उम्मीदवार सुजाता मंडल के हारने के बाद उनके समर्थक नाराज हो गए और उन्होंने भाजपा दफ्तर को फूँक डाला। ममता बनर्जी का कहना है कि भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनके उम्मीदवार को खदेड़ा और सिर पर वार किया।
ममता के लिए अब परीक्षा की घड़ी है। हुल्लड़बाजी से गाड़ी ज्यादा दूर तक चलेगी नहीं। राज्य में आर्थिक गतिविधियां बढ़ानी होंगी। अभी का राजनीतिक मॉडल उन बेरोजगार नौजवानों के सहारे है, जो स्थानीय स्तर पर क्लब बनाकर संगठित हैं और उसके आधार पर उगाही, अवैध वसूली और कमीशन से कमाई करते हैं। यह मॉडल सीपीएम से विरासत में पार्टी को मिला है। पर इससे राज्य की जनता को कुछ मिलने वाला नहीं है।
शुभेंदु अधिकारी की गाड़ी पर हमला
खबरों के अनुसार नंदीग्राम से ममता बनर्जी को हराने वाले भाजपा प्रत्याशी शुभेंदु अधिकारी की कार पर हमला हुआ। इसी तरह नटबारी में भाजपा प्रत्याशी मिहिर गोस्वामी की कार को क्षतिग्रस्त किया गया। सिऊरी में भाजपा के दफ्तर को तहस-नहस किया गया।
बिशुनपुर में भाजपा के एक पोलिंग एजेंट के घर को, बेलघाटा में भाजपा उम्मीदवार काशीनाथ विश्वास के घर और गाड़ियों को फूँकने और आसनसोल में भाजपा दफ्तर को तहस-नहस करने के आरोप भी लगे हैं। कुछ जगहों पर भाजपा समर्थकों के दुकानों में लूटपाट भी की गई। तृणमूल का कहना है कि यह सब हमारे कार्यकर्ताओं का काम नहीं है। भाजपा ही बौखलाहट में यह सब कर रही है।
बंगाल की राजनीतिक संस्कृति में यह बात सामान्य लगती है, पर क्या तृणमूल इसे आगे भी चला पाएगी ? क्या बंगाल के तृणमूल-मॉडल को जनता का समर्थन मिल गया है ? या यह ममता बनर्जी के चुनाव-प्रबंधन की विजय है ? पश्चिम बंगाल के चुनाव इस बार कई कारणों से विवाद के घेरे में रहे। यों भी बंगाल की राजनीतिक गतिविधियों पर हिंसा और विवादों का मुलम्मा चढ़ा रहता है, पर इस बार कोरोना के कारण सारी प्रक्रिया विवाद के घेरे में थी। हिंसा का आलम यह था कि केंद्रीय सुरक्षा बलों पर हमला हुआ, जिसे राजनीतिक तौर पर सही ठहराया गया।
आयोग और ईवीएम
विदेशी मीडिया से लेकर देश की अदालतों ने ज्यादातर बातों के लिए चुनाव आयोग को निशाना बनाया था। इन हमलों के जवाब में आयोग ने कहा था कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत कोविड-19 के लिए जारी दिशा-निर्देश को लागू कराने की ज़िम्मेदारी राज्य के अधिकारियों की थी। आयोग का यह बयान मद्रास हाईकोर्ट की उस टिप्पणी के बाद आया था, जिसमें कोविड-19 महामारी के दौरान चुनावी रैलियों को इजाज़त देने के लिए मद्रास हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग की कड़ी आलोचना की थी।
गत 26 अप्रैल को मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस संजीव बनर्जी ने आयोग की तरफ से पेश हुए वकील से कहा था, कोरोना की दूसरी लहर के लिए केवल और केवल चुनाव आयोग ज़िम्मेदार है। आयोग से नाराज जस्टिस बनर्जी ने यहां तक कहा था कि चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाया जाना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग पर लगातार हमले हुए हैं। सबसे ज्यादा आरोप ईवीएम को लेकर लगाए गए हैं, पर जब उसी ईवीएम से जीत निकलकर आई, तब ये आरोप अचानक भुला दिए गए हैं।
बंगाल में ईवीएम से निकली विजय पर अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने ममता बनर्जी को शुभकामनाएं भेजी हैं। चुनाव के ठीक पहले हाल में तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुए यशवंत सिन्हा ने एक प्रतिनिधिमंडल के साथ चुनाव आयोग में जाकर ईवीएम को लेकर चिंता जताई थी। सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने 29 मार्च को चुनाव आयोग को पत्र लिख कर कई तरह की गड़बड़ियों का अंदेशा जताया था। ममता बनर्जी लगातार आयोग पर हमले करती रहीं। यों पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि ईवीएम से हुई वोटिंग जनादेश नहीं हो सकता।
राष्ट्रीय राजनीति पर असर
बंगाल के इस परिणाम का देश के राजनीतिक भविष्य पर गहरा असर होने वाला है। इसका भाजपा और उसके संगठन, कांग्रेस और उसके संगठन तथा विरोधी दलों के गठबंधन पर असर होगा। लगता यह है कि ममता बनर्जी अब राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के मुकाबले में उतरेंगी। वे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को जितनी बड़ी चुनौती पेश करेंगी, उतनी ही बड़ी चुनौती कांग्रेस और उसके ‘नेता-परिवार’ के लिए खड़ी करेंगी।
दूसरी तरफ विरोधी दल यदि ममता बनर्जी के नेतृत्व में गोलबंद होंगे, तो इससे कांग्रेस की राजनीति भी प्रभावित होगी। सम्भव है राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस ममता के नेतृत्व को स्वीकार कर लें, पर उसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा, यह भी देखना होगा। राहुल का मुकाबला अब ममता से भी है। इसकी शुरुआत इस चुनाव के ठीक पहले शरद पवार ने कर दी थी। वे एक अरसे से इस दिशा में प्रयत्नशील थे।
बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की भारी विजय को किसकी पराजय मानें ? भाजपा की, कांग्रेस या वाममोर्चे की ? बुनियादी तौर पर यह भाजपा की पराजय है, क्योंकि कांग्रेस और वाममोर्चा मुकाबले में ही नहीं थे। पर भाजपा तो बंगाल की पार्टी ही नहीं है। सन, 2016 के चुनाव में उसे सिर्फ तीन सीटें मिली थीं। उसे तो बंगाल की राजनीति में प्रवेश का मौका मिला है। अगले पांच साल में वह अपने स्थानीय नेतृत्व को भी विकसित कर सकती है और संगठनात्मक जड़ें भी जमा सकती है।
भाजपा के सफल होने की सम्भावनाएं 2019 के लोकसभा चुनाव के आधार पर बनी थीं। वह अगर इस बार तृणमूल को हराकर सत्ता में आती, तो अपने किस्म का नया इतिहास बनता। ऐसा नहीं हो पाया और वह तृणमूल के गढ़ को ध्वस्त करने में नाकामयाब रही, तो उसके कारणों को समझने की जरूरत है।
वाम-कांग्रेस का सूपड़ा साफ
इस बार के चुनाव में तृणमूल को 213 (वोट प्रतिशत 48) और भाजपा को 77 (38%) सीटें मिली हैं। कांग्रेस को 2.9 फीसदी और वाममोर्चा को करीब सवा 5 फीसदी वोट मिले हैं, पर सीट कोई नहीं मिली। वाममोर्चा और कांग्रेस का वोट कहां गया ? यह वोट या तो तृणमूल के पास गया या भाजपा के पास। अब राज्य में दो-दलीय मुकाबला है। भाजपा को ज्यादातर कार्यकर्ता सीपीएम से और नेता तृणमूल से मिले हैं।
2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 42 में से भाजपा को 18 और तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं। भाजपा का वोट-शेयर 40 फीसदी हो गया, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 43 फीसदी वोट मिले। कांग्रेस को दो सीटें मिलीं थीं और 38 स्थानों पर उसके प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी। वाममोर्चा एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हुआ था। उसके प्रत्याशियों की 39 सीटों पर जमानत जब्त हुई थी।
कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह थी कि बंगाल में उसका वोट-शेयर 12 से घटकर 6.29 प्रतिशत रह गया। 2006 के चुनाव में वाम मोर्चे को 50 फीसदी वोट मिले थे। 2011 के चुनाव में हार के बावजूद उसने 40 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसके बाद 2016 के चुनाव में उसे 26 फीसदी वोट मिले, जो 2019 में 7 फीसदी रह गए।
सन, 2016 के विधानसभा चुनाव में वाममोर्चा और कांग्रेस ने मिलकर लड़ा था। कांग्रेस और वाममोर्चे को कुल 294 में से 76 पर विजय मिली। इनमें कांग्रेस की 44 और वाममोर्चे की 32 सीटें थीं। दोनों दलों को कुल मिलाकर 38 फीसदी वोट मिले थे, जिनमें से 26 फीसदी वाममोर्चे के थे और 12 फीसदी कांग्रेस के। इस बार भी दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ा और परिणाम सामने है। असली पराजय तो इन दो दलों की है। इन दोनों का स्थान अब भाजपा ने लिया है। इस बार की पराजय के बाद भाजपा को अपनी हार के कारणों पर मनन करना होगा और तृणमूल को अपने आधार को बनाए रखने के बारे में सोचना होगा।
प्रमोद जोशी (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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