सच्चिदानंद जोशी
नरेंद्र कोहली जी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान था एक पूरी की पूरी पीढ़ी को भारतीय संस्कृति के नायकों से सरल, रोचक और भावपूर्ण शैली में परिचित करवाना। एक तरह से साहित्य के माध्यम से पीढ़ी का निर्माण करना, उसे संवारना। या यूं कहें तो पौराणिक और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर शानदार तरीके से लिखने वाले वे हिंदी के निराले सुपरस्टार लेखक थे
दो अप्रैल की शाम साढ़े सात बजे के लगभग संस्कार भारती कला संकुल के लोकार्पण कार्यक्रम से बाहर निकलते हुए उन्होंने कहा,”अब तो सब हो गया न, अब तो इजाज़त है ?” मैंने कहा, “जी हां। अब जल्द ही आकर मिलता हूँ।” उन्होंने हाथ हिलाया और चले गए।
नरेंद्र कोहली जी से ये मुलाक़ात, उनसे अंतिम मुलाक़ात होगी, ऐसा दूर—दूर तक अंदेशा नहीं था। दरअसल दो अप्रैल के कार्यक्रम में कुछ अति विशिष्ट व्यक्तियों को निमंत्रित करने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई थी। कोहली जी उनमें से एक थे। उन्हें फ़ोन लगाया, लेकिन नेटवर्क की खराबी के कारण बात बीच—बीच में कट रही थी। कभी वे लगाते कभी मैं। हार कर वे बोले बाकी बातें मैसेज पर कर लेंगे। उन्होंने कार्यक्रम में आने की सहमति का संदेश भेजा, लेकिन ये भी कहा कि लाने ले जाने की व्यवस्था करनी होगी। वह तो वैसे ही करने वाले थे हम लोग।
कोरोना के प्रोटोकॉल के कारण कार्यक्रम विज्ञान भवन की जगह दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर ही करना पड़ा। कार्यक्रम का आकार छोटा हुआ, लेकिन फिर भी कोहली जी उसमें आये और सबसे बड़ी आत्मीयता से मिले। द्वार पर जब मैंने उनका अभिवादन किया तो उन्होंने कहा, “देखो भाई जोशी जी आपका निर्देश था सो आ गया हूँ।” उन्होंने कार्यक्रम का आनंद लिया और मंच पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत जी के साथ बैठकर मंच की शोभा भी बढ़ाई।
कोहली जी से परिचय हुआ था लगभग दस साल पहले, जब ग्वालियर में एक कार्यक्रम में उनके साथ मंच साझा करने का अवसर मिला था। जिन्हें युवावस्था से पढ़ रहे हों, ऐसे प्रिय लेखक के साथ मंच साझा करने को मिले तो किसे खुशी नहीं होगी। ‘अवसर’, ‘दीक्षा’,’युद्ध’ ‘अभ्युदय’, ‘महासमर’ और ‘तोड़ो कारा तोड़ो’ जैसी कितनी ही कालजयी रचनाओं के रचयिता से मिलने का उत्साह भी था और कौतूहल भी। मैंने तो रायपुर से उस कार्यक्रम में आने की हामी ही इसलिए भरी थी कि कोहली जी के दर्शन होंगे। मुझे तो लगा कि वे एकदम गंभीर अपने आप में रहने वाले व्यक्ति होंगे, लेकिन मेरी अपेक्षा के विपरीत कोहली जी मिले एकदम सहज, मित्रवत होकर। विश्वास करना कठिन था कि हमारी आस्था के श्रेष्ठतम व्यक्तित्वों को अपनी रचनात्मकता से नई दृष्टि देकर हमारे सामने प्रस्तुत करने वाले नरेंद्र कोहली इतने सरल और सहज हैं। उसी कार्यक्रम में कोहली जी के तेवर भी पहली बार देखने को मिले, जब उन्होंने कार्यक्रम का संचालन करने वाली देवी जी को टोका। देवी जी ने कोहली जी के परिचय में कहा, “आपका जन्म सियालकोट पाकिस्तान में हुआ है।” कोहली जी तुरंत बोले “मेरा जन्म जब हुआ था, तब सियालकोट हिंदुस्थान का ही हिस्सा था। मेरा जन्म हिन्दुस्थान में ही हुआ है।” फिर धीरे से मेरे कान में बोले, “पता नहीं कहां से पढ़ लेते हैं परिचय और वही बोलते रहते हैं।”
उसके बाद एक बार कोहली जी को रायपुर बुलाया था विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में स्वामी विवेकानंद जी पर भाषण देने। मुख्य भाषण कोहली जी का ही था। लेकिन उनके पहले बोलने वाले विशेष अतिथि उन्हें आवंटित समय से ज्यादा ही बोलते जा रहे थे। कोहली जी थोड़ी देर बाद अस्वस्थ होने लगे। और फिर मुझसे बोले, “अब अगर ये बोलना बंद नहीं करेंगे तो मुझे उठ कर जाना पड़ेगा।” “हाँ कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं।” मैंने खेद प्रकट करते हुए कहा।
“ज्यादा भी और अनर्गल भी। तथ्य भी गलत हैं और कथ्य भी।” कोहली जी के चेहरे पर गुस्से के भाव देखे जा सकते थे। गनीमत थी कि तीसरी बार पर्ची भेजने के बाद वे विशेष अतिथि रुके और कोहली जी का भाषण शुरू हुआ। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत में ही कहा, “मुझे तो लगा कि मुझे यहां सिर्फ सुनने बुलाया गया है।” हम सभी आयोजक दम साधे बैठे थे कि वे और क्या बोलेंगे, लेकिन उसके बाद उन्होंने दिए विषय पर धाराप्रवाह भाषण दिया जो एक यादगार भाषण था।
उनसे परिचय में प्रगाढ़ता आयी दिल्ली आने के बाद, जब उनसे बार—बार मिलना हुआ।
उनके 80वें जन्मदिन का कार्यक्रम आईजीएनसीए में मनाने का सौभाग्य मिला। मित्रवर अनिल जोशी जी और अनंत विजय जी के सौजन्य से। यह कार्यक्रम सीमित संख्या का और बेहद आत्मीय था। उसी में तय ये हुआ कि एक बड़ा कार्यक्रम शीघ्र करेंगे जो उनकी ऊंचाई और गरिमा के अनुकूल होगा। उस दिन मंच से और मंच के परे जो हास्य विनोद का सिलसिला चला वह भी अविस्मरणीय था। उस दिन चर्चा में कई बार उनके लिए “हिंदी में सबसे ज्यादा रॉयल्टी पाने वाले लेखक” विशेषण का प्रयोग हो रहा था, जो मुझे खटक रहा था। नरेंद्र कोहली जी का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान था एक पूरी की पूरी पीढ़ी को भारतीय संस्कृति के नायकों से सरल, रोचक और भावपूर्ण शैली में परिचित करवाना। एक तरह से साहित्य के माध्यम से पीढ़ी का निर्माण करना, उसे संवारना। जब भी नए दौर में लोगों को अमिष त्रिपाठी और तत्सम लोगों द्वारा मूल अंग्रेजी में लिखी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद सगर्व पढ़ते हुए देखता तो बरबस नरेंद्र कोहली जी याद आ जाते। पौराणिक और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर शानदार तरीके से लिखने वाले वे हिंदी के निराले सुपरस्टार लेखक थे।
कोरोना के पहले दौर के बाद अनिल जोशी जी की बिटिया की शादी के रिसेप्शन में उनसे मिलना हुआ। कहने लगे, “लॉक डाउन के बाद पहली बार बाहर निकले हैं हम। ऐसा लगता है सभी चीज़ों का अभ्यास छूट गया है।” उसके बाद मालिनी अवस्थी जी के बेटे के रिसेप्शन में मिले। मैंने कहा, “अच्छा है आपसे जल्दी जल्दी मिलना हो रहा है।” वे छूटते ही बोले, “ऐसा लगता है कैद से छूट कर आज़ाद हो गए हैं। बाहर निकलने का मौका ही ढूंढते हैं।” उन्होंने और मधुरिमा जी ने लगे हाथ मेरी सामयिक सरस्वती में छपी कहानी का जिक्र भी कर डाला। उस दिन चर्चा में दो तीन बार मेरे मुंह से “तोड़ो कारा तोड़ो” का जिक्र आया। तब उन्होंने “पूत अनोखो जायो” का जिक्र किया और पूछा “वह पढ़ी है या नहीं।”
संयोग से मैंने वह पढ़ी नहीं थी। थोड़ी शर्म भी आई। घर वापस आने पर मैंने वह किताब आर्डर की। किताब तीन दिन बाद आ भी गयी। उसे पढ़ना अभी प्रारंभ किया ही था। पृष्ठ 13 पर नरेंद्र गाना प्रारंभ करते है, “रहना नहीं देस बिराना है।” सोचा नहीं था कि ये नरेंद्र भी हमसे यही कहते हुए महाप्रयाण कर जाएंगे, अपने सदगुरू के पास, अपने ठिकाने पर।
“कहत कबीर सुनो भाई साधो
सदगुरू नाम ठिकाना है।”
हिंदी के इस अनोखे पूत की कमी को हम कैसे पूरा कर पाएंगे पता नहीं। अभी तो उनके बिना सब कुछ वीराना ही लग रहा है।
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