मा.गो. वैद्य
अधिकांश लोगों को इस बात का पता नहीं है कि डॉ. हेडगेवार कौन थे? और उन्होंने संघ की स्थापना क्यों की? केशव बलिराम हेडगेवार नागपुर के निवासी थे। उन्हें बचपन से लगता था कि अपने देश पर अंग्रेजों का शासन नहीं होना चाहिए। जब वे 9-10 वर्ष के थे और तीसरी कक्षा में थे तब इंग्लैंड की रानी और हिंदुस्थान की महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक का स्वर्ण महोत्सव मनाया जा रहा था। इस अवसर पर सभी स्कूलों में मिठाइयां बांटी गर्इं। तीसरी कक्षा के बाकी सभी विद्यार्थियों ने उसे खुशी से खाया लेकिन केशव हेडगेवार ने मिठाई कचरे के डिब्बे में डाल फेंक दी।
वंदे मातरम् से स्वागत
तब 9-10 वर्ष के केशव का यह स्वभाव आगे विकसित होता गया। वे मॅट्रिक (दसवीं) में थे। उस समय ‘वंदे मातरम्’ की घोषणा अपराध थी। स्कूल का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर आने वाले थे। केशव ने निश्चय किया कि इंस्पेक्टर का स्वागत ‘वंदे मातरम्’ की घोषणाओं से करना चाहिए। उन्होंने मॅट्रिक की कक्षाओं के विद्यार्थियों को एकजुट किया। सबसे पहले केशव की कक्षा में इंस्पेक्टर के पैर रखते ही ‘वंदे मातरम्’ गूंज उठा। इंस्पेक्टर आग बबूला हो गए. वे मॅट्रिक की दूसरी कक्षा में गए तो वहां भी‘ वंदे मातरम’ गूंजा। उन्होंने प्रधानाध्यापक को ‘वंदे मातरम्’ की योजना बनाने वाले को कड़ी सजा देने को कहा. प्रधानाध्यापक को किसी ने भी केशव का नाम नहीं बताया। अंतत: मॅट्रिक के सभी विद्यार्थियों को स्कूल से निकाल दिया गया। करीब एक महीने तक मॅट्रिक की कक्षाएं बंद रहीं। माता-पिता प्रधानाध्यापक से मिले तो उन्होंने कहा, ‘विद्यार्थियों को लिखित माफी मांगनी होगी। ’ लेकिन कोई भी माफी मांगने को तैयार नहीं था। फिर बीच का रास्ता निकाला गया कि प्रधानाध्यापक जब पूछेंगे कि ‘आप सभी से गलती हुई है’ तो विद्यार्थियों को ‘हां’ में अपनी गर्दन हिलानी होगी। इस तरह सभी विद्यार्थियों ने गर्दन हिलाकर स्कूल में पुन: प्रवेश लिया। लेकिन इसमें भी केशव हेडगेवार अपवाद रहे।
यवतमाल और पुणे
उसी समय यवतमाल में तपस्वी बाबासाहेब परांजपे ने एक स्कूल शुरू किया था। डॉ. मुंजे का पत्र दिखाकर केशव हेडगेवार को उस स्कूल में प्रवेश मिला। लेकिन अंग्रेजों ने इसे भी बंद करवा दिया। इसके बाद केशव कुछ मित्रों के साथ पुणे गए। वहां कलकत्ता के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय से जुड़े स्कूल में प्रवेश लिया। वे करीब दो महीने पुणे रहे और बाद में अमरावती में मॅट्रिक की परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। केशव हेडगेवार के प्रमाणपत्र पर प्रसिद्ध क्रांतिकारी और बाद में जापान जाकर बस गए डॉ. रासबिहारी घोष के हस्ताक्षर थे।
क्रांतिकारियों के गढ़ में
केशव हेडगेवार में क्रांतिकारियों के कार्यों के प्रति आकर्षण था। उनका अपना भी एक क्रांतिकारी समूह नागपुर में था। लेकिन क्रांतिकारियों का मुख्य गढ़ कलकत्ता (अब कोलकाता) में था। डॉक्टरी की परीक्षा देने के लिए केशव हेडगेवार ने कलकत्ता को चुना। क्रांतिकारियों से अच्छे संबंध बनाए और क्रांतिकारियों की सर्वोच्च समिति अनुशीलन समिति के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। वे 1910 में कलकत्ता गए। 1914 में एलएम एण्ड एस उपाधि प्राप्त की और नियमानुसार चिकित्सा के अनुभव के लिए एक वर्ष तक कलकत्ता में रहे। 1916 के शुरू में वे नागपुर वापस लौटे।
कांग्रेस में
क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए ही उन्हें लग गया था कि दो-चार अंग्रेजों को मारने से देश स्वतंत्र नहीं होगा। जब तक सामान्य लोगों के मन में स्वतंत्रता की इच्छा निर्माण न होगी तब तक कितने भी क्रांतिकारी शहीद हो जाएं, देश स्वतंत्र नहीं हो पाएगा। उन्होंने वह रास्ता त्याग दिया और नागपुर आकर कांग्रेस में सक्रिय हो गए। तब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस के प्रवर्तक थे। ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे प्राप्त करके ही रहूंगा।’ उनकी इस घोषणा से सभी युवक उत्साह में थे। डॉक्टर जी भाषण देने के लिए जाते जो अत्यंत उत्तेजक होते थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें भाषणबंदी का हुक्म सुनाया लेकिन डॉक्टर जी रुके नहीं। अंत में सरकार ने उन पर भड़काऊ भाषण देने के लिए देशद्रोह का मुकदमा कर दिया। डॉक्टर जी ने अपने बचाव में जो भाषण दिया, वह उस भाषण से भी ज्यादा उत्तेजित करने वाला था जिसके कारण उन पर मुकदमा चला। 19 अगस्त, 1921 को उन्हें एक साल के कठिन कारावास की सजा हुई। 12 जुलाई, 1922 को वे रिहा हुए। उस दिन जोरों से बारिश होने से उनके स्वागत में सभा खुले मैदान में न होकर व्यंकटेश थिएटर में हुई जिसमें पं. मोतीलाल नेहरू और हकीम अजमल खान जैसे कांग्रेस के अखिल भारतीय नेता भी थे।
1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक के स्वर्गवास के बाद कांग्रेस के सूत्र महात्मा गांधी के हाथ में आए। प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्किस्तान के कमाल पाशा के खलीफा का पद समाप्त करने से जब विश्व के मुसलमान भड़क उठे तो उनके इस रोष का भारत की स्वतंत्रता के लिए उपयोग करना चाहिए और कांग्रेस के आंदोलन में बड़ी संख्या में मुसलमान भी शामिल हों, इसलिए महात्मा गाधी ने खिलाफत का आंदोलन चलाया। कुछ कट्टर मुसलमान कांग्रेस के साथ आए जरूर लेकिन आंदोलन सफल नहीं हुआ। अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा प्रकट करने के बजाए मुस्लिमों ने पड़ोसी हिंदुओं पर ही आक्रमण किया। मालाबार के मोपलाओं का विद्रोह इसी का उदाहरण है। वहां मुस्लिमों ने अनगिनत हिंदुओं का कत्ल किया। जिन्होंने शरणागति ले ली, उनको मुस्लिम बनाया गया। हिंदू स्त्रियों पर अनेक अत्याचार किए गए।
नए विचारों का चक्र
इस खिलाफत आंदोलन के संदर्भ में डॉ. हेडगेवार ने महात्मा गांधी से चर्चा की। लेकिन गांधी जी उनकी आशंकाओं का समाधान नहीं कर पाए. डॉक्टर जी ने जान लिया कि इस हिंदू राष्टÑ का भाग्य और भविष्य हिंदू समाज से जुड़ा हुआ है। जब तक हिंदू समाज संगठित नहीं होगा तब तक देश का भाग्योदय नहीं हो सकता. और उन्होंने तय किया कि हिंदुओं का संगठन होना चाहिए और इस विचार से 1925 में राष्टÑीय स्वयंसेवक संगठन की स्थापना हुई। कुछ अनुभवी लोग उनके साथ थे। लेकिन डॉक्टर जी ने 10-14 साल के बच्चों-किशोरों के लिए प्रतिदिन की शाखा शुरू की। इस कार्यपद्धति ने चमत्कार कर दिया। हिंदुओं में अनेक भेद थे और आज भी है जैसे-जाति भेद, भाषा भेद, प्रांत भेद जैसे बहुत सारे भेद और इसके साथ अस्पृश्यता को मानने वाले लोग। प्रतिदिन की शाखा ने इन सभी भेदों को मिटा दिया। विभिन्न भेदों की रेखा को परे कर डॉक्टर जी ने हिंदू नामक एक बड़ी रेखा खींच दी।
एक अनुभव
1932 की बात है। संघ के शीतकालीन अधिवेशन के शिविर में तब समाज में ‘अछूत’ माने जाने वाले 8-10 स्वयंसेवक आए थे। उनके साथ दूसरी जातियों के और भी स्वयंसेवक आए। वे डॉक्टर जी के पास गए और बोले, ‘‘हम उनके साथ बैठकर भोजन नहीं करेंगे।’’ डॉक्टर जी ने उनसे सिर्फ इतना ही कहा कि, ‘‘आप अलग से पंक्ति बना सकते हैं। लेकिन मैं उन सभी के साथ बैठकर ही भोजन करूंगा।’’ उन 10-12 लोगों ने अलग पंक्ति बनाकर भोजन किया। डॉक्टर साहब सभी के साथ बैठे। इस से सीख लेकर वे अगले दिन से सभी के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने लगे। संघ ने सामूहिक भोजन का दिखावटी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया लेकिन ‘हम सब एक हैं’ इस संस्कार से सभी जाति भेदों को मिटा दिया।
गुरुदक्षिणा
डॉक्टर हेडगेवार ने एक अनोखी पद्धति प्रचलित की गुरुदक्षिणा की। संघ ने तय किया कि वह किसी से भी दान नहीं लेगा। संघ में आने की फीस नहीं होगी। साल में एक दिन समर्पण भाव से स्वयंसेवकों को गुरुदक्षिणा देनी होेगी। और गुरु कोई व्यक्ति नहीं, त्याग, पवित्रता व पराक्रम आदि का प्रतीक भगवा ध्वज ही गुरु। उसके सामने समर्पण करना है। संघ में कोई भी व्यक्ति गुरु के स्थान पर नहीं होगा। समर्पण भावना से दी गई दक्षिणा के कारण संघ को एक और लाभ हुआ। संघ स्वयंपूर्ण और स्वतंत्र हो गया। आज लाखों रुपए दक्षिणा देने वाले स्वयंसेवकों के बारे में भी शाखा अधिकारी के अलावा किसी को भी उनकी जानकारी नहीं होती। 1946 में नागपुर में संघ का अपना अखिल भारतीय कार्यालय शुरू हुआ। उससे पहले किराए के घर में होता था। संघ का प्रचार और प्रसार पूरे भारत में करने के लिए डॉक्टर जी ने समृद्ध घरों के युवकों को दूसरे राज्यों में जाकर शिक्षा लेने को लिए प्रेरित किया। राजभाऊ पातूरकर कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लाहौर, वर्धा के बाबा कल्याणी सियालकोट की रावलपिंडी, पवनार के मुंजे पंजाब, श्री भैयाजी दाणी बनारस चले गए। भाऊराव देवरस नागपुर विश्वविद्यालय से बीए हुए तो उन्हें कॉमर्स की डिग्री प्राप्त करने के लिए प्रेरणा दी गई। वे लखनऊ गए और वहां से बी.कॉम और एलएलबी हुए। ये सभी संघ की शाखा के विस्तार का काम किया करते थे। भाऊराव देवरस की महिमा ऐसी कि उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय और अटलबिहारी वाजपेयी जैसे कार्यकर्ता तैयार किए।
21 जून, 1940 को डॉक्टर जी का स्वर्गवास हो गया। उस वर्ष बीमारी की वजह से वे संघ शिक्षा वर्ग में नहीं जा पाए थे। उनके बहुत आग्रह करने पर 9 जून, 1940 को संघ शिक्षा वर्ग के विदाई समारोह में उन्हें ले जाया गया। उस समय उन्होंने कहा, ‘‘आज मैं मेरे सामने लघु भारत को देख रहा हूं। असम को छोड़कर बाकी के सभी राज्यों में 1937 से गए युवकों ने तीन सालों में ही संघ की शाखा का कार्यारंभ कर दिया था। इन सभी राज्यों के स्वयंसेवक 1940 के संघ शिक्षा वर्ग में आए थे।
संस्कृत प्रार्थना
डॉक्टर जी को संघ के देशव्यापी विस्तार की कल्पना थी। 1939 तक संघ की प्रार्थना आधी मराठी और आधी हिंदी में थी। शाखा की आज्ञाएं भी ऐसी ही थीं।’’ 1939 में नागपुर के पास सिंदी गांव में संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं की 10 दिनों तक चली बैठक, जिसमें डॉक्टर जी के साथ श्री गुरुजी, श्री अप्पाजी जोशी, श्री बालासाहेब देवरस जैसे 7-8 कार्यकर्ता थे, प्रार्थना और आज्ञाएं संस्कृत में करने का निश्चय हुआ. उस प्रारूप का अनुवाद नागपुर के श्री नरहरी नारायण भिडे ने किया था।
सरसंघचालक श्री गुरुजी
डॉक्टर जी की इच्छानुसार श्री माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ श्री गुरुजी संघ के द्वितीय सरसंघचालक बनाए गए। मृत्यु के एक दिन पहले यानी 20 जून, 1940 को डॉक्टर जी ने श्रीगुरुजी को कहा, ‘‘अब आपको ही संघ का कार्य करना है।’’ उस दिन डॉक्टर जी का लंबर पंक्चर होना था। उस समय कमरे में श्री कृष्णराव मोहरील और श्री यादवराव जोशी उपस्थित थे। उन्होंने सभी लोगों को यह समाचार बताया। 3 जुलाई, 1940 को डॉक्टर जी की तेरहवीं के दिन औपचारिक रूप से, सभी स्वयंसेवकों के सामने विदर्भ प्रांत के संघचालक श्री बाबासाहाब पाध्ये ने सरसंघचालक के रूप में श्री माधव सदाशिव गोलवलकर के नाम की घोषणा कर दी। श्री गुरुजी 33 वर्षों तक इस पद पर रहे।
1942 का आंदोलन
इन 33 वर्षों में संघ विविध क्षेत्रों में गया। 1947 से पहले श्री गुरुजी को दो बड़े ही कठिन प्रसंग संभालने पड़े। पहला प्रसंग 1942 में महात्मा गांधी का ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन और दूसरा भारत का विभाजन। महात्मा गांधी को ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की शुरुआत अगस्त, 1942 में नहीं, फरवरी, 1943 में करनी थी। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए छह महीने की मोहलत दी थी। परंतु 1943 के आंदोलन की भनक गुप्तचरों को लग गई। तब के यूपी के अंग्रेज गवर्नर ने उस समय के वायसराय को गोपनीय पत्र लिखकर बता दिया कि गांधी 1943 के फरवरी-मार्च के महीने में बड़ा आंदोलन करने जा रहे हैं और उसी समय सुभाषचंद्र बोस जापान की मदद से देश पर आक्रमण करेंगे। 1972 में ‘ट्रांसफर पॉवर 1940’ शीर्षक नाम से पांच खंडों में प्रकाशित तब की गोपनीय पत्रावली में यह पत्र है। अंग्रेज सरकार जान गई कि गांधी देशव्यापी आंदोलन की तैयारी के लिए समय ले रहे हैं। कांग्रेस के सभी बड़े नेता 9 अगस्त को मुंबई पहुंचने वाले थे। अंग्रेजों ने तय किया था कि नेताओं को मुंबई आने के बाद गिरफ्तार कर लिया जाए।
आंदोलन में संघ
बड़े नेताओं की गिरफ्तारी से जनता अधिक क्रोधित हो गई और जिसने जैसा चाहा, वैसा विरोध किया। आंदोलन में एकसूत्रता नहीं थी। यह सच है कि इस आंदोलन में संघ ने संगठित रूप से भाग नहीं लिया लेकिन जगह-जगह स्वयंसेवक ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में शामिल हुए। यह बात श्री गुरुजी के ध्यान में जरूर आ गई होगी कि स्वयं के बल पर आंदोलन चलाएं, ऐसा सशक्त संघ अभी तक बना नहीं है। यह निर्णय उनका अकेले का नहीं हो सकता, वह सामूहिक निर्णय ही होगा। इससे संबंधित एक बात का मैं उल्लेख करना चाहूंगा जो माननीय सुदर्शन जी ने बताई थी। 1942 में संघ की भूमिका को लेकर माननीय दत्तोपंत ठेंगडी ने श्री गुरुजी से चर्चा की थी। श्री गुरुजी ने उनसे कहा, ‘‘ संघ की शक्ति को लेकर कुछ लोगों की बहुत ही मनोरंजक कल्पनाएं हैं। संघ की शक्ति सिर्फ गोंदिया से लेकर बेलगांव तक ही सीमित है। दूसरे राज्यों में वह इतना शक्तिशाली नहीं हैं। इसके अलावा संघ-कार्य वाला यह हिस्सा देश के मध्य में है। अंग्रेज चारों ओर से घेरकर हमारे आंदोलन को समाप्त कर देते और उनकी शक्ति के सामने संघ कुछ नहीं कर पाता। (देखें- मा.गो. वैद्य : संघ, काल, आज आणि उद्या-परिशिष्ट-1)
इसलिए श्री गुरुजी ने सभी स्वयंसेवकों को संदेश पहुंचाया कि आंदोलनकारियों को हरसंभव मदद करें और ऐसी मदद संघ ने की। श्रीमती अरुणा आसफ अली दिल्ली के संघचालक श्री हंसराज गुप्ता के घर भूमिगत रही। औंध के संघचालक पं. सातवलेकर ने नाना पाटील को आश्रय दिया। महाराष्टÑ से श्री अच्युतराव पटवर्धन, सेनापति बापट, साने गुरुजी जैसे नेताओं को संघ के कार्यकर्ताओं ने अपने घरों में गुप्त तरीके से रखा था।
विभाजन से पूर्व
1947 में गलत हो या सही, लेकिन संघ को लगा कि गांधी जी विभाजन के निर्णय को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। संघ के इस विश्वास के ठोस कारण थे। एक मुख्य कारण था, 1946 के विधानसभा के चुनाव। इस चुनाव में कांग्रेस की घोषणा थी अखंड भारत, तो मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के निर्माण का नारा दिया था। जहां हिंदुओं की बहुलता थी वहां तो कांग्रेस को बहुमत मिला ही लेकिन 95 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाले उत्तर-पश्चिम सरहदी राज्यों में भी कांग्रेस की सत्ता आई। संपूर्ण पंजाब में मुस्लिम लीग को बहुमत नहीं मिला, युनियनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। सिंध में मुस्लिम लीग सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी पर उसे बहुमत नहीं मिला। मुस्लिम लीग सिर्फ बंगाल में ही बहुमत प्राप्त कर सकी। उस समय की परिस्थितियों में ऐसा नहीं लगता था कि गांधीजी के नेतृत्व वाली कांग्रेस विभाजन स्वीकार कर लेगी।
गांधीजी पर विश्वास
1946 के नवंबर महीने में सरसंघचालक श्री गुरुजी का निवास मुलतान में था। मुलतान के जिला संघचालक श्री बलदेव बर्मन ने श्री गुरुजी से पूछा, ‘‘पाकिस्तान का बहुत शोर है। कहीं वह बनाया तो नहीं जाएगा?’’ श्री गुरुजी ने कहा, ‘‘मुझे महात्मा गांधी पर पूर्ण विश्वास है। वे पाकिस्तान का प्रस्ताव कभी नहीं मानेंगे। हो सकता है, देश को अखंड रखने के लिए जिन्ना द्वारा प्रस्तुत कई प्रस्ताव वे मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए मान लें। पर देश विभाजन वे होने नहीं देंगे। (रंगा हरि: गुरुजी जीवन चरित्र-पृष्ठ 124)
डायरेक्ट एक्शन
जिन्ना के आह्वान पर मुसलमानों ने कांग्रेस पर विभाजन हेतु दबाव बनाने के लिए 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन’ दिवस मनाया। उस दिन कलकत्ता में असंख्य हिंदुओं को कत्ल कर दिया गया। खूनखराबा नोआखाली में भी हुआ और पंजाब और सिंध में भी। हिंदू क्रूरता भरे ऐसे आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे इसलिए बंगाल में उन्हें भयंकर अत्याचार सहन करने पड़े। गांधी जी ने जिन्ना को मनाने के लिए नए गवर्नर जनरल लॉर्ड मांउटबॅटन से अपनी पहली मुलाकात में कहा था कि वर्तमान सरकार (पं. नेहरू के नेतृत्व वाली) को बरखास्त किया जाए और जिन्ना को उनकी पसंद की सरकार बनाने दी जाए। लेकिन अन्य कांग्रेस नेताओं को गांधीजी की यह बात मान्य नहीं थी. इससे विभाजन को स्वीकार करने की उनकी मानसिकता बन गई।
पंजाब में अधिकतर मुस्लिम आबादी वाले शहरों में हिंदुओं ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का जोरदार विरोध किया। नागपुर के एक कार्यकर्ता 1943 में मांटगोमरी जिले में प्रचारक थे। उन्होंने ‘भारत माते च्या विभाजना च्या संकटात संघ स्वयंसेवकां चे पराक्रमपर्व’ (भारत माता विभाजन के संकट में स्वयंसेवकों का पराक्रम पर्व) इस शीर्षक से करीबन 80 पृष्ठों की किताब में इसके बारे में विस्तार से वर्णन किया है। संघ को भी इसकी कल्पना हो चुकी थी इसलिए जून महीने में पंजाब में लगे संघ शिक्षा वर्ग की अवधि समाप्त होने से पूर्व ही उसे विसर्जित कर दिया गया था और स्वयंसेवकों को आत्मरक्षा के लिए उनके गांवों में भेज दिया गया। हमलावरों को पुलिस का भी संरक्षण था। फिर भी संघ की प्रेरणा से हिंदुओं ने हमलावरों का डटकर मुकाबला किया जिससे उनकी जनहानि कम हुई।
विभाजन को मान्यता
अंत में कांग्रेस ने विभाजन की मान्यता दे ही दी। 14-15, 1947 को अ.भा. कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन में गोविंद वल्लभ पंत ने विभाजन की मान्यता का प्रस्ताव रखा। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन ने इसका विरोध किया। श्री टंडन के भाषण के बाद इतनी तालियां गूंजी कि लगा, प्रस्ताव पारित नहीं होगा। लेकिन गांधीजी ने कहा कि यह प्रस्ताव पारित करना आवश्यक है। प्रस्ताव पारित हो गया। विभाजन के विरोध में कोई भी जनमत एकजुट न कर पाए इसलिए तय समय से 10 महीने पहले ही 15 जगस्त, 1947 विभाजन का दिन तय किया गया। पंजाब में मुस्लिम गुंडों को पुलिस की सहायता मिलने लगी और पंजाब से रेलगाड़ियां भरकर हिंदुओं की लाशें भारत में आने लगीं। लाखों लुटे-पिटे लोग जीवित भी भारत पहुंच गए। संघ ने इन सभी निर्वासितों की व्यवस्था की। पंजाब रिलीफ कमेटी की स्थापना हुई। पंजाब के अनेक कांग्रेस नेताओं ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि वे संघ के कार्यकर्ताओं की वजह से ही कुशलतापूर्वक भारत पहुंच पाए। इस सेवा कार्य की वजह से संघ की लोकप्रियता बढ़ गई। संघ इतना लोकप्रिय हो गया कि सत्ताधारी कांग्रेस के लोगों को संघ से डर लगने लगा था। उत्तर प्रदेश के एक संसदीय सचिव ने तो ‘फासिस्ट संघ’ पर पाबंदी के लिए एक पुस्तक ही लिख डाली! 29 जनवरी, 1948 को अमृतसर में पं. नेहरू ने संघ को ‘जड़ से उखाड़कर फेंक देने’ की घोषणा की। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद यह मौका उन्हें मिल गया और संघ का कोई दोष न होते हुए भी उस पर पाबंदी लगा दी गई। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को धारा 302 के तहत गिरफ्तार कर लिया गया, जैसे कि वे ही पिस्तौल लेकर महात्मा जी की हत्या करने के लिए निकले हों! यह सब 1948 के आरंभ का इतिहास है।
(लेखक संघ विचारक और वरिष्ठ पत्रकार थे। उनका यह आलेख पाञ्चजन्य के 11 दिसम्बर, 2016 अंक में प्रकाशित हुआ था)
महत्वपूर्ण सोपान
संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार जन्म से ही देशभक्त थे। वे जान-बूझकर चिकित्सा- शिक्षा के लिए कलकत्ता गए ताकि वहां क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग ले सकें। जनांदोलन के महत्व को समझते हुए उन्होंने कांग्रेस में योगदान दिया और विदर्भ क्षेत्र में सांगठनिक तौर पर एवं जनजागरण के लिए काफी काम किया। इसके चलते आगे उन्हें सश्रम करावास भी झेलना पड़ा।
खिलाफत आंदोलन के चलते तत्कालीन राजनीतिक धारा से मोहभंग। इसके वाद चरित्र और निस्वार्थ पर आधारित समाज संगठन के महत्व का अनुभव।
नियमित शाखा के अतिरिक्त डॉ. हेडगेवार ने संगठन को मतबूत बनाने के लिए विभिन्न नए तरीके आजमाए।
उदाहरण के लिए गुरु दक्षिणा, संस्कृत में आज्ञाएं और नियमित बौद्धिक विचार-विमर्श।
थोंडे समय में ही संघ की राष्ट्रीय उपस्थिति। गतिविधियां और लक्ष्य वही था जिनका अनुभव डॉ. हेडगेवार ने अंतिम दिनों में किया
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