बाबासाहेब आंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर विशेष : एक नाम, हजार आयाम
May 24, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम भारत

बाबासाहेब आंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर विशेष : एक नाम, हजार आयाम

डॉ. आंबेडकर का चिंतन और उनका कर्म बहुत विशाल है। लगभग सभी लोगों ने डॉ. आंबेडकर को अपने-अपने नजरिए से देखा है, लेकिन उनका समग्र आकलन बहुत कम ही हुआ। उनके प्रति कुछ दृष्टिकोण अधूरे हैं, तो कुछ दृष्टिकोण तथ्यों के विपरीत

by डॉ. कृष्ण गोपाल
Apr 14, 2021, 10:30 am IST
in भारत, संघ
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail
डॉ. कृष्ण गोपाल

डॉ. आंबेडकर का जीवन बड़ा व्यापक, विस्तृत और बहुआयामी था। लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि उनका समग्रता में अध्ययन और विश्लेषण बहुत दुर्लभ दिखता है। सभी लोगों ने उनका कोई न कोई एक ही पक्ष देखा और उसी को लेकर अपना मन बनाना प्रारंभ किया। डा़ॅ आंबेडकर जी के बारे में हमें अनेक प्रकार के मत देखने और सुनने को मिलते हैं। बहुत से लोग कहते हैं कि वे हमारे लिए भगवान थे और साक्षात् ईश्वर के अवतार के रूप में आए थे, हमारी स्थिति को सुधारने के लिए जो प्रयत्न उन्होंने किए, वे किसी भगवान से कम नहीं हैं। इसलिए कुछ लोग उनको साक्षात् ईश्वर का अवतार मानते हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जो उन्हें झूठा ईश्वर कहते हैं और उनकी बातों को नकार देते हैं। कुछ कहते हैं कि वे केवल अनुसूचित वर्ग के थे,वहीं कुछ लोग कहते हैं कि वे समग्र समाज के लिए थे, कुछ लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी और कांग्रेस से उनका भारी मतभेद था, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि गांधीजी और आंबेडकरजी दोनों का उद्देश्य एक ही था। मार्क्सवादी विचारधारा के लोग मानते हैं कि वे वर्ग संघर्ष में विश्वास रखते थे, लेकिन आंबेडकर जी ने स्पष्ट लिखा है कि मैं कम्युनिज्म और कम्युनिस्टों का शत्रु नंबर एक हूं।

कुछ कहते हैं कि वे धर्म के विरोधी थे, लेकिन डॉ. आंबेडकर ने स्वयं कहा है कि मैं धर्म पर विश्वास रखता हूं। धर्म के मूल्यों के बिना समाज का संघर्ष केवल ईर्ष्यालु तथा सत्ता प्राप्त करने वाले लोगों का एक क्षुद्र संघर्ष बन जाएगा। धर्म पर उनका बड़ा व्यापक विश्वास था।

कुछ लोगों का मानना है कि वे सवर्णों और ब्राह्मणों के विरोधी थे, लेकिन उनके जीवन में एक बार भी ऐसा मत नहीं आया कि उन्होंने किसी भी एक वर्ग विशेष को कुछ खराब बोला हो। वे कुछ व्यवस्थाओं को लेकर संघर्ष कर रहे थे। उनका संघर्ष कुछ मान्यताओं से था। उनका संघर्ष उच्च जाति के लोगों से नहीं था। इसलिए उनके इस सारे संघर्ष में सभी जातियों और वर्गों के लोग शामिल थे।

यह बात सच है कि जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने बौद्ध मत अपनाया था। उन्होंने सभी धार्मिक मान्यताओं के बारे में बहुत विस्तार से लिखा है। परन्तु इन विषयों एवं विचारों का समग्रता में विश्लेषण और अध्ययन नहीं हुआ है। उनका जीवन विशाल एवं विराट है। चिंतन, अध्ययन और लेखन शोधपरक है, उनका संघर्ष अतुलनीय है, उसके आयाम भी बहुत हैं, विस्तृत हैं। मैं कुछ बिंदुओं की व्याख्या आपके सामने संक्षेप में रखने का प्रयास करता हूं।

महार नाम की तथाकथित अस्पृश्य जाति में जन्म लेने वाला एक बालक जिसका नाम भीमराव था, उनके पिता का नाम रामजी सकपाल था, वे सेना में सूबेदार थे। 14 भाई-बहनों में सबसे छोटे भीमराव का जीवन कष्ट एवं संघर्षयुक्त रहा परन्तु वे मैट्रिक करने वाले महार जाति के पहले छात्र बने। उनकी इस सफलता में उनके एक ब्राह्मण अध्यापक का, जिनका सरनेम (उपनाम) आंबेडकर था, बहुत रचनात्मक सहयोग प्राप्त हुआ।

उनके एक और अध्यापक कृष्णा जी केलुस्कर ने भीमराव को भगवान गौतम बुद्ध की एक छोटी-सी जीवनी पढ़ने को दी। भीमराव बताते हैं कि मैं जीवन भर केलुस्कर जी को और भगवान गौतम बुद्ध को भूल नहीं सका। केलुस्कर ही भीमराव को बड़ौदा के राजा साहेब के पास ले गए और उनको पच्चीस रुपए की छात्रवृत्ति मिलने लगी। बंबई यूनिवर्सिटी से उन्होंने अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान लेकर 1912 में बीए किया। राजा बड़ौदा ने छात्रवृत्ति बढ़ाकर 75 रुपए कर दी। उन्होंने थोड़े दिनों के लिए बड़ौदा राज्य में नौकरी की। वहां भी भेदभाव का वातावरण था, तो भीमराव नौकरी छोड़कर वापस आ गए। केलुस्कर जी के प्रयास से साढ़े 92 पाउंड प्रति माह की छात्रवृत्ति पक्की हुई और भीमराव उच्च अध्ययन के लिए कोलंबिया चले गए। वहां उन्होंने एमए और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की। वे कोलंबिया में तो पढ़ते ही थे, साथ ही साथ समय निकालकर लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में भी पढ़ते थे। दोनों स्थानों पर पढ़ते हुए वे डिग्री प्राप्त कर रहे थे। एक जगह से वे एमए और पीएचडी करते हैं, तो दूसरी जगह से एमएससी और डीएससी करते हैं। यह कोई आसान काम नहीं था। उन्होंने ये चारों डिग्रियां प्राप्त कीं। इसके साथ ही उन्होंने विदेश में ही बार एट लॉ भी पूर्ण किया।

पढ़ाई पूरी करने के बाद वे सामाजिक जीवन में आए। उनके मन में समाज का काम करने का भाव था। वे एक अच्छे समाज सुधारक हैं,अच्छे श्रमिक नेता हैं, एक बैरिस्टर हैं, कुशल राजनीतिक नेता भी है। वे कई पत्रों के संपादक भी हैं, वे कुशल वक्ता हैं, वे अच्छे अर्थशास्त्री हैं, अच्छे एंथ्रोपोलिजिस्ट (नृ-विज्ञानी) हैं, सामाजिक विषयों पर कई सिद्धांत देने वाले हैं, अनेक देशों के संविधानों के वे ज्ञाता हैं तथा संविधान निर्माता भी हैं। वे क्या नहीं हैं? ध्यान में आएगा कि उनके जीवन के अनेक आयाम हैं।

जीवन संघर्षमय था लेकिन उनका कोई शत्रु नहीं था। वे संघर्ष करते हैं, लेकिन किसी को शत्रु नहीं मानते। महात्मा बुद्ध कहते हैं कि बैर से बैर समाप्त नहीं होता, शत्रुता से शत्रुता नहीं जाती इसलिए बैर करते हुए समता और ममता लाना संभव नहीं है। किसी से भी बैर किए बिना, यह व्यक्तित्व आगे बढ़ता है।

यह सच है कि उनके जीवन के बहुत थोड़े से प्रसंग ही लोगों के सामने आए हैं। सारे जीवन के प्रसंग और आयाम, उनकी विलक्षण क्षमताएं लोगों के सामने नहीं आई हैं। यहां पुरुषों के साथ ऐसा ही होता है। डॉ. जॉनसन लिखते हैं कि व्यक्ति के अंदर बहुत सारी क्षमताएं होती हैं लेकिन नियति उसकी किसी एक क्षमता को चुन लेती है और उसी को लेकर आगे बढ़ती है।

हम जानते हैं कि लोकमान्य तिलक गणित के बड़े अच्छे विद्यार्थी थे, लेकिन गणित के काम में उनको आगे बढ़ने का समय नहीं मिला। अटल बिहारी वाजपेयी बड़े अच्छे कवि रहे, लेकिन उन्हें कविता और लेख लिखने का समय नहीं मिला। स्वामी रामतीर्थ और स्वामी विवेकानंद गणित और विज्ञान के अच्छे विद्यार्थी थे, लेकिन दोनों के जीवन में शायद संन्यास ही लिखा था।

नियति कहां से कहां ले जाती है। आंबेडकरजी का जीवन भी ऐसा ही है। इसलिए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम उनके जीवन का समग्रता से अध्ययन कर सकें, समग्रता से विचार कर सकें, तभी किसी व्यक्ति का उचित मूल्यांकन हो सकता है।

समझौते के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर वे बड़ौदा आ गए। वे सेक्रेटरी आफ बड़ौदा स्टेट बन गए। यहां भी वातावरण अच्छा नहीं था। उनका जो क्लर्क था, वह भी उनको फाइल फेंककर देता था। अपना पानी अपने साथ लाना पड़ता था। क्लब में उनके साथ कोई खेलता नहीं था। उनकी कुर्सी अलग थी। उनको कोई भी मकान भाड़े पर नहीं मिला और अंत में एक झूठा नाम रखकर एक पारसी धर्मशाला में उन्होंने कमरा भाड़े पर लिया, नाम रखा आदलजी सोराबजी।

डॉ. आम्बेडकर वर्णन करते हैं ‘एक दिन बड़ी संख्या में पारसी लोग लाठी-डंडे लेकर मेरे पास आ गए और कहा तुरंत निकल जाइए यहां से।’आंबेडकर जी बोलते हैं कि सारा सामान लेकर मैं बाहर सड़क पर पेड़ के नीचे था। सारी डिग्री पास में होने के बाद भी उनका कोई अर्थ नहीं है। मैं कहां जाऊं? कोई मित्र भी रखने को तैयार नहीं। ऐसे अपमानजनक व्यवहार के कारण उनके मन में एक टीस उठी। सारी डिग्री किस काम की है, समाज में सम्मान तो मिलता नहीं है। आंखों से आंसू बहने लगे और शायद उसी दिन उनके जीवन में एक संकल्प गहरे बैठ गया। यही संकल्प धीरे-धीरे आंखों से बहते-बहते जीवन का संकल्प बन गया और उन्होंने निर्णय किया कि यह जीवन इस समाज के परिवर्तन के लिए लगा दूंगा। वह इस पर अंतिम सांस तक दृढ़ रहे।

जो बच्चा मिट्टी के एक छोटे से लैंप से रात-रात भर पढ़ता था, बिना भोजन के दो-चार ब्रेड के पीस लेकर कोलंबिया और लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स में पढ़कर आ गया, वह कितना भी धन कमा सकता था। लेकिन नहीं, उसने सारा जीवन समाज परिवर्तन के लिए समर्पित किया था। इस समाज के वर्तमान दुख और दैन्य को, समाज की सारी विभेदकारी परंपराओं और मान्यताओं को बदलने के लिए वे समर्पित हो गए।

उनका सारा जीवन तीन आदर्शों के पीछे चलता है। पहले गुरु उनके महात्मा बुद्ध हैं। बुद्ध ने विद्रोह किया, उस समय की परंपराओं से, मान्यताओं से, रूढ़ियों से, पाखंड से, कर्मकांडों से, लेकिन मौलिक तत्व को पकड़कर रखा। इस देश का मौलिक तत्व प्रेम, एकात्म बोध, दया और करुणा, श्रद्धा, निष्ठा और आत्मीयता है। इन मौलिक तत्वों को अपनाकर बुद्ध ने कर्मकांडों को दूर ले जाकर रख दिया और बुद्ध इस देश के सनातन दर्शन को फिर से ले जाकर खूंटे पर बांधते हैं, प्रेम से, श्रद्धा से, करुणा से, ममता से, संघर्ष से नहीं। इस प्रकार गौतम बुद्ध उनके पहले गुरु थे।

दूसरा बगावती नेतृत्व कबीर का था। कबीर भी धर्ममय हैं। कबीर राम का भक्त है। अपने आपको राम का कुत्ता कहता है, लेकिन कबीर प्रेम, करुणा, दया, ममता, श्रद्धा की वाणी बोलता है। उसका सारा धर्म ढाई आखर प्रेम में है। वे इस धर्म में कबीर को अपना गुरु मानते हैं। कबीर की बगावत पक्की है, लाठी लेकर बात करता है, लेकिन किसी को शत्रु नहीं मानता। धर्म के आधार पर संघर्ष करता है, किसी से बैर नहीं ठानता, लेकिन परिवर्तन की एक वाणी देता है। जिनको वाणी नहीं, उनको स्वर देता है, जिनको मंच नहीं है, उनको मंच देता है, जो तिरस्कृत है, उसको सम्मानित करता है, उसका नाम कबीर है, वह उनका दूसरा गुरु है।

तीसरे गुरु महात्मा फुले थे। भारतीय परंपरा में विराजे जो व्यर्थ के कर्मकांड हैं, जो व्यर्थ की मान्यताएं, पाखंड और झूठ हैं, जो ढोंग है, शास्त्रों की गलत व्याख्या है, उसके विरुद्ध मोर्चा उन्होंने भी लिया। महात्मा फुले ने बगावत का बिगुल बजाया। लोगों ने विरोध किया, लेकिन फुले डटे रहे।

ये तीनों गुरु एक दृष्टि देते हैं, एक दर्शन देते हैं, जिसके आधार पर आंबेडकर संघर्ष को आगे बढ़ाते हैं। आंबेडकर के सारे संघर्ष में जो आत्मतत्व है वह बुद्ध, कबीर और महात्मा फुले से आता है। बुद्ध, कबीर और फुले को समझे बिना, आंबेडकर को समझना अधूरा रह जाएगा।

आंबेडकर का व्यक्तित्व बड़ा क्रांतिकारी है। वे बोलते हैं कि ‘मैं किसी भी प्रकार की हीरोवर्शिप (नायकपूजा) में विश्वास नहीं रखता, व्यक्तियों की पूजा मत करो।’ इसलिए अपना जन्मदिन मनाने वाले लोगों को मना करते हैं कि मेरा जन्मदिन मनाने क्यों आते हो तुम लोग, भगा देते हैं, भाग जाओ यहां से। आंबेडकर जी अपने उन मित्रों को बोलते हैं कि ‘तुम विगत पन्द्रह वर्षों से मेरा जन्म दिवस मना रहे हो किन्तु मैं कभी भी उनमें सम्मिलित नहीं हुआ हूं। मैंने सदैव इनका विरोध ही किया है। आप लोगों ने मेरे जन्म दिन की स्वर्ण जयंती मनाई है। अब ऐसा कोई उत्सव मनाने की आवश्यकता नहीं है।’ अपने लिए प्रतिष्ठा मांगने वाले, प्रतिष्ठा चाहने वाले ऐसे व्यक्ति वह नहीं थे।

वे कहते हैं कि ‘बड़े-बड़े नेताओं से,बड़ी पार्टी से, बड़े चुनावी उद्धारकों से, तुम्हारा उद्धार होने वाला नहीं है। अपना उद्धार स्वयं करने का प्रयत्न करो, अध्ययन करो, संगठित हो जाओ, आचरण ठीक रखो, जीवन में सुधार लाओ, किसी के भरोसे मत रहो। कोई दूसरा व्यक्ति आकर तुम्हारा उद्धार करने वाला नहीं है’ मैं तुम्हारे उद्धार के लिए किसी एक व्यक्ति के ऊपर तुमको आश्रित कर देना नहीं चाहता हूं। अपने प्रयत्नों से, अपने सामर्थ्य से, अपनी जिजीविषा से अपना उद्धार करने का प्रयत्न करो।’ अपने को प्रतिष्ठित करना, महिमामंडित करना, अखबारों में फोटो निकलवाना, इससे वे बहुत दूर थे। यह उनका एक व्यक्तित्व है।

बहुत बार लोग कहते हैं कि आंबेडकर जी स्वतंत्रता के आंदोलन में कहां थे? वे कहते थे कि ‘इस देश की आजादी आनी चाहिए, जितना आप चाहते हैं, उतना ही मैं भी चाहता हूं, लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न है कि देश की आजादी आएगी तो मेरी और मेरे मित्रों और बंधुओं की आजादी आएगी या नहीं या वे वैसे ही गुलाम बने रहेंगे।’ वे कांग्रेस के नेताओं से पूछते थे कि ‘क्या आप मुझे विश्वास दिला सकते हो कि आजादी आने के बाद मेरे इन बंधुओं की भी आजादी आ जाएगी, क्या वे स्वतंत्र होंगे’?

26 अप्रैल, 1942 को बंबई में, उन्होंने कांग्रेस के नेताओं को कहा कि ‘मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आजादी के लिए तुम जैसे लड़ रहे हो, आपसे ज्यादा ताकत से मैं लडूंगा, लेकिन मुझको भरोसा तो दिलाओ कि स्वराज में मेरे समाज की क्या भागीदारी होगी’? वे कहते थे कि ‘मुझ को विश्वास तो दिलाओ कि तुम मेरे बंधुओं को स्वतंत्र कर दोगे, अगर नहीं करोगे तो मैं क्या करूंगा स्वराज का? मैं देश की आजादी चाहता हूं, लेकिन साथ-साथ मेरे इन बंधुओं की भी आजादी चाहिए।’

वे बड़े अर्थशास्त्री थे, लेकिन दुर्भाग्य कैसा है कि देश का कोई विश्वविद्यालय उनके आर्थिक सिद्धांतों पर शोध नहीं कराता है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने एमए किया, वहीं से उन्होंने पीएचडी की। लंदन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से उन्होंने एमएमसी किया, वहीं से उन्होंने डीएससी किया। ये सारी उपाधियां उनकी अर्थशास्त्र की हैं।

भारत के गांवों में कैसे जोत छोटी से छोटी होती चली जा रही है, खेती की जमीन बहुत छोटी होती चली जा रही है और वह बिखर जाती है। स्माल होल्डिंग से इस देश का इकोनॉमिक डेवलपमेंट संभव नहीं है। वे सौ वर्ष पहले बता रहे हैं कि इस देश का इंडस्ट्रिलाइजेशन जल्दी से करो। कृषि पर दबाव बहुत ज्यादा है। 80, 85 से 90 प्रतिशत आदमी कृषि पर आधारित हैं। कृषि की समस्या, गांव की समस्या का एक मात्र समाधान भारत का औद्योगिकीकरण है। उन्होंने 1920 के दशक में कहा कि ‘इंडस्ट्रिलाइजेशन आफ इंडिया इज दी साउंडेस्ट रेमेडी फॉर एग्रीकल्चर प्रॉबल्म्स आफ इंडिया’ सारे किसान, यूरोप और अमरीका में खेती छोड़कर उद्योग धंधों में लग गये और हम लोग सारे उद्योग धंधे बंद करके, खेती में लगे हुए हैं। 80-85 प्रतिशत आदमी खेती से ही अपना विकास चाहते हैं। उनके सारे सिद्धांत और सारे शोधप्रबंध कहां हैं? उन पर अच्छा शोध होना चाहिए था, लेकिन सौ वर्ष बाद भी इसकी कोई संभावना नहीं दिखती है।

उन्होंने वंचित लोगों को सच का मंच दिया, मूक लोगों को वाणी दी, जैसा कि ‘मूकनायक’ नाम के उनके समाचार पत्र से हम जानते हैं। एक अस्तित्व दिया, आधार दिया, उनमें आत्मविश्वास पैदा किया। बहुत संक्षेप में उन्होंने अधिकारों के लिए लोगों को जागरूक किया, संगठित किया, अनुशासित किया, संघर्ष के लिए तैयार किया। लोगों को स्वाभिमानी बनाया, शिक्षित होने का आह्वान किया, अपने अधिकार लेने के लिए लोगों को एकत्रित किया और कई आंदोलन सफल किए।

महाड का सत्याग्रह हमलोग जानते हैं। तालाब में पानी पीने की अनुमति कानूनन है, लेकिन पानी नहीं पी सकते। मुसलमान, ईसाई पानी पी सकते हैं, सवर्ण पी सकते हैं, लेकिन जो अस्पृश्य कहे जाते हैं, वे नहीं पी सकते हैं। उन्होंने आंदोलन किया, पानी पिया। वहां के जो रूढ़िवादी लोग थे, उन्होंने पंचगव्य डालकर, उस तालाब को शुद्ध किया। जो लोग आए थे, उनके साथ मारपीट कर डाली। आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘देखो हम अगर मुसलमान हो जाते हैं, तो इसी तालाब से पानी पियेंगे, तब आप हमको नहीं रोकेंगे, हम ईसाई हो जाते हैं, तब आप हमको इसी तालाब से पानी पीने देंगे, आप हमें नहीं रोकेंगे।

हम हिन्दू हैं, हिंदू रहना चाहते हैं, इसलिए आप हमें पानी नहीं पीने देना चाहते हैं। हमें क्यों पानी पीने नहीं देते हैं? ऐसा ही सत्याग्रह उन्होंने नाशिक के राममंदिर में प्रवेश के लिए किया। हम हिंदू हैं। हम मंदिर में दर्शन करने के लिए जाना चाहते हैं, लोगों ने विरोध किया, मारपीट की। वे कहते हैं कि ‘यह जो अस्पृश्यता है, हिंदू समाज के ऊपर और हिंदू धर्म के ऊपर लगा हुआ एक कलंक है, इसे हम दूर करेंगे’। वे संघर्ष करते हैं तो आंबेडकर जी का स्वर बदल जाता है। आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘यह हिंदू धर्म के ऊ पर लगा हुआ कलंक नहीं है, यह कलंक हमारी देह पर लगा है।’ अर्थात् जो अस्पृश्य हैं, उनके शरीर पर लगा कलंक है। इसे दूर करने की जिम्मेदारी उन लोगों की नहीं है, जो अपने आपको सवर्ण कहते हैं, यह जिम्मेदारी हमारी है, हम स्वयं इसको दूर करेंगे। अब हमलोग स्वयं इस संघर्ष को अलग प्रकार से चलाएंगे। याचना का स्वर बंद हो गया।

हम कहते हैं कि उनके जीवन में कई चरण अलग-अलग प्रकार के हैं। कभी ऐसा लगता है, वह कहते हैं कि ‘गीता मेरे सत्याग्रह करने की प्रेरणा का स्रोत है। गीता मुझे सत्याग्रह करने के लिए आह्वान करती है।’ अपने अखबार के ऊपर ‘जय भवानी’ लिखते हैं, अपने आपको हिंदू कहने में गौरवान्वित होते हैं। सैकड़ों लोगों का यज्ञोपवीत करवाते हैं। आगे चलकर उनका स्वर बदल गया है। उन्होंने कहा कि हिंदू समाज हमें सम्मानित करता ही नहीं, हम क्या करें? वे यह कहते हैं कि हम आपस में सुधार लाएंगे। सामाजिक सुधार, राजनीतिक सुधार और आर्थिक सुधार, इन तीनों के लिए संघर्ष का आयाम बदला।

वे परिवर्तन का आधार धर्म मानते हैं, समाज सुधार का आधार भी धर्म है। धर्म के प्रति नवयुवकों को उदासीन देखकर उनके मन को दुख होता है। वे कहते हैं कि ‘धर्म आशा देता है, धर्म विश्वास देता है। धर्म समाज में मान्यताओं को स्थापित करता है। धर्म का अर्थ है परमार्थ का चिंतन करना, धर्म का अर्थ है अपना पेट भरने के साथ-साथ दूसरे के पेट की भी चिंता करना। अपना पेट भरने का काम भिखमंगे भी कर लेते हैं। धार्मिक लोग सभी की चिंता करते हुए आगे बढ़ते हैं। समाज के कल्याण की भावना धर्म के अंदर निहित है।’ इसलिए वे मार्क्सवादियों के विरुद्ध हैं। वे कहते हैं कि ‘मार्क्सवादी धर्म को अफीम मानते हैं। इनको मक्खन और टोस्ट मिला, मुर्गे की टांग मिली, वे प्रसन्न हो जाते हैं। मैं इनके मत का समर्थन नहीं करता हूं। इसलिए मौलिक सिद्धांत बचाकर, रखकर, इस समाज में परिवर्तन लाना है।’ लेकिन साथ ही साथ बोलते हैं ‘धर्म के नाम पर जो ढोंग है, धर्म के नाम पर जो पाखंड है, यह धर्म का मजाक है। मैं इसको मानने के लिए तैयार नहीं हूं।’

वे कहते हैं कि ‘द्वेष और वैमनस्य, कभी भी सुधार के आधार नहीं बन सकते। सुधार का आधार इस देश में केवल और केवल धर्म बनेगा।’ वे कहते हैं कि राजनीतिक सुधारों से ज्यादा महत्वपूर्ण है सामाजिक सुधार। राजनीतिक सुधार आप कर देंगे, संविधान का अधिकार दे देंगे, तब भी उनका पालन कौन करेगा? अगर पालन करने वाली आत्मिक भावनाएं समाज में नहीं होंगी, समाज उसे मान और सम्मान नहीं देगा, तो सुधार केवल कागजों में रह जाएंगे।’

वे यह भी कहते हैं ‘कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हमें तीनों प्रकार की आजादी चाहिए और किसी एक के अभाव में आजादी अपूर्ण रह जाएगी।’ वे सावधान करते हैं कि देश स्वतंत्र तो हो रहा है, लेकिन करोड़ों लोगों का क्या होगा? उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति कैसी है? अगर आर्थिक विपन्नता बनी रही तो राजनीतिक स्वतंत्रता का लंबे समय तक कोई अर्थ नहीं रहेगा।

अस्पृश्यता के बारे में उनका एक मत है। वे कहते हैं कि इस देश में अस्पृश्यता कभी थी ही नहीं। दो हजार साल पहले अस्पृश्यता शब्द इस देश के किसी भी शास्त्र में नहीं है, न वेद में है, न उपनिषद् में है, न ब्राह्मण ग्रंथों में है, न आरण्यक में न गीता में है। यह कहां से आया, कैसे आया? वे बताते हैं कि मुश्किल से बारह, तेरह सौ वर्ष पहले से अस्पृश्यता आई है।

आंबेडकर कहते हैं कि गाय के मांस का भक्षण इस देश में जब अक्षम्य अपराध हो गया तब से अस्पृश्यता आई। सबसे पहला अस्पृश्यता का जो उदाहरण है, वह दाहिर के परिवार में आया। दाहिर हार गया और दाहिर के महल में येआक्रमणकारी मुसलमान लोग घुसे, तो दाहिर के परिवार की महिलाएं बोलती हैं कि वे आ रहे हैं, म्लेच्छ हैं, हमें स्पर्श करेंगे, हम तो अपवित्र हो जाएंगे। उनके स्पर्श करने के पहले अपने को मर जाना चाहिए। इसलिए अग्नि तैयार करो। यह जो अस्पृश्य शब्द महिलाएं बोलती हैं, भारतीय इतिहास में वह पहला उदाहरण है।

उन्होंने कम्युनिस्टों के बारे में बहुत कुछ बोला है। 1937 में मैसूर के एक दलित वर्ग के सम्मेलन में वे बोल रहे थे कि ‘मैं कम्युनिस्टों से मिल जाऊंगा, ऐसा कुछ लोग बोलते हैं, इसकी जरा भी संभावना नहीं है। अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करने वाले कम्युनिस्टों का मैं कट्टर दुश्मन हूं।’

‘मनुष्य केवल रोटी पर जिंदा नहीं रहता। उसके पास मन है। उस मन को विचार की खाद चाहिए। धर्म मनुष्य के मन में आशा का संचार करता है। उसे काम करने के लिए प्रवृत्त करता है, लेकिन मार्क्सवादी लोग धर्म को अफीम मानते हैं’, जो कम्युनिस्ट वर्ग आज आंबेडकर का चित्र लगाकर कहते हैं कि वे वर्ग संघर्ष के पुरोधा थे, यह बात कैसे मानी जाए? वर्ष 1942 से 1946 तक आंबेडकर वायसराय कांऊसिल में लेबर मिनिस्टर रहे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मजदूरों की सुरक्षा नीति तैयार कराई। वे पहले मंत्री थे, जिन्होंने लेबर पॉलिसी तैयार कराई। श्रमिक, मालिक और सरकार तीनों अलग-अलग नहीं हैं, मिलकर बैठो, मजदूरों का हित, उद्योग का हित और सारे समाज का हित अलग-अलग नहीं है, विरोधाभासी नहीं है, तीनों मिलकर कार्य करें। त्रिपक्षीय वार्ता तब से शुरू हुई। मजदूरों के लिए उन्होंने कानून बनाए। उद्योगों से जुड़े हुए झगड़ों के निपटारे के लिए उन्होंने समितियां बनाईं।

मिनिमम वेजेज, फैक्ट्री एक्ट, प्रोविडेंट फंड, ओवर टाइम के लिए एक्सट्रा पेंमेंट, सब्सिडाइज्ड फूड, फैक्ट्री के अंदर कैंटीन, फैक्ट्री के अंदर मेडिकल ऐड ये सारे प्रावधान श्रम क्षेत्र में लाने वाले आंबेडकर ही थे। चीफ लेबर कमिश्नर, प्रोविंशियल लेबर कमिश्नर, लेबर इंस्पेक्टर्स, ये नियुक्तियां करवाने वाले डाक्टर साहेब ही थे। मैटरनिटी लीव मिले, इसके लिए डाक्टर साहेब ने बम्बई की एसेम्बली में जमकर संघर्ष किया। महिलाओं को पूरी मैटरनिटी लीव चाहिए।

वे संविधान सभा में गांधीजी के कारण आए। गांधीजी के साथ उनका विवाद भी चलता रहता था, लेकिन जब देश का संविधान बनने को आया और गांधी जी ने वल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू को बुलाकर पूछा कि किसको काम सौंप रहे हैं आप लोग, तो जवाहर लाल नेहरू जी ने कहा कि हम जर्मनी के ख्याति प्राप्त संविधानविद् सर ज्योर जेरी को बुला रहे हैं। गांधीजी ने कहा, इतना बड़ा देश है, दुनिया क्या कहेगी कि इस देश में कोई संविधान बनाने वाला नहीं है। तब गांधी जी ने कहा कि डॉ. आंबेडकर को दो न, वह बहुत विद्वान व्यक्ति हैं, उनको यह काम दे दो।

हम जानते हैं कि वे संविधान सभा में आए, ड्राफ्टिंग कमेटी में आए, चेयरमैन बने, संविधान बना, उनके अंतिम भाषण का एक पैराग्राफ आपके सामने रखता हूं। हमको यह भी ध्यान में आएगा कि इन सारी विपरीत परिस्थितियों में भी उनका मन कितना उदार, कितना बड़ा है, चिंतन समाज को जोड़ने वाला है, वे कृतज्ञता से भरे हैं। वे बोलते हैं कि ‘मैं संविधान सभा में आया, तो अपने जो पिछड़े बंधु हैं (अर्थात् जो अस्पृश्य बंधु हैं), उनके हितों के संरक्षण का ध्यान एकमात्र ध्यान था। मुझको सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि मैं ड्राफ्टिंग कमेटी में आऊंगा। मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही, जब मुझे इसका अध्यक्ष बनाया, जबकि मुझसे अधिक योग्य, अधिक क्षमतावान लोग यहां पर थे।

वे रेडियो पर अपना एक भाषण 1954 में दे रहे थे। संविधान बन चुका था। वे मजाक करते थे, थोड़ा सा व्यंग्य भी है, लेकिन कहीं मन में वेदना भी है। ‘हिन्दुओं को जब वेद चाहिए थे तो उन्होंने एक निम्नवर्णीय व्यास को यह कार्य सौंपा। वेदों के संपादन का कार्य वेदव्यास ने किया था। हिन्दुओं को जब महाकाव्य रामायण चाहिए थी, तो उन्होंने वाल्मीकि को याद किया और वाल्मीकि से रामायण लिखवाई। हिन्दुओं को राज्य का संविधान चाहिए था तो उन्होंने मुझको बुला लिया।’

25 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में अंतिम भाषण में, संविधान सफल होगा या संविधान फेल हो जाएगा- इस सवाल पर आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह कैसे लोगों के हाथ में रहेगा। संविधान कोई भी अच्छा या बुरा नहीं होता। बुरे से बुरे लोग होंगे, लेकिन यदि अच्छे से अच्छा संविधान होगा, तो उसको भी वे असफल कर देंगे। इसलिए संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों मिलकर अच्छे लोगों का सहारा लेकर, संविधान को सफल करेंगे, यह उन्हीं पर निर्भर करेगा। व्यक्ति अच्छे होने चाहिए।’ वे बोलते हैं कि ‘यदि राजनीतिक दल, दलों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में राष्ट्र की महत्वाकांक्षाओं को छोड़ देंगे। तो क्या यह सफल होगा, कुछ सफल नहीं होगा।’ वे बोलते हैं कि ‘26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र हो जाएगा। लेकिन क्या हम पहले स्वतंत्र नहीं थे, क्या यह स्वतंत्रता स्थिर और स्थायी रहेगी? हम क्यों गुलाम हुए?’ वे बोलते हैं कि ‘मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हुआ, तो यहां का सेनापति वहां जाकर मिल गया, मोहम्मद गोरी का आक्रमण हुआ तो जयचंद वहां जाकर मुगलों से मिल गया। ब्रिटिश लोग लड़ रहे थे, सिख राज्य को समाप्त कर रहे थे, गुलाब सिंह शांत बैठा था। 1857 में जब देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था, तब कई लोग शांत बैठे थे। यह विचार मुझको व्यग्र कर देता है, क्या हम अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखेंगे?’ इस देश के बारे में वे कितने चिंतित है? स्वतंत्रता तो आ रही है, हमारा संविधान भी आ रहा है। इस देश के लोग कैसा व्यवहार करेंगे, क्या देश के लोग देशभक्त रहेंगे या नहीं – उनकी चिंता का सबसे बड़ा प्रश्न यह है।

भाषा के आधार पर जब प्रांत रचना प्रारंभ होने को आई, तो आंबेडकर ने कहा ‘मैं नहीं समझता, एक ही भाषाभाषी सब मिलकर एक राज्य में आने चाहिए, इसकी क्या आवश्यकता है, सारे भाषाभाषियों को बुलाकर एक राज्य में उनको इकट्ठा कर देने का क्या मतलब है? इसलिए सारे तेलुगू वाले एक तेलुगू राज्य में, सारे मराठी बोलने वाले एक मराठी राज्य में, सारे हिन्दी बोलने वालों को एक बड़ा प्रांत, यह आवश्यकता मैं नहीं समझता। एक भाषाभाषी का एक प्रांत या एक प्रांत की एक भाषा, इन दोनों में अंतर है।’ वे कहते हैं कि ‘एक भाषा भाषियों को एकत्रित करके एक प्रांत में ला देना, यह मेरी समझ के बाहर है। राजनीतिक रचना प्रशासनिक आधार पर होनी चाहिए और सारे देश के लिए एक केन्द्रीय राजभाषा बननी चाहिए, जो सबके लिए अनिवार्य हो।’ वे कहते थे कि ‘मैं हिन्दी भाषी नहीं हूं। किन्तु हिन्दी को सभी प्रांत स्वीकार करें और अपने-अपने प्रांतों में हिन्दी पढ़ाएं, तभी इस देश को हम ठीक प्रकार से एकात्म और बड़ा करके रख सकते हैं।’

वे विदेश नीति पर बोलते हैं, ‘15 अगस्त,1947 को जब हम स्वतंत्र हुए, हमारा कोई दुश्मन नहीं था। आज 1948-49 में क्या हो गया? जब कश्मीर का मुद्दा लेकर संयुक्त राष्टÑ संघ में भारत गया, तो भारत का समर्थन करने वाला कोई भी देश वहां नहीं मिला।’ तिब्बत पर जब चीन का आक्रमण हुआ, तो आंबेडकर जी ने कहा, ‘यह क्या हो रहा है? हमारे प्रधानमंत्री क्या कर रहे हैं? भविष्य में चीन की सीमा हमारी सीमा से लग जाएगी, क्या यह खतरा उनको नहीं दिखता है? चीन हमारे दरवाजे पर आ रहा है, नेहरू जी सपनों की दुनिया में रह रहे हैं। हम अपनी रक्षा नहीं कर सकते।’

संविधान के अनुच्छेद 370 पर शेख अब्दुल्ला से उनकी बातचीत हुई। शेख अब्दुल्ला से बोलते हैं, ‘आप मेरे साथ हैं, भारत कश्मीर की रक्षा करेगा। कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार होंगे। परन्तु आप भारत और भारतीयों को कश्मीर में पूरे अधिकार नहीं देना चाहते? मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस प्रकार की धोखाधड़ी और विश्वासघात में शामिल नहीं हो सकता।’ 370 के ऊपर उनका यह मत क्या आज के राजनीतिक नेताओं को और सभी दलों को मालूम है?

उन्होंने कहा कि यह कहना कि ‘आर्य लोग बाहर से आए, यह मूलत: गलत सिद्धान्त है। कायरतापूर्ण नीति है। जिस प्रकार से अमरीका में यूरोप के लोग पहुंच गए और वहां के स्थानीय लोगों को मारकर भगाया, जैसा कनाडा में बाहर के लोग गए, आस्ट्रेलिया में गए, ऐसे ही वे यहां स्थापित करना चाहते हैं कि आर्य लोग बाहर से आए, स्थानीय लोगों को मारकर भगाया और उसमें से दलित लोग पैदा हो गए, यह गलत है।’

आज के समाजशास्त्री, राजनीतिक क्षेत्र के लोग उनके इस सिद्धान्त को नहीं बोलते हैं, वे चुप्पी साधे हुए हैं। आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘यह कल्पना ही गलत बनाई गई थी और इसे स्थापित करने के स्रोत ढूंढे गए। आर्य कोई नस्ल नहीं थी। आंबेडकर लिखते हैं कि ऋग्वेद में 33 बार आर्य शब्द का प्रयोग आया है, एक स्थान पर भी वह नस्ल के रूप में नहीं है। सभी स्थानों पर उसका अर्थ गुणवाचक है।’

आंबेडकर जी ने कहा ‘शूद्र लोग जो भारत में हैं, वे सब आर्य हैं और शूद्र भी क्षत्रिय हैं। ऋग्वेद के नौ मंडल में कहीं भी शूद्र शब्द नहीं है। दशम मंडल में बाद में जोड़ा है। उसके बाद ही शूद्र शब्द आया है।’ वे कहते हैं कि ‘शूद्र आर्य थे और शूद्र क्षत्रिय वर्ग में थे। राजा वेन, राजा पुरुखा, राजा नहुष, राजा निमि और राजा सुदास के ब्राह्मणों के साथ संघर्ष हुए। ब्राह्मणों पर इन्होंने अत्याचार किए। इतने अत्याचार हुए कि ब्राह्मण लोग कराह उठे। इस प्रतिशोध का बदला कैसे लिया जाए, इन्होंने उन क्षत्रियों का यज्ञोपवीत कराना बंद कर दिया। यह दण्ड पर्याप्त था।’ आंबेडकर बोलते हैं कि ‘क्षत्रियों का एक वर्ग, जिसका यज्ञोपवीत नहीं हो सका वे धीरे-धीरे शिक्षा के क्षेत्र से भी वंचित हो गए। वे पूजा, यज्ञ, कर्मकांड से दूर हो गए, वे संपत्ति के अधिकार से दूर हो गए। उपनयन पहनना या न पहनना, यह महत्व की बात नहीं थी, महत्व की बात थी, उपनयन पहनने का अधिकार रखना या नहीं रखना। इनको अधिकार ही नहीं था। धीरे-धीरे सामाजिक परिस्थिति में गिरते चले गए। आज जो शूद्र हैं, वे सब पुराने क्षत्रिय हैं। उनके कुल और वंश एक ही हैं।’

वे लिखते हैं कि ‘शूद्र आर्य थे, शूद्र सूर्यवंशी थे, शूद्रों की गणना क्षत्रियों में होती थी, कुल तीन ही वर्ण थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। एक बार जिसको यज्ञोपवीत से वंचित कर दिया, उसका यज्ञोपवीत कराने के लिए कोई सामने नहीं आता था।’ जब तय हुआ कि शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक होगा। तब कुछ लोगों ने प्रश्न खड़ा कर दिया कि शिवाजी महाराज क्षत्रिय नहीं हैं, इनका राज्याभिषेक कैसे होगा? समर्थ गुरु रामदास ने काशी से एक पंडित गंगाभट्ट को बुलाया, गंगाभट्ट ने एक वंशावली निर्माण की। उस वंशावली में गंगाभट्ट ने पक्का किया कि शिवाजी महाराज कुछ पीढ़ी पहले राजस्थान से आए एक क्षत्रिय हैं। उनका यज्ञोपवीत हो सकता है। शिवाजी का राज्याभिषेक होने के पहले यज्ञोपवीत हुआ, उसके पहले उनके दो विवाह हो चुके थे। उनके दो पुत्र भी थे, राजाराम और सम्भाजी। शिवाजी का यज्ञोपवीत हुआ, उसके बाद लोगों ने आख्या दी कि अब शिवाजी का पुनर्विवाह होगा। अपनी ही पुरानी पत्नियों और बच्चों के सामने बैठकर शिवाजी का फिर विवाह हुआ। इसके बाद राज्याभिषेक हुआ। हम यह कह सकते हैं कि एक परम्परा जब आ जाती है तो कितनी गहरी जड़ जमाती है।

आंबेडकर जी बताते हैं कि ‘पंजाब में जो अस्पृश्य कहे जाते हैं, चूहड़ और संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) के ब्राह्मण, उनका जो नेजल इंडेक्स है, वह बराबर है। बिहार में जो चमार, अस्पृश्य हैं और बिहार के ब्राह्मणों का नेजल इंडेक्स बराबर है। कर्नाटक के अस्पृश्य और वहां के ब्राह्मणों का नेजल इंडेक्स बराबर है। तमिलनाडु के चेरमल और वहां के ब्राह्मण, आयंगार और अय्यर का नेजल इंडेक्स बराबर है। वे बताते हैं चाहे बिहार हो या पंजाब हो, महाराष्ट्र हो, तमिलनाडु हो वहां के रहने वाले अस्पृश्य और तथाकथित सवर्ण एक ही नेजल इंडेक्स के हैं।’ बड़े-बड़े नृ-विज्ञानियों का मानना है कि इन सब जातियों के गोत्र तो एक ही हैं। जो गोत्र अस्पृश्यों के हैं, वही गोत्र वहां के ब्राह्मणों के हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इन सबके पूर्वज कहीं न कहीं एक ही हैं। भारत में जो मुस्लिम समस्या है, एक बड़ी समस्या है। उसके ऊपर एक मोटा शोध ग्रन्थ उन्होंने लिखा है। इसका समाधान कैसे होगा, हमारे मित्रों को उसका अध्ययन करना चाहिए। वे कहते हैं कि ‘कांग्रेस जिस तरह से (मुसलमानों की) सारी मांगों को मानती चली जाती है, उससे वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेगी। ऐसी मांगों को मानते जाने से कोई भी समझौता या समानता का व्यवहार कभी हो नहीं सकेगा।

वे कहते हैं कि जब साइमन कमीशन भारत में आया, तब मुस्लिम लीग ने यह मांग की कि बॉम्बे प्रेसीडेंसी से सिंध को अलग कर दो। आंबेडकर कहते हैं कि इस मांग की क्या जरूरत थी? बॉम्बे प्रेसीडेंसी में से सिंध को अलग क्यों करना? कुछ जिलों में मुसलमान बहुसंख्यक थे, यह सच बात है। लेकिन जहां बहुसंख्यक हैं, उसको अलग राज्य बना देना, यह आवश्यक है क्या?’ आंबेडकर जी ने उस समय अपनी एक अलग रपट दी। बॉम्बे प्रेसीडेंसी के आंबेडकर जी भी सदस्य थे। आंबेडकर जी ने कांग्रेस की इस राय का विरोध किया। बाद में सिंध प्रांत अलग बना और कम्युनल अवार्ड आया, 1932 में, आंबेडकर जी ने दोनों बातों को जमकर विरोध किया। आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘मौलाना आजाद कांग्रेस के बड़े राष्टÑवादी नेता हैं, लेकिन वे बोल क्या रहे हैं? उन्होंने कहा है, ‘हिन्दुओं के पास नौ प्रांत हैं, जहां वे बहुसंख्यक हैं, सिध एक नया प्रांत बनने से अब मुसलमानों के पास पांच प्रांत होंगे जहां वह बहुसंख्यक होंगे। अगर हिन्दू लोग कुछ करते हैं, तुम लोग यहां बदला ले सकते हो।’ आंबेडकर जी कहते हैं कि ‘क्या यह आप लोगों को राष्ट्रवादी लोगों की भाषा प्रतीत होती है?’ वे आगे बोल हैं, ‘कम्युनल अवार्ड में जो परसेंटेज मुसलमानों को हिन्दू प्रांतों में दिया गया है अल्पसंख्यक मानकर, क्या वही हिस्सा हिन्दुओं को उन मुस्लिम प्रांतों में दिया जाएगा, जहां हिन्दू अल्पसंख्यक हैं? जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उनकी सीटें बढ़ाई हैं, तो जहां हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, उनकी सीट आप लोग क्यों नहीं बढ़ाते हैं’? आंबेडकर जी ने कहा ये ‘पृथक मतदाता मंडल इसका मतलब है, कि हमेशा के लिए अलगाव हो जाएगा। इसलिए मुसलमानों को सीट आरक्षण ठीक है, लेकिन उनके चुनाव संवर्ग को अलग कर देना, एक भयंकर बीमारी है, जो कभी नहीं रुकेगी।’

डॉ़ आंबेडकर कहते हैं, कौन से मुद्दे ऐसे हैं, जहां एकता हो सकती है, वे कहते हैं ‘सन् 711 से लेकर जो इतिहास है, वह युद्ध का, आक्रमण का और क्रूरतम घटनाओं का है।’ वे कहते हैं कि मुसलमानों में अनेक आक्रमणकारी थे, जिन्होंने भारत पर आक्रमण किए। उनका सम्मिलित उद्देश्य केवल एक था, हिन्दू धर्म का विनाश।’ वे कहते हैं ‘ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक और सामाजिक विरोध मिलकर एक गहरी राजनीतिक विरोध की नदी खड़ी कर देते हैं। जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते हैं, वे इस बात को ध्यान में रखें कि इस विरोध के कारण ऐतिहासिक हैं, धार्मिक हैं, सांस्कृतिक हैं, सामाजिक हैं, जो राजनीतिक विरोध दिख रहा है, वह ऊपर का है, सब मिलाकर इतनी गहरी खाई खड़ी हो जाती है, जिसको पाटना इतना आसान काम नहीं है।  मौलाना मोहम्मद अली अपने आपको सच्चा मुसलमान मानते हैं। जो सच्चा मुसलमान अपने को मानता है, वह भारत में अपने को दफनाने से मना कर देता है। येरुशलम में जमीन मांगकर उसको दफनाने के लिए ले जाया जाता है।’ आंबेडकर लिखते हैं कि क्या सच्चा मुसलमान भारत को अपनी मातृभूमि मानेगा।’ मान लो अगर अफगानिस्तान आक्रमण करता है तो भारत के मुसलमान कहां जाएंगे? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। पहले अफगानिस्तान के आक्रमण के समय यहां के मुसलमानों का व्यवहार कैसा रहा है, क्या हम उसे भूल जाएं?’ वे आगे बोलते हैं, ‘अगर विभाजन आवश्यक और अटल है। तो एक बार सारी जनसंख्या की अदला-बदली कर दो, हमेशा के लिए इस समस्या का समाधान हो। मैं मुस्लिम भारत और गैर मुस्लिम भारत में विश्वास करता हूं। यूरोप ने इस समस्या से समाधान पाया है। मिस्र, बल्गेरिया सहित आठ देशों ने अपने अल्पसंख्यकों की पूर्ण अदला- बदली की और इस समस्या से वे बाहर आए।’ हैदराबाद में अनुसूचित वर्ग के जो लोग रह रहे थे, उनको उन्होंने चेतावनी दी।

उन्होंने सरकार को भी कहा, ‘विभाजन से पहले लोगों की सुरक्षा की गांरटी तो लो। क्या होगा उसके बाद?’ हैदराबाद में बड़ी संख्या में लोग रह गए, उन लोगों पर खतरा था। इत्तेहादे मुसलमीन उन्हें मुसलमान बना रही थी। वे असहाय थे। आंबेडकर जी ने पत्र उन लोगों को भेजा और कहा कि ‘तुम किसी भी तरीके से भारत में आ जाओ, मैं हिन्दू शास्त्रों की उन बातों को नहीं मानता, एक बार हिन्दू धर्म से गया, हमेशा के लिए चला गया, मैं तुम्हें शुद्ध करके फिर से हिन्दू बनाऊंगा, तुम भारत में आ जाओ।’ यह आंबेडकर का वक्तव्य है, हैदराबाद के अपने अनुसूचित वर्ग के लोगों के लिए। हम देखते हैं कि उन्होंने संकल्प लिया था, मैं हिन्दू समाज को एक झटका जरूर दूंगा। एक शॉक ट्रीटमेंट जरूरी है। 1935 में उन्होंने कहा, मैं जन्मा तो हिन्दू था, मरूंगा नहीं।

21 साल तक धैर्य से उन्होंने हिन्दू समाज को प्रतीक्षा के लिए समय दिया। हिन्दू समाज को ब्रेक दिया, कहा कि हिन्दू समाज अच्छा सकारात्मक उत्तर देगा। 21 साल प्रतीक्षा करने के बाद 1956 में उनको लगने लगा कि मेरा जीवन अब लंबा नहीं हैं। गांधी जी को उन्होंने वचन दिया था, मैं कम से कम हानि करूंगा। देश का अधिक से अधिक हित हो, वही रास्ता अपनाऊंगा। इस कारण उन्होंने बौद्ध मत अपनाया। 1935 से लेकर 1956 तक उन्होंने प्रतीक्षा की कि हिन्दू समाज क्या प्रतिक्रिया करता हैं, हिन्दू समाज उदार मन को दिखाता है या नहीं। अंत में वे बौद्ध बने। उनके पास पोप के प्रतिनिधि आए, निजाम के लोग भी आए। सबको मना किया। मैं यदि ईसाइयत में गया या इस्लाम स्वीकार किया तो यह देश एक बड़े खतरे में चला जाएगा। इसलिए मैं उसी रास्ते को अपना रहा हूं, जिससे इस देश के मौलिक तत्व-ज्ञान के साथ मैं जुड़ा रहूंगा। दलाई लामा बुद्धिस्ट और हिन्दू दोनों को आध्यात्मिक भाई बताते हैं। हम छोटे भाई हैं, भारत का हिन्दू हमारा बड़ा भाई है। उन्होंने वह रास्ता अपनाया, जिससे देश को कम से कम हानि हो।

इस देश की सांस्कृतिक, वैचारिक, दार्शनिक विरासत से वे जुड़े रहे। संक्षेप में अगर कहें तो आंबेडकर का जीवन एक बहुआयामी जीवन है। बहुत सारे विषयों पर उन्होंने बेबाक लिखा है, अध्ययन के साथ लिखा, अनुभव के साथ लिखा। बहुत गरीबी में अस्पृश्यता के अपमानजनक वातावरण में पला और बढ़ा बालक सबसे अच्छी डिग्री प्राप्त करने के बाद भी सम्मान नहीं प्राप्त कर सका। इतनी वेदना में कुछ बातें मन में आ सकती हैं। वह लोगों को खराब लग सकती हैं। उन्होंने ‘रिडल्ज इन हिन्दुइज्म’ पुस्तक भी लिखी, लेकिन प्रकाशित नहीं कराई। उसे उन्होंने जीवन पर्यंत अपनी अलमारी में ही रखे रहने दिया, मरने तक भी उसे नहीं निकाला। वह गुस्से में थी, प्रतिक्रिया में थी। बाद में मन बदल गया। उसमें कई लाइन गायब हैं, नीचे संपादक नोट में लिखा है कि इन पंक्तियों को दीमक खा गई।
उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए।

समाज की परिस्थिति जैसे-जैसे बदली, उनका थोड़ा-थोड़ा मत भी बदला, लेकिन देशभक्ति का भाव, सारे समाज को साथ लेकर चलने का भाव नहीं बदला। यह मौलिक था। इसलिए वे जन्म से लेकर जीवन की अंतिम श्वांस तक भारतीय ही रहे। वे बौद्ध मत में जरूर चले गए। हिन्दू समाज के अंदर जो ढोंग था, पाखण्ड था, कर्मकांड का अतिरेक था,अमानवीय व्यवहार था, इससे उनको गुस्सा था। लेकिन वे मौलिक दर्शन से भारतीय धरती से जुड़े रहे। उनका जीवन बड़ा अशांत था, लेकिन मन सदैव शांत रहा। संघर्षमय जीवन था, लेकिन उनका शत्रु कोई नहीं। ब्राह्मणवाद का उन्होंने विरोध किया, लेकिन ब्राह्मण उनके अच्छे मित्र थे। प्रारंभ में वे रामभक्त दिखते हैं, राम मन्दिर में जाने का प्रयास करते हैं, लेकिन बाद में हिन्दू धर्म में नहीं रहने को भी कहते हैं। वे पृथक मतदाता मंडल का विरोध करते हैं, लेकिन बाद में इसकी मांग भी करते हैं। पूना समझौते के समय गांधी जी को कड़ा बोलते हैं और बोलते हैं कि महात्मा आएंगे, महात्मा जाएंगे, महात्मा कोई अमर नहीं है,लेकिन महात्मा गांधी की मृत्यु पर बहुत दुखी भी हैं। महात्मा गांधी भी उनको संविधान निर्माण करने के लिए बुला लेते हैं।

स्वतंत्रता की लड़ाई में हमको लगता है कि वे दूर खड़े हैं, लेकिन मन से साथ खड़े हैं। वे ‘रिडल्स इन हिन्दुइज्म’ लिखते जरूर हैं, लेकिन छपवाते नहीं हैं। हिन्दू धर्म को छोड़ने की घोषणा करते हैं किन्तु 21 साल तक प्रतीक्षा भी करते हैं। कांग्रेस के घोर विरोधी हैं, लेकिन कांग्रेस के मंत्रिमंडल में भी जाते हैं। हम कह सकते हैं कि एक विराट हृदय लेकर पैदा हुए वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जो इस देश को सौभाग्य से मिले थे। उनका महान जीवन बहुत सारी बातों को लेकर है। प्रारम्भ में बताया कि ऐसे जो विलक्षण लोग होते हैं, उनका एकाध गुण ऐसा होता है जो नियति उनके लिए निश्चित कर देती है। और शेष प्रतिभाएं कुछ छिप जाती हैं।

अंत में मेरी यही प्रार्थना है कि डॉ.आंबेडकर जी को हम सापेक्षता में पढ़ें, समग्रता में अध्ययन करें। वे जिस उद्देश्य पर निकले थे, वह उद्देश्य अभी पूरा नहीं हुआ है। गांव-गांव में क्या व्यवहार होता है, वह स्थिति सबके ध्यान में है। सामाजिक विषमता को, चाहे वह आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनीतिक हो, उसको कैसे शीघ्रातिशीघ्र दूर करें और सारा देश, एकजुटता के साथ खड़ा हो। देश का भविष्य अच्छा हो। देश अपने गौरव को प्राप्त करे। हमारा समाज एक भावना से, एक विचार से, एक आत्मभाव से मिलकर खड़ा हो। जो वैदिक ऋषियों की कल्पना थी, महात्मा बुद्ध की जो मान्यता थी, उसको लेकर हम खड़े हों और विश्व में अपना एक ऊंचा स्थान बनाएं और यही डॉ. आंबेडकर जी की भी इच्छा थी।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)

Topics: Ideologicalरिडल्स इन हिन्दुइज्महिन्दू अल्पसंख्यकदार्शनिक विरासतRiddles in HinduismHindu minorityडॉ. आंबेडकरphilosophical heritageसांस्कृतिकculturalDr. Ambedkarवैचारिक
ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

अभाविप कार्यालय का उद्घाटन करते श्री मोहनराव भागवत

अभाविप के कार्यालय ‘यशवंत परिसर’ का उद्घाटन

प्रतीकात्मक चित्र

मंदिरों पर यह कैसा दंगल!

राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू

‘राष्ट्र सर्वोपरि की भावना का संचार बेहद अनिवार्य’

विजयनगर साम्राज्य के लोकप्रिय शासक थे राजा कृष्णदेव राय

शासन को आंकने की समाज की कसौटियां

कार्यक्रम के मंच पर विराजमान अतिथि

प्रशिक्षण केंद्र का उद्घाटन

हिंदू धर्म, साम्यवाद और कांग्रेस पर डॉ. आंबेडकर के विचार

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

मोहसिन खान हिंदू लड़कियों को कुरान पढ़ने, बीफ खाने के लिए मजबूर करता, जयश्री राम बोलने पर डांटता था आरोपी

उत्तराखंड : रामनगर में मुस्लिम वन गुर्जरों से 15 हेक्टेयर भूमि मुक्त

गुजरात सीमा पर पाकिस्तानी घुसपैठिया ढेर, BSF ने दी जानकारी

गुजरात : पाकिस्तान और ISI के लिए जासूसी कर रहा युवक गिरफ्तार

विकसित भारत के लिए विकसित राज्य जरूरी : प्रधानमंत्री मोदी

पाकिस्तान जिंदाबाद कहने वाला रशीद गिरफ्तार, असम में CM को दी थी मारने की धमकी

उत्तर प्रदेश : सिख से ईसाई बने 500 लोगों ने की घरवापसी, पुन: अपनाया सनातन धर्म

पुस्तक का लोकार्पण करते डॉ. हर्षवर्धन और अन्य अतिथि

कैंसर पर आई नई किताब

जिहादियों के ताबूतों के साथ पाकिस्तान सेना के अनेक कमांडर सिर झुकाए खड़े थे जैसे कोई उनके बहुत सगे वाले हलाक हुए हैं

FATF में फिर गर्त में जाएगा जिन्ना का देश, जिन्ना की जिहाद की नर्सरी के विरुद्ध भारत के कड़े रुख का कितना पड़ेगा असर!

यात्रा में शामिल मातृशक्ति

सेना के सम्मान में, नारी शक्ति मैदान में

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies