बड़ी पुरानी उक्ति है कि भारत गांवों में बसता है, उन गांवों में जहां मुख्य आजीविका है खेती। हमारे देश की अर्थव्यवस्था का आधार भी खेती-किसानी ही है। लेकिन इसके बावजूद, आजादी के इतने वर्ष बाद तक न खेतों की किसी ने सुध ली थी, न किसानों की। 2014 में केन्द्र में बनी राजग सरकार ने एक के बाद एक, अनेक योजनाएं शुरू कीं जिनका सीधा लाभ किसानों को मिलने लगा। हालात धीरे-धीरे ही सही, पर बदलने लगे। वे योजनाएं क्या हैं, किसानों को इनका लाभ किन मायनों में मिल रहा है, कृषि क्षेत्र के लिए भविष्य की क्या योजनाएं हैं, नए कृषि कानूनों को लेकर किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं, इस पर सरकार की क्या सोच है, ऐसे अनेक सवालों पर पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी ने केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से लंबी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उस वार्ता के प्रमुख अंश
* आजादी के बाद 55-60 साल तक किसानों को उनकी स्थितियों में सुधार के कोरे आश्वासन ही मिलते रहे, ठोस कार्य नहीं हुआ। कृषि उपेक्षित रही। इसकी वजह क्या रही? कौन जिम्मेदार है?
हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है। कृषि हमारी अर्थव्यवस्था का प्रमुख हिस्सा है और रोजगार की दृष्टि से भी कृषि क्षेत्र ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इतना महत्वपूर्ण क्षेत्र होने के बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की आजादी के बाद लंबे कालखंड तक तत्कालीन केंद्र सरकारों ने किसानों की दशा-दिशा सुधारने पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। पहले समयबद्ध योजनाएं नहीं बनाई गर्इं, न ही किसानों की आय बढ़ाने की बात सोची गई। देश में सबसे ज्यादा समय शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी की पूर्ववर्ती सरकारों ने निश्चित रूप से कृषि की उपेक्षा की, जिसका नतीजा यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में काफी खामियां आ गर्इं। वर्ष 2014 में श्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता पर रखा और इन खामियों को दूर करने की शुरुआत की। वर्तमान सरकार ने एक के बाद एक, अनेक ठोस कदम उठाए हैं, जिनका किसानों सहित संपूर्ण कृषि क्षेत्र को दीर्घकाल तक लाभ मिलेगा।
* आपकी सरकार के तहत खेती-किसानी में सुधार और किसानों के सीधे हित से जुड़ी कौन-सी योजनाएं हैं? इनसे किसानों के जीवन में क्या बदलाव आया है?
प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में गांव-गरीब-किसान-किसानी पर फोकस रखते हुए देश के कृषि बजट में 5 गुना से ज्यादा की वृद्धि की गई है। वर्ष 2013-14 में कृषि बजट लगभग 27,000 करोड़ रुपए था, जो कि इस वर्ष बढ़कर लगभग सवा लाख करोड़ रुपए हो गया है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के माध्यम से किसानों के खातों में से 1.15 लाख करोड़ रु. की धनराशि हस्तांतरित की जा चुकी है। इस योजना से लगभग 11 करोड़ किसान लाभान्वित हुए हैं। पिछले 4 साल में किसानों द्वारा प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत लगभग 17,500 करोड़ रु. का प्रीमियम भरा गया, जबकि उनके दावों के भुगतान में पांच गुना से ज्यादा राशि यानी 90,463 करोड़ रु. दिए गए हैं। बीते एक साल में लगभग डेढ़ करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) वितरित किए गए व करीब 1.57 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त ऋण किसानों के लिए स्वीकृत किया गया है। इसमें किसानों को 3 लाख रु. तक का ऋण मात्र 4 प्रतिशत की ब्याज दर पर दिया गया है, वहीं केसीसी का
लाभ पशुपालकों और मछली पालन करने वालों को भी दिया जा रहा है।
वर्ष 2021-22 के केंद्रीय बजट में किसानों को ऋण देने के लिए राशि बढ़ाकर साढ़े 16 लाख करोड़ रु. कर दी गई है। इससे पहले वर्ष 2020-21 में यह राशि 15 लाख करोड़ रु. थी, जबकि मोदी सरकार आने के पहले वर्ष 2013-14 में यह राशि सिर्फ 7.3 लाख करोड़ रुपए सालाना थी। इसी तरह, 10 हजार नए कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) बनाने की योजना प्रधानमंत्री द्वारा प्रारंभ की गई, जिस पर 5 साल में 6,865 करोड़ रु. खर्च किए जाएंगे। इससे छोटे व सीमांत किसानों के लिए खेती की लागत में कमी आएगी, इस वर्ग के किसान देश में लगभग 86 प्रतिशत हंै।
‘फार्मगेट’ पर किसानों को वेयरहाउस, कोल्ड स्टोरेज, फूड प्रोसेसिंग यूनिट जैसी अधोसंरचना उपलब्ध कराने के लिए आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत एक लाख करोड़ रु. के कृषि अवसंरचना कोष का प्रावधान करके इस पर पिछले वित्तीय वर्ष से ही अमल प्रारंभ किया जा चुका है। इसके अंतर्गत नाबार्ड द्वारा लगभग 3,000 करोड़ रु. के ऋण के लिए प्राथमिक कृषि ऋण सोसायटी की 3,055 परियोजनाओं को मंजूरी दी जा चुकी है। देश में ई-नाम कृषि मंडियों की संख्या पिछले साल बढ़ाकर एक हजार की गई और इस बार के बजट में इसे बढ़ाकर 2,000 किया गया है। एक हजार ई-नाम मंडियों में लगभग पौने दो करोड़ किसान व डेढ़ लाख से ज्यादा व्यापारी पंजीकृत हो चुके हैं। ई-नाम मंडियों से सवा चार करोड़ मीट्रिक टन खाद्यान्न का विपणन हुआ है, जिसका मूल्य करीब सवा लाख करोड़ रु. है। इसी प्रकार, देश में एक जिला-एक उत्पाद योजना प्रारंभ की गई है। ‘वोकल फार लोकल’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। किसान रेल प्रारंभ की गई है, जिसके भाड़े में खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय द्वारा ‘टाप्स स्कीम’ के तहत 50 प्रतिशत सब्सिडी भी दी जा रही है।
* आम किसान खाद, बीज, उर्वरक, सिंचाई में जितना खर्च करता है, उसकी भरपाई फसल से हो जाए और मुनाफा भी मिले, इसके लिए आपके मुख्य प्रयास क्या हैं?
हमारे किसानों की अथक मेहनत, वैज्ञानिकों के अनुसंधान तथा केंद्र सरकार के प्रयासों से खेती का रकबा लगातार बढ़ रहा है। वर्ष 2013-14 से 2019-20 के दौरान खेती का रकबा 23.57 लाख हेक्टेयर बढ़ा है। कोरोना महामारी के चलते लंबे लॉकडाउन के बावजूद जहां दुनिया के अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी जनजीवन प्रभावित हुआ था, उद्योग-धंधे तब चल नहीं पाए थे, ऐसे में भी कृषि ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र था, जिसने अपनी उपयोगिता साबित की। इस दौरान सभी ऋतुओं की फसलों की पहले से ज्यादा बुआई की गई, कटाई तथा उपार्जन का कार्य भी बिना किसी बाधा के हुआ। किसानों, वैज्ञानिकों व सरकार के संयुक्त प्रयासों से हमारे देश में खाद्यान्न का उत्पादन निरंतर बढ़ रहा है। वर्ष 2014 से 2020 के दौरान (लगभग 6 साल में) 31.60 मिलियन टन उत्पादन बढ़ा है। 300 मिलियन टन से ज्यादा खाद्यान्न एवं सवा तीन सौ से ज्यादा मिलियन टन उद्यानिकी का उत्पादन रहा, जो कि अब तक का सर्वाधिक है। बीते 6 साल में खाद्यान्न की उत्पादकता प्रति हेक्टेयर 205 किलो तक बढ़ी है।
सरकार की भी यही सोच है कि खेती-किसानी को लाभप्रद बनाया जाए। इसीलिए, उपरोक्त तमाम योजनाएं व कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, साथ ही सुधार किए गए हैं। नए कृषि सुधार कानूनों के माध्यम से किसानों के जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आएगा। कृषि में गुणवत्ता वृद्धि के साथ ही किसानों की आमदनी बढ़ाने पर सरकार का पूरा ध्यान है। इसी तारतम्य में, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित किया जा रहा है, बल्कि एमएसपी में वृद्धि भी की जा रही है। उदाहरण के लिए, वर्ष 2013-14 में गेहूं की एमएसपी 1,400 रु. प्रति क्विंटल थी, जो वर्ष 2020-21 में बढ़कर 1,975 रु. प्रति क्विंटल की गई। 6 साल में गेहूं की एमएसपी में 41 प्रतिशत की वृद्धि की गई है, जो अब तक की सर्वाधिक है। पिछले 6 साल में सरकार ने धान की एमएसपी में 43 प्रतिशत की वृद्धि की है। वर्ष 2013-14 में धान की एमएसपी 1,310 रु. प्रति क्विंटल थी, जो अब बढ़कर 1,868 रु. कर दी गई है। स्वामिनाथन कमेटी की 201 में से 200 सिफारिशें मान्य करते हुए केंद्र सरकार किसानों को पूरा फायदा पहुंचा रही है। खाद पर सब्सिडी सहायता से भी किसानों को लाभ पहुंचाया जा रहा है, वर्ष 2019-20 में खाद पर 83,467 करोड़ रु. सब्सिडी दी गई।
* जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं?
जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना वर्ष 2015-16 में प्रारंभ की गई, 30,934 क्लस्टर निर्मित किए गए हैं। इस योजना से अभी तक लगभग साढ़े 15 लाख से ज्यादा किसान लाभान्वित हुए हैं। देश में अनुमानित लगभग 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है, जिसे अगले 5 साल में दोगुना करने का लक्ष्य है। उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए विशेष रूप से ‘मिशन आॅर्गेनिक वेल्यू चैन’ कार्यक्रम प्रारंभ किया गया है। इसके तहत 170 एफपीओ का गठन किया गया है, जिनसे 85,000 जुड़े हैं। ‘नीम कोटेड’ यूरिया की शुरुआत भी वर्ष 2015-16 में की गई। इससे कम मात्रा में उर्वरक के उपयोग के बाद भी मिट्टी में लंबी अवधि तक पोषक तत्व उपलब्ध रहते हैं। ‘नीम कोटेड’ यूरिया के उपयोग से गैर-कृषि कार्यकलापों के लिए यूरिया का प्रयोग कम करने में सहायता मिली है।
* संकर बीजों को लेकर सरकार का क्या दृष्टिकोण है?
सरकार हाइब्रीड संकर बीजों को प्रोत्साहित करती है, साथ ही किसानों की आय में वृद्धि के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) द्वारा विकसित उच्च गुणवत्ता वाले बीजों को बढ़ावा दिया जा रहा है। आईसीएआर तथा राज्य कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सैकड़ों किस्म के बीज विकसित किए गए हैं, जिनकी प्रधानमंत्री जी भी प्रशंसा कर चुके हैं।
* युवा खेती से जुड़ें, उन्हें प्रोत्साहन मिले, क्या इसके लिए सकारात्मक वातावरण बनाने के कोई प्रयास चल रहे हैं?
युवाओं को खेती से जोड़ने पर सरकार का पूरा ध्यान है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत कृषि शिक्षा को व्यावहारिक बनाने पर जोर दिया गया है। राष्ट्रीय कृषि उच्च शिक्षा परियोजना को भारत में कृषि शिक्षा प्रणाली मजबूत करने के लिए डिजाइन किया गया है ताकि छात्रों को अधिक प्रासंगिक और उच्च गुणवत्ता वाली कृषि शिक्षा प्रदान की जा सके। ‘स्टूडेंट रेडी’ जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से युवाओं को कृषि कार्यों की ‘प्रेक्टिकल ट्रेनिंग’ दी जा रही है। केंद्र सरकार जो एक लाख करोड़ रु. का कृषि अवसंरचना कोष लाई है, उसके माध्यम से गांव-गांव, खेतों के नजदीक ही सुविधाओं का विकास होगा, जिससे युवाओं को रोजगार के लिए गांवों से शहरों का रुख नहीं करना पड़ेगा। खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के माध्यम से भी ऐसी योजनाएं चलाई जा रही हैं, जिनसे युवा न केवल खेती से जुड़ें, बल्कि फूड प्रोसेसिंग के तंत्र को भी स्वयं अपनाएं ताकि उन्हें गांवों में ही रोजगार की प्राप्ति हो सके, वहीं ‘एग्री क्लिनिक’ के माध्यम से भी युवाओं को कृषि की ओर आकर्षित किया जा रहा है।
* आपने कृषि सुधार कानूनों की चर्चा की, लेकिन इन्हीं कानूनों के विरोध में पिछले करीब छह महीने से किसान आंदोलनरत हैं। किसान प्रतिनिधियों के साथ आपकी वार्ता भी हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। आप इस आंदोलन की तार्किक परिणति क्या देखते हैं?
कृषि सुधार अधिनियमों को लेकर जो आंदोलन चल रहा है, उसके संदर्भ में हमारा यही कहना है कि यूनियन नेताओं के साथ हम लोगों ने पूरी संवेदना के साथ 11 दौर की चर्चा की है। हमने उन्हें बार-बार कहा कि आपके हिसाब से कानून का कौन-सा प्रावधान किसानों के हित में नहीं है, अगर आप उस बारे में बताएंगे तो हम निश्चित रूप से उस पर विचार करने को तैयार हैं। आवश्यकता होगी तो भारत सरकार अधिनियम में संशोधन करने को भी तैयार है। लगातार बातचीत होती रही हम लोगों के बीच। उस चर्चा में उन्होंने जो बिन्दु उठाए, उनके बारे में हमने कहा कि हम आपके साथ बैठकर इसकी भाषा के बारे में चर्चा कर सकते हैं। उस समय तो यह लगा कि वे लोग सरकार की बात समझ गए हैं, पर जब यहां से लौटकर आंदोलन स्थल पर गए तो उन्होंने सभी प्रस्ताव निरस्त कर दिए। बीच में हमने यह प्रस्ताव भी दिया कि ‘इस अधिनियम को डेढ़ साल के लिए स्थगित कर देते हैं। हम एक समिति बना लें। वह समिति बिन्दुवार विचार कर ले। किसान नेता विशेषज्ञों से, अधिवक्ताओं से बात कर लें। उसके बाद समिति जो निर्णय करेगी, उस पर सरकार आगे बढ़ेगी। डेढ़ साल तक हम कानूनों पर अमल नहीं करेंगे’। मैं समझता हूं उनके लिए यह अच्छा प्रस्ताव था। लेकिन उनको शायद ऐसा लगा कि यह चीज सरकार की कमजोरी दिखा रही है। मैंने उनको बार-बार कहा कि देखिए, सरकार जो चर्चा कर रही है वह इसलिए कर रही है कि हम किसानों के हितों के प्रति प्रतिबद्ध हैं और किसानों का भला करना चाहते हैं। कृषि सुधार अधिनियमों के बारे में जो प्रस्ताव मैंने आपको दिये हैं उनसे यह आशय न लगाएं कि कानून में कोई खराबी है। आपका सम्मान रहे, यह भी हमारी जिम्मेदारी है। आप जो प्रस्ताव देंगे उस पर हम विचार करेंगे। हमें अभी भी उनके जवाब का इन्तजार है। सरकार की सोच अब भी वही है कि किसान देवतुल्य हैं। किसानों की कोई समस्या है तो उसका निराकरण किया जा सकता है। लेकिन यूनियन के नेता शायद उस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार नहीं दिखते।
* इस पूरे प्रकरण में दो बिन्दु बार-बार सुनाई दिए, एमएसपी और एपीएमसी। इस पर आपने और प्रधानमंत्री ने भी कई बार स्पष्ट करने की कोशिश की कि कोई मंडी नहीं खत्म हो रही है, न एमएसपी खत्म होने जा रहा है। किसानों को पूरी स्वतंत्रता है कि वे देश में कहीं भी अपने कृषि उत्पाद बेच सकते हैं। तो फिर यह अड़चन कहां पर है?
देखिए, दरअसल बात यह है कि इसमें दो विषय थे-हमने ट्रेड एक्ट बनाया, जिसमें प्रावधान किया कि किसान अपने कृषि उत्पाद को कहीं से भी, किसी को भी, कहीं भी, किसी भी कीमत पर बेचने के लिए स्वतंत्र है। यह एक्ट मंडी परिधि के बाहर लागू होगा। मंडी परिधि के भीतर लागू नहीं होगा। दूसरे, मंडी परिधि के बाहर जहां भी यह एक्ट लागू है वहां किसी भी प्रकार का केन्द्र और राज्य सरकार का कोई भी कर नहीं लगेगा। सरकार ने अगर कर खत्म कर दिया तो किसानों के लिए यह अच्छा ही है। अंततोगत्वा जो कर कम करके व्यापारी किसानों से उपज खरीदता, उसका लाभ किसानों को ही मिलता। इसमें किसान को तो खुश होना चाहिए। एपीएमसी राज्य के कानून से बनी हैं, उसको तो हम खत्म नहीं कर रहे, हमने कहीं कहा भी नहीं कि हम उसको खत्म करेंगे। कुल मिलाकर हमने उनको प्रस्ताव दिया है कि सरकार संशोधन करने के लिए खुले मन से तैयार है। जिस दिन यूनियन के लोग हमें कहेंगे कि हमारा यह प्रस्ताव है, सरकार उसी दिन बात करेगी।
* इस सरकार ने जो कार्यक्रम चलाए हैं, उनका लाभ किसानों को मिल रहा है। ऐसे अनेक किसान हैं जिनकी स्थिति बदली है। क्या आप इस बदलाव के कुछ उदाहरण देना चाहेंगे?
लगभग हर प्रांत में आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे, जहां किसानों की जिंदगी में बदलाव आया है। फूड प्रोसेसिंग से जुड़ने के कारण बदलाव आया है। ऐसे किसान, जो महंगी फसलों की खेती से जुड़े, उनके जीवन स्तर में बदलाव आया। हम लोगों ने कानून बनाकर जो प्रयोग किया है यह इसलिए नहीं किया कि यह कोई नई चीज है। कुल मिलाकर जो कुछ हो रहा है यह उसको एक सही प्लेटफार्म देने की कोशिश है। अभी क्या है कि जैसे कोई 100 क्ंिवटल गेहूं पैदा करता है और उसके बेटे की आटे की फैक्ट्री है। तो उसके खेत की उपज का मालिक कायदे से उसका वह बेटा ही है। लेकिन आज के कानून के मुताबिक वह किसान अपने बेटे को अपना गेहूं पीसने के लिए नहीं दे सकता। उसे गेहूं को पहले मंडी में ले जाना पड़ेगा। मंडी में लोग बोली लगाएंगे। वहां भाव तय होगा, उसके बाद बेटा वही गेहूं मंडी से खरीदेगा तब पीसेगा। तो हमने प्रयास किया है कि ये सब चीजें खुल जाएं। कर खत्म हो जाएं। ठेकेदारी राज खत्म हो जाए। दुनिया भर की अफरा-तफरी खत्म हो जाए। दूसरे, हमने कानून के माध्यम से पूरा बाजार खोल दिया है, कहीं कोई रोक-टोक नहीं है। इससे दुनियाभर का भ्र्रष्टाचार रुक जाएगा। एक किसान के लिए जो कर बच रहा है उसका लाभ उसी को मिलेगा। तीसरे, हरियाणा, पंजाब में ‘कॉट्रेक्ट फार्मिंग’ के कानून और हमारे इस कानून में सिर्फ इतना अंतर है कि हमारा कानून किसान की गलती होने पर उसे जेल नहीं भेज सकता, उनका कानून किसान को जेल भेजने की बात करता है। तो बताएं कि उनके कानून से जमीन नहीं गयी तो हमारे कानून से जमीन कैसे चली जाएगी! इसका जवाब किसी के पास नहीं है। कुल मिलाकर, मुझे लगता है, इसके पीछे दोष नीयत में गड़बड़ का है।
* आपने संकेत दिया था कि कोई शक्ति है जो इस किसान आंदोलन को संचालित कर रही है, इसमें भ्र्रम पैदा कर रही है। क्या किसान समूह या किसान यूनियनें ऐसी सोच से संचालित हो रही हैं जो उनको गलत दिशा में ले जा रही है?
मैं ऐसा मानता हूं कि किसान आंदोलन में किसान ही हैं। किसानों की समस्या को सुनना और उसका निराकरण करना हमारा कर्तव्य है। हम उसको इसी भाव से देखते हैं। लेकिन जब सरकार किसानों की समस्या पर विचार करने को तैयार है पर वे समस्या बताने को तैयार नहीं हैं तो कोई न कोई अदृश्य शक्ति है जो उसके आड़े आ रही है। देखिए, कृषि कानूनों पर 4 घंटे लोकसभा में और 4 घंटे राज्यसभा में चर्चा हुई। इसके साथ ही, राष्टÑपति जी के अभिभाषण पर 15 घंटे चर्चा हुई। उसमें भी कमोबेश इस कानून के बारे में हर दल के सांसदों ने अपनी बात रखी। 11 दौर की 50 घंटे से अधिक की बातचीत किसान यूनियन के साथ हुई। लोग बोलते तो हैं कि कानून निरस्त कर देना चाहिए, लेकिन कानून क्यों निरस्त कर देना चाहिए, इसमें खराबी क्या है, यह नहीं बताते। आप सदन की पूरी कार्रवाई देखें तो पाएंगे कि किसी भी नेता ने प्रावधान पर चर्चा नहीं की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
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