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पुस्तक समीक्षा : ‘नए भारत’ से आत्म साक्षात्कार

WEB DESK by WEB DESK
Apr 7, 2021, 02:46 pm IST
in पुस्तकें
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पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम : ‘बिकॉज इंडिया कम्स फर्स्ट’
लेखक : राम माधव
पृष्ठ : 285
मूल्य : 599 रु.
प्रकाशक : वैस्टलैंड पब्लिकेशंस
प्रा. लि.
पेरुंगुड़ी, कंदनचावड़ी
चेन्नई- 600096 (तमिलनाडु)

राम माधव ने अपनी पुस्तक ‘बिकॉज इंडिया कम्स फर्स्ट’ में भारत की ‘कहानी’ का विश्लेषण किया है। इसकी आधार भूमि में भारत सर्वोपरि है, यानी राष्ट्र ही सर्वश्रेष्ठ विचार है। इस बोध के साथ लेखक ने भारतीय चिंतनधारा के अवदान और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य का सूक्ष्म विवेचन करते हुए राष्ट्रवाद, अस्मिता व संस्कृति पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। लेखक की चिंतन भूमि में 5,000 साल से अधिक की भारत की वैभवपूर्ण-समृद्धशाली चिंतनधारा है, जिसमें वेदकालीन संस्कृति से लेकर समसामयिक परिवेश का विवेचन-विश्लेषण द्रष्टव्य है।

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यह पुस्तक राम माधव के प्रकाशित 51 लेखों का संकलन है, जो पांच स्तंभों में विभक्त हैं। ये लेख एक तरफ जहां भारतीय चिंतन भूमि को आलोकित करते हैं, वहीं समसामयिक विषयों एनआरसी, सीएए, अनुच्छेद-370 हटाना, संशोधन अधिनियम, तिब्बत के प्रति भारत की नैतिक जिम्मेदारी, राम जन्मभूमि पूजन व विदेश नीति खासकर चीन के संदर्भ में, पर गहन विश्लेषण है। 

विवेचित पुस्तक भारत के राजनीतिक मूल्यों व सामाजिक जीवन में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करती है। लेखक का स्पष्ट विचार है कि ‘धर्म ही भारत की आत्मा है।’ ‘धर्म’ भारत की वही आत्मा और ‘प्राण’ है, जिसे हजारों सालों से ऋषियों-मुनियों की तपस्या व बौद्धिक संवाद ने प्रतिफलित किया है। यह भारत की ऐसी ‘कहानी’ है जो धर्म केंद्रित है, जो राम-कृष्ण से लेकर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप तक हमारे इतिहास में विद्यमान है। लेखक ने तीन स्तंभों में भारत के विचार का विश्लेषण किया है। पहले स्तंभ में चरित्र को महान बनाने की भारत की ‘कहानी’ इतिहास में राम-कृष्ण से लेकर शिवाजी-राणा प्रताप तक परिलक्षित होती है। दूसरे स्तंभ में आध्यात्मिक चिंतन का विवेचन है, जो महर्षि व्यास, वाल्मीकि से लेकर श्री अरविंद, स्वामी दयानंद सरस्वती व स्वामी विवेकानंद तक में दृष्टिगत है। तीसरे स्तंभ में भारत की राजनीतिक चिंतनधारा का अवलोकन भीष्म, पाराशर और मनु से लेकर गांधी तक किया गया है। साथ ही लेखक ने लोहिया, पं. दीनदयाल उपाध्याय व आंबेडकर की वैचारिकी को भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास माना है।

भारतीय व पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति का विश्लेषण करते हुए लेखक कहते हैं कि तार्किक वैज्ञानिक चिंतन, स्वतंत्रता व सदगुण आदि जो मानवीय अस्तित्व को परिभाषित करते हैं, उन्हें समझने व स्वीकार करने में पश्चिम को हजारों साल लग गए। पश्चिम में धर्म व तर्क के बीच का अंतर्द्वंद्व अभी भी सुलझा नहीं है। वहीं, भारत ने इस अंतर्द्वंद्व को अपनी सभ्यता की यात्रा के आरंभ में ही यह घोषित करके सुलझा लिया कि प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा का वास है। लेखक का स्पष्ट विचार है कि भारत दुनिया के बहुमूल्य विचारों और आदर्शों का केंद्र रहा है। साथ ही, भारत ने दुनिया के उन विचारों को भी खुले मन से अपनाया जो मानव-मूल्य केंद्रित थे। इस प्रक्रिया में भारत ने पश्चिम के आधुनिक विचारों जैसे समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, मानवाधिकार व लोकतंत्र आदि को खुली बांहों से स्वीकार ही नहीं किया, आत्मसात भी किया। हमारी प्राचीन चिंतनभूमि में ‘रामराज्य’ जैसा आदर्श भी रहा है जो लोगों की इच्छा, उत्तरदायित्व, बुद्धिमत्ता व प्रत्येक नागरिक के अधिकार पर केंद्रित है। निस्संदेह इस आदर्श में आंबेडकर की सामाजिक समरसता व गांधी-विनोबा-दीनदयाल के ‘अंत्योदय’ की अवधारणा प्रतिफलित होती है। पुस्तक में राम माधव ने गुरु गोलवलकर के आलोक में सामाजिक समरसता के स्वरूप का बहुत सूक्ष्म विवेचन किया है। उन्होंने ‘लोकतंत्र की आत्मा’ के अंतर्गत भारतीय चिंतनधारा के सौंदर्य पर विचार करते हुए लोकतंत्र के महत्वपूर्ण वैचारिक स्तंभों गांधी, आंबेडकर, गुरु गोलवलकर, पं. दीनदयाल उपाध्याय की वैचारिकी का अवलोकन किया है। आज भारत के लिए इन स्तंभों की क्या उपयोगिता और सार्थकता है, इस पर भी गहन विश्लेषण किया गया है। इसके अंतर्गत दस लेख हैं, जिनमें लेखक ने लोकतंत्र की सफलता व असफलता के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं का विस्तार से विश्लेषण किया है। इस क्रम में वे लोकतंत्र की सफलता को लोगों की गुणवत्ता और मूल्य आधारित जीवन में देखते हैं। लेखक का विचार है कि लोकतंत्र की मजबूती केवल राजनीतिक सत्ता पर ही निर्भर नहीं करती, इसके लिए राज्य के दूसरे हिस्सों का भी सहयोग बहुत जरूरी है, विशेष रूप से न्यायिक व्यवस्था का।

लेखक अपनी चिंतन प्रक्रिया में
पुस्तक में भारतीय चिंतनधारा की जो लेखकीय अन्तर्यात्रा है, उसके मुख्य स्वर को ‘इंडिक’ विचार विश्लेषण के अंतर्गत दिखाने का सफल प्रयास किया गया है। वस्तुत: भारतीय दर्शन ‘चिंता’ से ‘आनंद’ तक की यात्रा है। ‘सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया’ संदर्भ की लेखक ने गहराई से व्याख्या की है। इसी क्रम में जीवन में ‘आनंद’ को महत्वपूर्ण स्थान देते हुए उसने ‘त्याग’ की भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ट भावना का विश्लेषण किया है। सामाजिक समरसता के संदर्भ में लेखक ने श्री गुरुजी की चिंतन भूमि से अवगत कराया है। उन्होंने फ्रांस की क्रांति के उद्घोष ‘उदारता, समानता एवं बंधुत्व’ के नारे को प्रमुखता देने की बजाए भारतीय चिंतनधारा में वेदकालीन संस्कृति से मौजूद ‘समता, समानता व समरसता’ के स्वरूप का तार्किक विवेचन किया है। उनका मत है कि वेदों ने कभी छुआछूत को नहीं माना। यहां कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सामूहिक उत्थान हेतु सभी को परिश्रम करने को कहा गया है। लेखक ने राष्ट्र की एकता व सर्वोच्चता हेतु डॉ. हेडगेवार के विचार ‘हम सब एक हैं’ को महत्वपूर्ण माना है और ‘एकता’ के निमित्त गुरु जी के 33 वर्षों के समर्पण व त्याग को याद किया है। राम माधव भारत की इसी ‘एकता’ व ‘श्रेष्ठताबोध’ के सच्चे समर्थक के रूप में पं. दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व को देखते हैं। लेखक का विचार है कि उन्होंने कभी ‘पावर’ के लिए राजनीति नहीं की। उनकी राजनीति मूल्य आधारित व सैद्धांतिक थी। ‘राष्ट्रहित’ ही उनका मुख्य उद्देश्य था। साथ ही ये लेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के नेतृत्व व विचारों की स्पष्टता तथा देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को सामने रखते हैं।

लेखक ने इतिहास के सवालों पर भी बेबाकी से टिप्पणी की है। इस संबंध में वे अनुच्छेद-370 को (17 अक्तूबर, 1949) राष्ट्र की ऐतिहासिक भूल के रूप में इंगित करने के साथ नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को 70 साल पूर्व की गई गलती को ठीक करने का श्रेय देते हैं। वे अनुच्छेद-370 की समाप्ति (5 अगस्त, 2019) को ऐतिहासिक निर्णय के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं, ‘हम भारतीयों को याद रखना चाहिए कि कश्मीर हमारा है। इसका मतलब यह है कि हर कश्मीरी हमारा है।’ कश्मीर की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए लेखक ने माना कि समस्या कश्मीर के उन राजनीतिकों में है जो लोगों को अलगाववादी, आतंकवादी व पत्थरबाज बनाने पर तुले हुए हैं। जरूरत उन राजनीतिकों को समझने और नियंत्रित करने की है। उनकी स्पष्ट राय है कि अब कश्मीर में नए राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत है, जो 20वीं सदी अलगाववादी सोच के बजाए 21वीं सदी के विकास के सोच से बना हो। एनआरसी के प्रति भाजपा और उसके वैचारिक परिवार की प्रतिबद्धता पर उनका कहना है कि इसका उद्देश्य असम के लोगों की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा करना है।

लेखक का मानना है कि भारत की राजनीतिक दशा-दिशा पूरी तरह बदल चुकी है। उरी में आतंकी हमले के बाद भारत ने जो ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति’ दिखाई, वह इस बात का प्रमाण है। समग्रत: यह पुस्तक ‘नए भारत’ की बदलती नीति व नीयत को सामने लाती है। ‘नए भारत’ के नए सोच पर लेखक की दृष्टि ‘जीरो टोलरेंस’ की है। उनका मानना है कि भारत के लोग नरेंद्र मोदी को सिर्फ प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि बदलाव लाने वाले नेता के रूप में देखते हैं। लेखक के विचार में ‘राष्ट्र की सर्वोच्चता’ ही महत्वपूर्ण है, जो ‘राष्ट्र की एकता’ के बिना संभव नहीं है। यही कारण है कि उन्होंने जनसंघ से लेकर नरेंद्र मोदी तक की राष्ट्र भावना के विकास को दिखाने की सफल कोशिश की है। आज ‘सबका साथ और सबका विकास’ का सोच इसी राष्ट्र की श्रेष्ठता का प्रमाण है।

लेखक जाति-पांथिक आधार पर देश को बांटने वाले कथित बौद्धिक वर्ग को देश के लिए चुनौती मानते हैं। वे काफी हद तक इस चुनौती का हल मोदी नेतृत्व में चुनावी जीत के संदेश में देखते हैं। उनके विचार में मोदी की अपनी सामाजिक दृष्टि है, जो जाति, मजहब व क्षेत्र के भेदों से ऊपर है और सभी के लिए न्याय को महत्वपूर्ण मानती है। उनके लिए पहले भारत और इसकी सुरक्षा है। यह पुस्तक लेखक के अध्ययन-बौद्धिक-संवाद व लेखन का संकलित प्रतिफल है। इसमें जहां भारत के ‘ग्रैंड नैरेटिव’ को सामने लाया गया है, वहीं भारतीय चिंतनधारा के आलोक में ‘नए भारत’ की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राज-नीति, राष्ट्र-नीति, धर्म-नीति व लोक-नीति से हमारा आत्म साक्षात्कार कराने का सफल प्रयास है।
—डॉ. राकेश कुमार सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर , हिंदी विभाग , सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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