अरुण कुमार सिंह
जब भी मौका मिला है, इस देश की सेकुलर सरकारों ने हिंदुओं को दबाने और अपमानित करने का काम किया है। इसी उद्देश्य से 1991 में नरसिंहा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने एक कानून बनाया था, जिसका नाम है- ‘पूजास्थल (विशेष प्रावधान) कानून’। इसके अनुसार जो पूजास्थल 15 अगस्त, 1947 से पहले जिस स्थिति में थे, उसी स्थिति में रहेंगे। (इससे अयोध्या के श्रीराम जन्मभूमि मामले को बाहर रखा गया था, क्योंकि वह विषय न्यायालय में विचाराधीन था) इस कानून से संबंधित विधेयक को तत्कालीन गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण ने 10 सितंबर, 1991 को लोकसभा में रखा था। बहस के दौरान उन्होंने विधेयक को भारत के प्रेम, शांति और आपसी भाईचारे के महान संस्कारों का एक सूचक बताते हुए कहा था, ‘‘सभी मत-पंथों के प्रति सहिष्णुता हमारी महान सभ्यता का चरित्र है।’’
इसमें कोई दो मत नहीं है कि सहिष्णुता हमारे संस्कारों में है, लेकिन नरसिंहा राव सरकार ने इस सहिष्णुता का गलत फायदा उठाया और एक ऐसा कानून बना दिया, जो हिंदुओं के लिए बेड़ी साबित हो रहा है। सच बात तो यह है कि इस कानून को बनाने का मुख्य उद्देश्य था मुगल हमलावरों या शासकों द्वारा मंदिर या अन्य श्रद्धा-स्थलों को ढहाकर बनाई गई मस्जिदों को बचाना। इसलिए जब से यह कानून बना है, तब से अनेक हिंदुत्वनिष्ठ संगठन इसे हिंदू विरोधी बताते हुए न्यायालय से इसकी समीक्षा की मांग करते रहे हैं। विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के संयुक्त महामंत्री डॉ. सुरेंद्र जैन कहते हैं, ‘‘अयोध्या तो अब मुक्त हो चुकी है। मथुरा और काशी पर इस देश की भावी पीढ़ियां आंदोलन न कर सकें, इसलिए इस कानून को बनाया गया था। जो कानून भारत की नई पीढ़ी के पैरों के लिए बेड़ियां बन जाए, उनकी आकांक्षाओं का दमन करे, उसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय से सही न्याय मिलेगा।’’
उल्लेखनीय है कि इस कानून की समीक्षा के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई करते हुए गत 12 मार्च को कहा कि वह इस कानून की वैधानिकता पर विचार करेगा। इसके साथ ही न्यायालय ने इस संबंध में भारत सरकार से जवाब भी मांगा है।
विहिप सहित अनेक संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस कदम का स्वागत किया है। डॉ. सुरेंद्र जैन कहते हैं, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम विदेशी हमलावरों द्वारा दासता के जो प्रतीक बनाए गए थे, उन्हें हटाने में सहयोगी बनेगा।’’ वे यह भी कहते हैं,‘‘कौन नहीं जानता कि 1947 से पहले विदेशी आक्रांताओं ने मंदिर तोड़े और उनकी जगह मस्जिदें बनार्इं। वे गुलामी की प्रतीक हैं। उन्हें हटाया ही जाना चाहिए था। यदि 15 अगस्त, 1947 की यथास्थिति ही रखनी थी तो इस कानून के माध्यम से जम्मू-कश्मीर में सैकड़ों की संख्या में तोड़े गए मंदिरों का जीर्णोद्धार क्यों नहीं किया गया?’’
उनकी इस बात को कोई नकार नहीं सकता। उल्लेखनीय है कि 1989 के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के नाम पर जिहादियों ने सैकड़ों मंदिर तोड़ दिए थे और वे आज भी वैसी ही स्थिति में हैं। इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उपरोक्त कानून बनाने से पहले जम्मू-कश्मीर में तोड़े गए मंदिरों का जीर्णोद्धार क्यों नहीं कराया गया?
सर्वोच्च न्यायालय का यह रुख हिंदुओं के लिए शुभ साबित हो सकता है, क्योंकि इस कानून के कारण मुस्लिम उन्मादियों के कब्जे वाले हजारों मंदिरों को हिंदू वापस नहीं ले पा रहे हैं और न ही उन पर किसी तरह का मामला चल पा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता हरिशंकर जैन कहते हैं, ‘‘यह काला कानून है। इसके जरिए कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टीकरण के अंतर्गत गुलामी के कालखंड में जो अवैधानिक, अमानुषिक और बर्बर कार्य हुए थे, उन्हें वैध करने की कोशिश की थी। यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14,15,25 और 29 के विरुद्ध है। इतना ही नहीं, यह अनुच्छेद 13 (2) के तहत शून्य है,क्योंकि संसद के पास ऐसा कोई भी कानून बनाने की शक्ति नहीं है, जो मूलभूत अधिकारों का हनन करता हो।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘पूरे विश्व में जहां भी संविधान के द्वारा शासन चल रहा है, वहां हमलावरों के कार्यों को वैध नहीं किया गया है। कुछ समय पहले तुर्की ने 1,500 साल बाद हागिया सोफिया की इमारत को पुन: मस्जिद में परिवर्तित कर दिया है।’’ उनका यह भी कहना है कि इस कानून की धारा दो, तीन और चार बाहरी हमलावरों द्वारा गैर-कानूनी रूप से बनाए गए मजहबी स्थलों को कानूनी मान्यता प्रदान करती है।
अश्वनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में ऐसी कई बातें कही हैं, जिन पर गौर करने से पता चलता है कि इस कानून को बनाने की असली मंशा क्या थी। उनका कहना है कि मुस्लिम हमलावरों ने देश के सैकड़ों-हजारों मंदिरों को तोड़ा और भारत का अपमान किया। अब उसकी भरपाई होनी चाहिए। उनका यह भी कहना है कि 1991 का कानून इसलिए भी गलत है कि एक तो 15 अगस्त, 1947 की तारीख मनमाने ढंग से तय की गई है। उसका कोई आधार नहीं बताया गया। दूसरा, हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन पर तो यह कानून लागू होता है, लेकिन मुसलमानों पर नहीं, क्योंकि वक्फ-कानून की धारा सात के अनुसार वे अपनी मजहबी जमीन पर वापस कब्जे का दावा कर सकते हैं। यह धारा कहती है कि यदि किसी मुसलमान को लगे कि कोई जगह मजहबी है, तो उसे पाने के लिए वह मुकदमा दायर कर सकता है।
कट्टर सोच के मुसलमान ऐसा कर भी रहे हैं। पिछले कुछ बरसों में ही मुसलमानों ने कई महत्वपूर्ण भवनों और स्थानों पर यह कहते हुए कब्जा कर लिया है कि यह वक्फ संपत्ति है। जहां ये लोग कब्जा नहीं कर पाए हैं, वहां मुकदमा लगा रखा है। इसका हालिया उदाहरण है दिल्ली में सराय काले खां के पास स्थित मिलेनियम पार्क। गत वर्ष कोरोना महामारी के दौरान कुछ मुसलमान जेसीबी मशीन के साथ इस पार्क में पहुंचे और तोड़फोड़ करने लगे। स्थानीय लोगों ने विरोध किया तो वे कहने लगे कि यह वक्फ संपत्ति है और इस नाते इस पर वक्फ बोर्ड यानी मुसलमानों का हक है। खैर, लोगों के भारी विरोध से वे लोग अपने मंसूबे में सफल नहीं हुए। इसी तरह कुतुबमीनार स्थित एक मस्जिद, सफदरजंग का मकबरा, ताजमहल आदि को मुसलमान वक्फ संपत्ति मानते हैं और इसी आधार पर उन पर कब्जा करने का प्रयास करते हैं।
कानून की पृष्ठभूमि
वह समय था अयोध्या आंदोलन का। अयोध्या में श्रीराम मंदिर के लिए पूरे देश में तरह-तरह के कार्यक्रम हो रहे थे। इससे मुसलमान और अन्य सेकुलरों को लगा कि यदि इसी तरह अयोध्या आंदोलन चलेगा तो आने वाले दिनों में अनेक मजारों और मस्जिदों पर भी विवाद खड़े हो सकते हैं। इसलिए इन लोगों ने तत्कालीन केंद्र सरकार से एक ऐसे कानून की मांग की, जो उनके मजहबी स्थलों को बचा सके। यही कारण है कि कांग्रेस ने 1991 के आम चुनाव में अपने घोषणापत्र में कहा, ‘‘यदि उसकी सरकार बनती है, तो वह ‘प्लेसेज आॅफ वर्शिप एक्ट’ यानी उपासना स्थल अधिनियम बनाएगी।’’
दुर्भाग्य से 1991 में चुनाव के दौरान ही तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद जून, 1991 में लोकसभा चुनाव के बाद नरसिंहा राव प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री बनते ही कांग्रेस ने इस कानून को बनाने की पहल शुरू कर दी और संसद के मानसून सत्र में इससे जुड़ा विधेयक लाया गया और वही कानून बना। उस समय भी इस कानून का विरोध किया गया था, लेकिन सरकार ने किसी विरोध को नहीं माना और मनमाने ढंग से कानून बना दिया।
1991 में बने धर्मस्थल कानून में अब सात धाराएं हैं। पहले आठ धाराएं थीं, लेकिन इसकी आठवीं धारा को 2001 में एक संशोधन द्वारा रद्द कर दिया गया था। संसद से पारित होने के बाद विधेयक पर राष्ट्रपति ने अपने हस्ताक्षर 18 सितंबर, 1991 को किए थे, लेकिन इसे प्रभावी 11 जुलाई, 1991 से ही माना गया था।
एक ओर तो मुसलमान वक्फ संपत्ति के नाम पर पुराने भवनों पर दावा करते हैं, वहीं जहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई है, उसे बचाने के लिए धर्मस्थल कानून की समीक्षा का विरोध कर रहे हैं। अनेक मुस्लिम संगठनों ने कहा है कि इस कानून की समीक्षा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। गत 20 मार्च को लखनऊ की पुरानी टीले वाली मस्जिद के एक न्यासी वसीफ हसन ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर मांग की है कि धर्मस्थल कानून की समीक्षा के लिए होने वाली सुनवाई में उन्हें पक्षकार बनाया जाए। इसी तरह मथुरा की ईदगाह कमेटी ने भी इस कानून की समीक्षा का विरोध किया है।
वहीं हिंदुत्वनिष्ठ संगठन इसकी समीक्षा की आहट से ही प्रसन्न हैं। उनमें उन मंदिरों के वापस होने की आशा जगी है, जिनको तोड़कर मस्जिद या ईदगाह बना दी गई है। आशा है कि सर्वोच्च न्यायालय भारत के लोगों के साथ न्याय करेगा और देश में हमलावरों द्वारा मंदिरों को तोड़कर बनाए गए अपमान के प्रतीकों को हटाने की प्रक्रिया शुरू होगी।
याचिका की मुख्य बातें
पूजास्थल (विशेष प्रावधान) कानून को ‘लोक व्यवस्था’ की आड़ में लागू किया गया है, जो एक राज्य का विषय है। इसलिए केंद्र के पास इस कानून को लागू करने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है।
अनुच्छेद 13 (2), भाग-तीन के तहत प्रदत्त अधिकारों को छीनने के लिए राज्य को कानून बनाने के लिए प्रतिबंधित करता है, लेकिन यह कानून बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए पूजास्थलों और तीर्थस्थानों को बहाल करने के लिए हिंदू, जैन, बौद्ध और सिखों के अधिकारों को छीन लेता है।
इस कानून में भगवान राम के जन्मस्थान को शामिल नहीं किया गया है, जबकि भगवान कृष्ण की जन्मभूमि शामिल है। हालांकि दोनों भगवान विष्णु के अवतार हैं और पूरी दुनिया में समान रूप से पूजे जाते हैं।
न्याय का अधिकार, न्यायिक उपाय का अधिकार, गरिमा का अधिकार अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है, लेकिन लागू किया गया कानून इनका उल्लंघन करता है।
राज्य आदर्शों और संस्थाओं का सम्मान करने और भारतीय संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देने और संरक्षित करने के लिए बाध्य है।
मस्जिद का दर्जा केवल ऐसी संरचनाओं को दिया जा सकता है, जिनका निर्माण इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार किया गया है और इस्लामी कानून में निहित प्रावधानों के खिलाफ निर्मित सभी मस्जिदों को मस्जिद नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार मुसलमान मस्जिद होने का दावा करने वाली किसी भी भूमि के संबंध में किसी भी अधिकार का दावा नहीं कर सकते जब तक कि इस्लामी कानून के अनुसार इसका निर्माण नहीं किया गया हो।
राज्य किसी भी पंथ के प्रति अपना झुकाव / शत्रुतापूर्ण रवैया नहीं दिखा सकता।
कानून की प्रक्रिया के माध्यम से विवाद के समाधान के बिना लगाए गए अधिनियम ने आगे की कार्यवाही को समाप्त कर दिया है, जो असंवैधानिक है और केंद्र की कानून बनाने की शक्ति से परे है।
केंद्र न तो पीड़ित व्यक्तियों के लिए दरवाजे बंद कर सकता है और न ही प्रथम दृष्टया न्यायालयों, अपीलीय न्यायालय और संवैधानिक न्यायालयों की शक्ति को छीन सकता है।
यह कानून ‘हिंदू कानून’ के उस सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जिसमें कहा गया है कि मंदिर की संपत्ति कभी समाप्त नहीं होती है, भले ही कोई बाहरी व्यक्ति उसका उपयोग बरसों तक क्यों न कर ले, भगवान न्यायिक व्यक्ति होते हैं।
यह कानून हिंदू, सिख, बौद्ध और जैनियों को भगवान की संपत्ति और धार्मिक संपत्ति रखने और संविधान के अनुच्छेद 26 में मिले धार्मिक स्थल प्रबंधन के अधिकार को रोकता है।
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