स्वतंत्रता से पहले का अविभाजित बंगाल शायद उपमहाद्वीप का सबसे उन्नत क्षेत्र था। 1947 में विभाजन और इसके भयावह दुष्परिणामों ने सब कुछ बदल दिया, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था को गंभीर झटका लगा। दूसरा गंभीर झटका 1977 में तब लगा जब वामपंथियों ने यहां सत्ता संभाली। 1981 में भारत के औद्योगिक उत्पादन में पश्चिम बंगाल की 9.8 फीसदी हिस्सेदारी थी। दो दशक से भी कम समय में यह आंकड़ा गिरता हुआ, लगभग आधे तक 5.1फीसदी तक जा पहुंचा। 1986 में कोलकाता हवाई अड्डे से भारत के कुल आयात-निर्यात का लगभग 10 फीसदी का व्यवसाय होता था, लेकिन 1999 में यह 4 फीसदी तक गिर चुका था। फिर, राज्य की अर्थव्यवस्था को तीसरा घातक झटका 2010 में तत्कालीन विपक्षी नेता ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने दिया। ममता ने टाटा को कोलकाता के पास सिंगूर में लगभग पूरी हो चुकी नैनो कार फैक्ट्री छोड़ने के लिए मजबूर किया। यही वह मौका था जब राज्य के पुन: उद्योगीकरण की संभावनाएं पूरी तरह से खत्म हो गर्इं। बंगाल को देश में सबसे अधिक भिखारियों वाला राज्य होने का ‘अनूठा गौरव’ मिला है। ज्ञातव्य है कि बंगाल में प्रति 1,00,000 लोगों पर 89 लोग भीख मांगने को मजबूर हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत प्रति 1,00000 पर 33 है।
2011 में ममता ने सिंगूर और नंदीग्राम में कृषि भूमि बचाने के ‘कृषि जोमी बचाओ’ आंदोलन पर सवार होकर बंगाल की सत्ता संभाली। उनका आंदोलन मूल रूप से औद्योगिक उद्देश्य के लिए सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ स्थानीय किसानों का आंदोलन था, जिसे बातचीत और पर्याप्त मुआवजे के माध्यम से आसानी से हल किया जा सकता था। लेकिन सत्तारूढ़ माकपा की अकड़ और विपक्षी तृणमूल के उद्योग-विरोधी अवसरवादी रुख के कारण यह हिंसक हो गया था। तब से अब तक राज्य में भूमि अधिग्रहण की स्थिति खराब है। ममता ने जो भूमि अधिग्रहण नीति बनाई, वह राज्य के लोगों को पसंद नहीं आई। इसी का परिणाम है कि सड़क, पुल, बंदरगाह आदि जैसे बुनियादी ढांचे के विकास पर भी बुरा असर पड़ा है। 2020-21 के लिए पश्चिम बंगाल के बजट में सड़कों और पुलों के लिए कुल व्यय का केवल 2.3 फीसदी आवंटित किया गया, जो अन्य 29 राज्यों द्वारा सड़कों और पुलों के लिए 4.2 फीसदी के औसत आवंटन से बहुत कम है।
पर, यह तो पानी में डूबे हिमशैल का ऊपरी सिरा भर है। असली चुनौती ऋणों के अवहनीय स्तर की है, जिसके कारण राज्य सरकार की आवश्यकता के अनुसार उधार लेने और खर्च करने की क्षमता को सीमित हो जाती है। राज्य के वित्त मंत्री द्वारा हर साल यह दावा करना कि पश्चिम बंगाल का जीएसडीपी सभी राज्यों से ज्यादा है, वास्तविक स्थिति से मेल नहीं खाता। उन्होंने 2017-18 में 16 फीसदी जीएसडीपी वृद्धि का दावा किया था। लगभग 7 फीसदी की उच्च मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद उस वर्ष राज्य की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर केवल 9.1 फीसदी थी। यहां मुद्रास्फीति की दर भी राष्ट्रीय औसत से अधिक थी। वास्तव में इस राज्य के बजट अनुमान कभी विश्वसनीय नहीं रहे।
सार्वजनिक क्षेत्र के ऋणदाता स्टेट बैंक आफ इंडिया समूह के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष के अनुसार, ‘वित्त वर्ष-2020 में समाप्त हुई छह साल की अवधि के लिए, राज्य के वास्तविक जीडीपी अनुमान पहले दिए गए जीडीपी अनुमानों की तुलना में औसतन 4.8 फीसदी कम थे।’ यह स्थिति स्पष्ट रूप से बजटीय आंकड़ों की शुचिता को समाप्त करने के साथ ही किसी बिंदु पर अर्थव्यवस्था की स्थिति तथा राजकोषीय और राजस्व घाटे के आंकड़ों के वास्तविक आकलन को बहुत कठिन बना देती है। 2019-20 के संशोधित आंकड़े राजकोषीय घाटे में 6,862 करोड़ रुपये की वृद्धि दिखाते हैं, जो जीएसडीपी का 2.63 फीसदी है, जबकि बजट अनुमानों में इसे जीएसडीपी का 2.1 फीसदी दिखाया गया था। दूसरी ओर, जब राजस्व घाटा शून्य है, तब भी 2020-21 के बजट अनुमानों में परिवहन (21फीसदी), समाज कल्याण और पोषण (19 फीसदी) तथा पुलिस (6 फीसदी) जैसे क्षेत्रों के लिए आवंटन में भारी कमी की गई है, जो किसी भी तर्क से परे है।
हाल ही में कोविड महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा सभी ने देखी थी। इन पीड़ितों में बंगाल की एक बड़ी तादाद थी। कृषि क्षेत्र में काफी ऊंची प्रच्छन्न बेरोजगारी तथा औद्योगिक क्षेत्र में ऊंची बेरोजगारी दरों के साथ ही राज्य में आजीविका के अभाव के कारण वस्तुत: हर गांव का कोई न कोई बेटा या बेटी राज्य से बाहर काम करने को बाध्य है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) 2017-18 दर्शाता है कि 2011-12 से 2017-18 के बीच तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में बेरोजगारी बढ़ी है। दुर्भाग्य से 2017-18 में राज्य के कार्यबल में आस्थायी श्रमिकों का अनुपात राष्ट्रीय औसत 25 फीसदी से काफी अधिक 33 फीसदी होना यही प्रदर्शित करता है कि राज्य अपने लोगों को सुरक्षित आय प्रदान करने में पिछड़ गया है।
(लेखक कोलकाता स्थित राजनीतिक विश्लेषक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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