दोनों देशों ने इंडो पैसिफिक में एक उन्मुक्त और खुली व्यवस्था बनाने,व्यापक और उन्नतिशील द्विपक्षीय रक्षा संबंधों को और मजबूत करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की
अमेरिकी रक्षा सचिव ( मंत्री) लॉयड ऑस्टिन अपनी तीन दिवसीय यात्रा पर 19 मार्च को सायंकाल भारत पहुंचे थे। इस प्रवास के दौरान उन्होंने प्रधान मंत्री, रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री एवं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से वार्ता की।
प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कमोबेश एक शिष्टाचार थी (क्योंकि उसमें कुछ विशेष नहीं था) हालांकि ऑस्टिन ने उनसे ” इंडो पैसिफिक क्षेत्र की शांति, स्थायित्व तथा समृद्धि के ध्येय से भारत के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी को और मजबूत करने की अमेरिकी इच्छा ” प्रकट कीI वहीं रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के साथ अतिथि की गहन चर्चा कई मुद्दों पर हुई. पेंटागन (अमेरिकी रक्षा मंत्रालय) के प्रवक्ता जॉन किर्बी के अनुसार ऑस्टिन ने ” इंडो पैसिफिक क्षेत्र में भारत की भूमिका और इस क्षेत्र में साझा लक्ष्यों के संवर्धन हेतु सामान सोच के सहयोगियों के साथ सम्बन्ध बढ़ाने के भारत के प्रयासों” की प्रशंसा की। प्रवक्ता के अनुसार, दोनों देशों ने इंडो पैसिफिक में एक उन्मुक्त और खुली व्यवस्था बनाने,व्यापक और उन्नतिशील द्विपक्षीय रक्षा संबंधों को और मजबूत करने के लिए प्रतिबद्धता व्यक्त की। संभवतः इस चर्चा में रूस से भारत द्वारा लिए जाने वाली एस-400 मिसाइल विरोधी प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी बात हुई जो दोनों देशों के बीच एक मतभेद का मुद्दा है। भारत द्वारा अमेरिका से 30 हथियारबंद ड्रोन, 6 पी-सामुद्रिक गश्ती हवाई जहाज़ खरीदने पर भी चर्चा संभवतः हुई हालांकि किसी पक्ष ने अभी इसका कोई खुलासा नहीं किया है।
विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर के साथ आगंतुक सचिव की वार्ता के मुख्य विषय अपेक्षानुसार चीन, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य पूर्व में तनाव रहे। एक भारतीय टीवी चैनल को दिए गए साक्षात्कार में ऑस्टिन ने इस बात का खुलासा किया की उन्होंने विदेश मंत्री के समक्ष असम में मानवाधिकारों के तथाकथित हनन का मुद्दा भी उठाया हालाँकि अपने बचाव में ऑस्टिन ने कहा की “हमें याद रखना चाहिए कि भारत हमारा ऐसा सहयोगी है जिसके सहयोग का मूल्य हां समझते हैं और सहयोगियों के बीच ऐसे खुले विचार विमर्श होना आवश्यक है”। स्मरण रहे कि मानवाधिकारों की रक्षा राष्ट्रपति जो बिडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी की नीतियों का एक प्रमुख अंग रहा है। ऑस्टिन की यात्रा से पहले ही सेनेटसर रोबर्ट मेनेंडेज ने उनसे भारत के सामने कश्मीर में चल रही “कार्रवाई” की बात उठाने की अपील की थी।
इस यात्रा का महत्त्व इसके समय के कारण बहुत बढ़ जाता है।ऐसे में, जब हांगकांग, तिब्बत, भीतरी मंगोलिया, शिनजियांग में मानवाधिकारों के हनन, कोरोना पर महत्वपूर्ण जानकारी छिपाने, दक्षिण चीन सागर में विस्तारवादी नीति, भारत के साथ सीमा संघर्ष तथा क़र्ज़ के मकड़जाल पर आधारित आर्थिक दोहन के आरोपों से चीन घिरा हो, यह यात्रा चीन को परेशान करने के लिए काफी है। ध्यान रहे के ऑस्टिन भारत से पहले जापान और दक्षिण कोरिया की यात्रा पर थे (जापान क्वैड समूह का सदस्य है और द. कोरिया इसका उम्मीदवार)। यही नहीं, हाल में ही हुए क्वैड के पहले शीर्ष सम्मलेन ने भी चीन की आशंकाएं बढ़ा दी हैं हालांकि चीन ने इस सम्मलेन को ” समुद्री फेन की भांति अस्थायी” करार दे कर इसे महत्वहीन दिखाने की चेष्टा की है। चीन की पहल पर अलास्का में हुई अमेरिका चीन वार्ता भी बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गई। इस तरह चीन के विरुद्ध एक के बाद एक हो रही घटनाओं ने चीन पर पर्याप्त दबाव बना लिया है जो शायद इन वार्ताओं का प्रछन्न उद्देश्य भी था।
अंत में यक्ष प्रश्न यह है कि ऑस्टिन की इस यात्रा का भारत को फल क्या मिला? बयानों पर ध्यान दिया जाए तो लगता है कि यह यात्रा इंडो पैसिफिक में चीन के बढ़ता विस्तारवाद को रोकने के लिए अधिकाधिक समर्थन और सहयोग बढ़ाने की अमेरिका की मुहिम थी। इस मुहिम में भारत का सहयोग अमेरिका के लिए अत्यधिक आवश्यक हो गया है क्योंकि भारत न सिर्फ एक क्षेत्रीय शक्ति है, बल्कि अपने विस्तृत समुद्र तट के कारण हिन्द महासागर में एक नियंत्रक शक्ति बन सकने में सक्षम है जिसका सीधा असर इंडो पैसिफिक क्षेत्र पर पड़ेगा। चीन, और कुछ हद तक रूस, के प्रभाव को रोकने के लिए अमेरिका को भारत की आवश्यकता है और चीन का सक्षम प्रतिरोध करने के लिए भारत को अत्याधुनिक हथियारों, तकनीक और महत्वपूर्ण सूचनाओं के आदान प्रदान की जो उसे अमेरिका से मिल सकते हैं। यह दोनों देशों के हितों के मिलान का एक महत्वपूर्ण स्थल है। शायद इसी लिए मानवाधिकारों के तथाकथित उल्लंघन की बात भी अमेरिकी नेता बहुत सावधानी से कर रहे हैं और रूस से एस-400 खरीदने की दशा में भारत पर काट्सा ( अमेरिका के दुश्मन देशों को प्रतिबन्ध के द्वारा रोकने के अधिनियम) के तहत प्रतिबन्ध लगाने की बात उतने जोर शोर से नहीं हो रही है जितनी तुर्की के समय हुई थी। अमेरिका शायद यह समझता है कि भारत उसके सैन्य उपकरणों का एक बड़ा ग्राहक है और प्रतिबन्ध लगाने पर हमेश भारत द्वारा अमेरिका से दूरी बनाने का खतरा हो सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि 2008 से अब तक भारत अमेरिका से 21 अरब डॉलर के हथियार खरीद चुका है और लगभग 5 अरब डॉलर के हथियारों के लिए बातचीत चल रही है। भारत ने रक्षा संबंधों में सहयोग के लिए अमेरिका से जिस तरह ताबड़तोड़ तीन समझौते विगत पांच वर्षों में किए हैं, उसी से इन संबंधों की विकास दर का पता चल जाता है। ये हैं, 2016 में हुआ लेमोआ (लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ़ एग्रीमेंट) जिसके तहत दोनों देश अपने यहाँ एक दूसरे के नौसैनिक पोतों, लड़ाकू जहाजों आदि को रुकने , ईंधन भरने और मरम्मत की सुविधाएं देंगे, 2018 में हुआ कॉमकासा ( संचार क्षमता तथा सुरक्षा समझौता) जिसके अंतर्गत दोने एक दूसरे से सामयिक गुप्त सूचनाओं का साझा करेंगे एवं पिछले साल हुआ बेका (बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट) जिसमें दुश्मन पर मारक व सटीक निशाना लगाने के लिए सूचनाओं, नक्शों और चित्रों की तुरंत साझेदारी का प्रावधान है। चीन और पकिस्तान जैसे अराजक शत्रुओं से निपटने में यह समझौते बहुत कारगर साबित होंगे। हालांकि ऑस्टिन की यात्रा का फल तुरंत किसी समझौते के रूप में नहीं मिला, आशा है कि भविष्य में कुछ और महत्वपूर्ण साझेदारी होगी।
( लेखक पूर्व राजदूत हैं )
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