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होम भारत

प्रस्तावना से ‘सेकुलर’ शब्द हटाने का उचित समय

by WEB DESK
Mar 22, 2021, 01:59 pm IST
in भारत
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राहुल ने यह तो माना कि आपातकाल लगाना उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी की भूल थी। उन्हें यह भी स्वीकारना चाहिए कि मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करके उनकी पार्टी ने देश को गहरा आघात पहुंचाया है

राहुल गांधी ने एक साक्षात्कार में माना कि उनकी दादी इंदिरा गांधी का आपातकाल लगाने का फैसला गलत था। उन्होंने कहा कि आपातकाल के समय जो हुआ था, आज के हालात उससे कहीं अधिक खराब हैं। क्या राहुल गांधी यह आरोप लगा रहे हैं कि राजग सरकार के महत्वपूर्ण फैसले आपातकाल के दौरान लिए गए इंदिरा गांधी के फैसलों से बदतर हैं?

25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक देश में आपातकाल लागू रहा। यानी 21 माह तक लोकतंत्र बंधक रहा। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात को आपातकाल के फैसले पर हस्ताक्षर किए थे। यह भारतीय इतिहास का काला अध्याय था। अगर राहुल गांधी ने उस फैसले को गलत माना है तो आपातकाल के दौरान किए गए कामों पर भी उन्हें अफसोस होगा। वैसे तो आपातकाल के दौरान लिए गए बहुत से संवैधानिक फैसलों को बाद की सरकारों ने बदला है, लेकिन 42वें संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में जो बदलाव किए गए, वे बरकरार हैं। अभी तक किसी भी सरकार ने इस बदलाव पर ध्यान नहीं दिया है। बंटवारे के बाद संविधान सभा के 299 सदस्यों ने भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया था, लेकिन आपातकाल के दौरान विपक्ष की लगभग गैर-मौजूदगी में इंदिरा सरकार ने 11 नवंबर, 1976 को संसद में 42वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कराया, जो 3 जनवरी, 1977 को लागू हुआ। इसी संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में ‘सेकुलर’ व ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़े गए, पर इनकी परिभाषा या व्याख्या तय नहीं की गई। यही कारण रहा कि बहुतायत लोग ‘सेकुलर’ शब्द का अर्थ गलत संदर्भों में ‘धर्मनिरपेक्ष’ ही समझते हैं, जबकि सही अर्थ होना चाहिए ‘पंथनिरपेक्ष’।

भारतीय संदर्भ में सेकुलर शब्द से जो भाव उत्पन्न होता है, वह हमें ‘अनेकता में एकता’ के भारतीय मूल मंत्र की ओर ले जाता है। हमारी पूजा-प्रार्थना पद्धतियां अलग हैं, फिर भी सभी भारतीय एक हैं, यही भाव ‘सेकुलर’ शब्द में निहित होना चाहिए। लेकिन ’धर्मनिरपेक्ष’ के रूप में इसका अनुवाद प्रचलित होने से भ्रम पैदा होता है। भारतीय संदर्भ में ‘धर्म’ का अर्थ अंग्रेजी का ‘रिलीजन’ नहीं होता, बल्कि कर्तव्य होता है। यही वजह है कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्येय वाक्य है- यतो धर्मस्ततो जय: यानी जहां धर्म है, वहीं विजय है। यहां धर्म का मतलब है न्याय। इसी तरह, लोकसभा का ध्येय वाक्य है- धर्मचक्र-प्रवर्तनाय यानी धर्म चक्र चलाने वाली सभा। यहां किसी ‘रिलीजन’ विशेष की बात रत्ती भर भी नहीं है। सवाल है कि इंदिरा सरकार को संविधान का मूल चरित्र बदलने की जरूरत क्यों पड़ी? कांग्रेस की अब तक की राजनीति को देखते हुए इस प्रश्न का उत्तर खोजना कठिन नहीं है। अधिसंख्य हिंदू वोट बहुत सारी पार्टियों में बंट जाते हैं, जबकि मुस्लिम वोट को अगर साध लिया जाए, तो सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना आसान हो जाता है। कांग्रेस के अलावा बाद में बहुत-सी क्षेत्रीय पार्टियों के उभार वाले दौर में भी राजनीति का यही नजरिया दिखाई देता है। स्पष्ट है कि 42वां संविधान संशोधन लागू होने के साथ ही देश में तुष्टीकरण की राजनीति का उदय हुआ। हालांकि हाल के कुछ चुनावी नतीजों पर निगाह डालें तो अब मुस्लिम वोट केवल मुसलमानों के हित साधने का भ्रामक दावा करने वाली पार्टियों की ओर केंद्रित होने लगे हैं। इस हिसाब से यह राजनीति का नया दौर है।

तुष्टीकरण की राजनीति को अपनी सियासत का केंद्रीय आधार बनाने का ही नतीजा है कि देश की राजनीति में कांग्रेस हाशिये पर पहुंच गई है। आपातकाल अगर गलती थी, तो उस दौरान किए गए सभी कार्यों को वापस लेना भी गलत नहीं होगा। 42वें संविधान संशोधन के जरिए सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय की शक्तियां कम कर दी गई थीं। संविधान संशोधन विधेयकों को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया था। आपातकाल के दौरान ही इंदिरा गांधी ने 1975 में 39वां संविधान संशोधन कर राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व लोकसभा अध्यक्ष से जुड़े विवाद को अदालत के क्षेत्राधिकार से बाहर कर दिया था, जिन्हें बाद में बहाल किया गया। इसका कारण यह था कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनारायण की याचिका पर इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द कर दी थी, जो आपातकाल लगाने का मुख्य आधार बनी। पर 42वें संविधान संशोधन के जरिए इंदिरा गांधी ने ऐसी व्यवस्था कर दी कि ऊपर के पदों से संबंधित कोई विवाद अदालत में नहीं पहुंचे।

सेकुलर भारत में आपका स्वागत है!
गुरुग्राम- एक आदमी कहता है कि रात में नमाज पढ़कर लौटते समय लोगों ने मेरी टोपी उतरवाई, जय श्रीराम के नारे लगवाए और मेरी पिटाई की। उसके इतना कहने भर से भारत के कई बड़े ‘ब्लू टिक’ वाले ट्विटर हैंडल से एक के बाद एक अनगिनत ट्वीट होते हैं। मीडिया पहुंचती है, उस शख्स का बाइट चैनल पर छा जाता है। देखते ही देखते यह देश की सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है। बरखा दत्त और राणा अयूब विदेशी अखबारों में बड़े-बड़े लेख लिखती हैं और नरेंद्र मोदी की इस प्रचंड जीत को बड़ी चालाकी से ‘कट्टरवाद’ की जीत का तमगा दे दिया जाता है।
मथुरा- एक गरीब, भरत यादव लस्सी की दुकान चलाता है। यही उसके परिवार की जीविका का एकमात्र स्रोत है। करीब 15 लोग नमाज पढ़कर लौटते वक्त उसकी दुकान पर लस्सी पीते हैं। भरत यादव खुशी-खुशी लस्सी पिलाता है, क्योंकि 15 ग्राहक एक साथ कभी-कभी ही आते हैं। लस्सी पीकर सभी 15 लोग पैसे देने से मना कर देते हैं। फिर भी वह हिम्मत करके पैसे मांगता है। पैसे मिलना तो दूर, वे लोग उसे तब तक पीटते हैं, जब तक उसकी जान न निकल जाए। जान गई भरत यादव की, जिंदा लाश बन गया उसका पूरा परिवार। खाने को तरसेंगे उसके बच्चे, लेकिन न यह ब्रेक्रिंग न्यूज बनता है, न ‘ब्लू टिक’ ट्विटर हैंडल वाले ट्वीट करते हैं, न इस पर गौतम गंभीर दिखते हैं और न बरखा व अयूब विदेशी अखबार में लेख लिखती हैं। भारत ने ऐसे अनगिनत भरत खोए हैं। सेकुलर भारत में आपका स्वागत है!
– अभिषेक कुमार जैन की फेसबुक वॉल से

संशोधन विधेयक के जरिए संविधान में इतने बड़े स्तर पर बदलाव किए गए कि उस विधेयक को ‘लघु संविधान’ कहा जाता है। इस संशोधन में नागरिकों के लिए मौलिक कर्तव्य संविधान में जोड़े गए। राष्ट्रपति को कैबिनेट का फैसला मानने के लिए बाध्य किया गया तथा लोकसभा व राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल पांच से बढ़ाकर छह साल किया गया। संसद को राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए कानून बनाने की शक्ति व राष्ट्रपति शासन की अवधि छह माह से बढ़ाकर कम से कम एक साल कर दी गई। राज्यों में कानून व्यवस्था की गंभीर स्थिति से निपटने के लिए केंद्र को अर्धसैनिक बल भेजने का अधिकार दिया गया। संसद व विधानसभाओं में कोरम की व्यवस्था समाप्त कर दी गई, पर 1997 में 43वें संविधान संशोधन में सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के अधिकार बहाल करने के साथ राष्ट्र विरोधी गतिविधियों से निबटने के लिए संसद को कानून बनाने की जो शक्ति दी गई थी, उसे समाप्त कर दिया गया। इसी तरह, 44वें संशोधन विधेयक के जरिए 1978 में लोकसभा व विधानसभाओं का कार्यकाल घटा कर पांच साल किया गया।

कोरम की व्यवस्था भी बहाल की गई। यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति कैबिनेट की सिफारिशों को एक बार लौटा सकते हैं, पर दूसरी बार वे इन्हें मानने के लिए बाध्य होंगे। लेकिन संविधान की प्रस्तावना में किए गए संशोधन पर किसी भी सरकार ने स्पष्ट तौर पर अब तक विचार नहीं किया है और न ही इस विषय पर देश में कोई मुखर बहस हुई है। दिसंबर 2017 में भाजपा नेता अनंत कुमार हेगड़े ने कर्नाटक के कोप्पल जिले में एक कार्यक्रम में कहा था, ‘‘कुछ लोग कहते हैं कि सेकुलर शब्द है, तो आपको मानना पड़ेगा, क्योंकि यह संविधान में है। हम इसका सम्मान करेंगे, पर यह आने वाले समय में बदलेगा। संविधान में पहले भी कई बदलाव हुए हैं। अब हम हैं और हम संविधान बदलने आए हैं।’’ अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 1998 में संविधान की समीक्षा के लिए समिति बनाई थी। तब आरोप लगाया गया कि यह संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित करने का प्रयास है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ और आरक्षण को खत्म करने की कोशिश है।

2015 में शिवसेना भी संविधान की प्रस्तावना से सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग कर चुकी है। विवाद तब खड़ा हुआ, जब एक सरकारी विज्ञापन में संविधान की जो प्रस्तावना प्रकाशित हुई, उसमें दोनों शब्द नहीं थे। शिवसेना की मांग के बाद तत्कालीन दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि सरकार संविधान को 1950 वाले मूल रूप में ही प्रस्तुत करती रहेगी। दोनों शब्दों पर बहस होनी चाहिए, पता चलना चाहिए कि देश क्या चाहता है। संविधान निर्माताओं को दोनों शब्द जोड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। उन्होंने सवाल किया कि बाबासाहेब व जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं को क्या पंथनिरपेक्षता की समझ नहीं थी?

संविधान की प्रस्तावना से सेकुलर व सोशलिस्ट शब्द हटाने की मांग वाली एक याचिका जुलाई 2020 में शीर्ष अदालत में दाखिल की गई। याचिका में जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए (5) में शामिल समाजवाद और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी रद्द करने की मांग की गई। कहा गया कि 42वां संविधान संशोधन विधेयक संसद में बिना बहस के पारित किया गया था। याचियों का तर्क है कि संविधान सभा के सदस्य के.टी. शाह ने 15 नबंवर, 1948, 25 नवंबर, 1948 व 3 दिसंबर, 1948 को सेकुलर शब्द को शामिल करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन हर बार उसे अमान्य कर दिया गया। बाबासाहेब भी इस प्रस्ताव के विरोध में थे। यह तर्क भी दिया गया है कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 27 ‘धर्मनिरपेक्षता’ की बात करते हैं। यानी सरकार किसी के साथ धर्म, भाषा, जाति, स्थान या वर्ण के आधार पर विभेद नहीं करेगी। लेकिन अनुच्छेद 25 नागरिकों को पांथिक आजादी का हक देता है। इसलिए लोग पंथनिरपेक्ष नहीं होते, बल्कि सरकार पंथनिरपेक्ष होती है। याचिका में शीर्ष अदालत से मांग की गई है कि वह ऐसा निर्णय दे कि समाजवादी व पंथनिरपेक्ष सिद्धांतों का पालन करने के लिए सरकार लोगों को मजबूर नहीं कर सकती। 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सीकरी की अध्यक्षता वाली 13 सदस्यीय पीठ ने ‘केशवानंद भारती बनाम स्टेट आॅफ केरल’ मुकदमे में फैसला दिया था कि अनुच्छेद-368 के अनुरूप संविधान में संशोधन किया जा सकता है। इसमें सात न्यायाधीशों ने बहुमत से फैसला दिया कि संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे में बदलाव नहीं किया जा सकता और कोई भी संविधान संशोधन प्रस्तावना की मूल भावना के अनुरूप ही होना चाहिए। संसद की शक्तियां भी संविधान के प्रावधानों से नियंत्रित हैं। 1994 में भी शीर्ष अदालत की नौ सदस्यीय पीठ ने इसे बरकरार रखा। सवाल है कि सरकार को संविधान की प्रस्तावना बदलने का अधिकार नहीं है, तो आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार ने किस शक्ति के आधार पर ऐसा किया? केशवानंद भारती मामले में निर्णय के बाद मूल प्रस्तावना को स्वयं ही बहाल मान लिया जाना चाहिए था, पर यह कदम उठाने का साहस किसी ने क्यों नहीं किया?

2015 में बाबासाहेब की 125वीं जयंती के अवसर पर तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा था कि बाबासाहेब ने संविधान की प्रस्तावना में ‘सोशलिज्म’ और ‘सेकुलरिज्म’ शब्दों का प्रयोग शायद इसलिए नहीं किया, क्योंकि वे यह मानकर चलते थे कि भारत की मूल प्रकृति, मूल स्वभाव में ही ये भाव समाहित हैं। प्रस्तावना में अलग से इसका उल्लेख

करने की आवश्यकता नहीं है। आज की राजनीति में सर्वाधिक दुरुपयोग किसी शब्द का हो रहा है, तो वह है सेकुलर। यह दुरुपयोग रुकना चाहिए।

प्रस्तावना में क्यों नहीं जोड़ा गया सेकुलर
संविधान सभा में 17 अक्तूबर, 1949 को संविधान की प्रस्तावना पर बहस हुई थी। सभा के सदस्य एच.वी. कामत, शिब्बन लाल सक्सेना और पं. गोविंद मालवीय ने प्रस्ताव रखा कि संविधान की प्रस्तावना ईश्वर के नाम के साथ शुरू की जाए। लेकिन यह प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। उसी दिन ब्रजेश्वर प्रसाद ने ‘सेकुलर’ व ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा। संविधान सभा का मत था कि भारत के लोगों की पहचान सांप्रदायिक नहीं होनी चाहिए, पर सेकुलर शब्द प्रस्तावना में नहीं जोड़ा गया। सभा के सदस्य तजामुल हुसैन ने कहा था कि ‘रिलीजन’ की शिक्षा देने का अधिकार माता-पिता के पास ही होना चाहिए और घर में ही इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए। साथ ही, यह मांग रखी कि किसी भी व्यक्ति को पांथिक पहचान वाले कपड़ों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होनी चाहिए।
प्रस्तावना में सेकुलर शब्द नहीं जोड़ने के तीन कारण थे। संविधान की सेकुलर प्रकृति के कारण नागरिकों को पूजा करने की स्वतंत्रता तो मिलती, लेकिन वे ‘रिलीजन’ का प्रचार नहीं कर सकते थे। दूसरा, अगर सरकारी तंत्र सेकुलर हुआ तो एससी, एसटी, अल्पसंख्यक व आरक्षित वर्ग नहीं बनाए जा सकते थे। सभी को एक ही श्रेणी में रखना पड़ेगा। राष्ट्र को अगर सेकुलर घोषित किया जाता तो मजहब के आधार पर ‘पर्सनल लॉ’ नहीं हो सकते थे। इसकी बजाए समान आचार संहिता अपनानी पड़ती। आंबेडकर भी समान आचार संहिता के पक्ष में थे। किंतु इस पर सर्वसम्मति नहीं बन पाई। 25 मई, 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा कि सब यह भूल जाएं कि देश में कोई अल्पसंख्यक है या बहुसंख्यक है। भारत में एक ही समुदाय है-भारतीय।

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