दारा शिकोह और औरंगजेब शाहजहां के पुत्र थे। पिता एक था परंतु दोनों भाईयों की सोच में दिन रात का अंतर था। दारा शिकोह सहिष्णु, सर्वधर्म समादर भाव, भारतीय संस्कृति को मानने वाला जबकि औरंगजेब क्रूर इस्लामिक जिहादी.
देश का दुर्भाग्य है कि औरंगजेब भारत का शासक बना और हमारे इतिहासकारों ने भी उसी का ही महिमामंडन किया। इसकी परिणति देश विभाजन के रूप में सामने आई। अगर भारत में इस्लाम दारा शिकोह को आदर्श मान कर चलता तो शायद इस्लाम के नाम पर देश का विभाजन भी न होता और आज सांप्रदायिकता की समस्या भी मुंह बाए न खड़ी दिखती।
दारा को सूफियों, मनीषियों और सन्यासियों की संगत अच्छी लगती थी। अलग-अलग धर्मों में गहरी रुचि थी। वे विश्वबंधुत्व, हिंदू और इस्लाम धर्म के बीच शांति और विभिन्न धर्मों, संस्कृति और दर्शन में मेलजोल चाहते थे। प्रारंभिक शिक्षा-दिक्षा के बाद उन्होंने एक शानदार किताब लिखी- मजमा-उल-बहरीन (दो सागरों का मिलन)। यह सूफी मत और हिन्दू एकेश्वरवाद के बीच समानता पता लगाने का एक बेहतरीन प्रयास था। दारा मानते थे कि उपनिषदों का ‘सबसे बड़ा रहस्य’ एकेश्वरवाद के संदेश में है। यह बिलकुल वैसा ही है, जिस पर कुरान आधारित है। उन्होंने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था।
दारा को 1633 में युवराज बनाया गया और उसे उच्च मंसब प्रदान किया गया। 1645 में इलाहाबाद, 1647 में लाहौर और 1649 में वह गुजरात का शासक बना। 1653 में कंधार में हुई पराजय से इसकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा। फिर भी शाहजहां उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में देखता था, जो दारा के अन्य भाइयों को स्वीकार नहीं था। शाहजहां के बीमार पड़ऩे पर औरंगजेब और मुराद ने दारा के काफिर (धर्मद्रोही) होने का नारा लगाया। युद्ध हुआ। दारा दो बार, पहले आगरे के निकट सामूगढ़ में (जून, 1658) फिर अजमेर के निकट देवराई में (मार्च, 1659), पराजित हुआ। अंत में 10 सितंबर 1659 को दिल्ली में औरंगजेब ने उसकी हत्या करवा दी। दारा का बड़ा पुत्र औरंगजेब की क्रूरता का भाजन बना और छोटा पुत्र ग्वालियर में कैद कर दिया गया।
सूफीवाद और तौहीद के जिज्ञासु दारा ने सभी हिन्दू और मुसलमान संतों से सदैव संपर्क रखा। ऐसे कई चित्र उपलब्ध हैं जिनमें दारा को हिंदू संन्यासियों और मुसलमान संतों के संपर्क में दिखाया गया है। वह प्रतिभाशाली लेखक भी थे। सफीनात अल औलिया और सकीनात अल औलिया उसकी सूफी संतों के जीवनचरित्र पर लिखी हुई पुस्तकें हैं। रिसाला ए हकनुमा (1646) और ‘तारीकात ए हकीकतÓ में सूफीवाद का दार्शनिक विवेचन है। ‘अक्सीर ए आजम’ नामक उसके कवितासंग्रह से उसकी सर्वेश्वरवादी प्रवृत्ति का बोध होता है। उसके अतिरिक्त हसनात अल आरिफीन और मुकालम ए बाबालाल ओ दाराशिकोह में धर्म और वैराग्य का विवेचन हुआ है। मजमा अल बहरेन में वेदान्त और सूफीवाद के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है। 52 उपनिषदों का अनुवाद उसने ‘सीर-ए-अकबर (सबसे बड़ा रहस्य) में किया है।
हिंदू दर्शन और पुराणशास्त्र से उसके सम्पर्क का परिचय उसकी अनेक कृतियों से मिलता है। उनके विचार ईश्वर का वैश्विक पक्ष, द्रव्य में आत्मा का अवतरण और निर्माण तथा संहार का चक्र जैसे सिद्धांतों के निकट परिलक्षित होते हैं। दारा का विश्वास था कि वेदांत और इस्लाम में सत्यान्वेषण के सबंध में शाब्दिक के अतिरिक्त और कोई अंतर नहीं है। दारा कृत उपनिषदों का अनुवाद इस्लाम और वेदांत के एकीकरण में महत्वपूर्ण योगदान है।
राजनीतिक परिस्थितियों वश दारा में नास्तिकवाद की ओर रुचि हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। बाल्यकाल से ही उसमें अध्यात्म के प्रति लगाव था। यद्यपि कुछ कट्टर मुसलमान उसे धर्मद्रोही मानते थे, तथापि दारा ने इस्लाम की मुख्य भूमि को नहीं छोड़ा। उसे धर्मद्रोही करार दिए जाने का मुख्य कारण उसकी सर्व-धर्म-सम्मिश्रण की प्रवृत्ति थी जिससे इस्लाम की स्थिति के क्षीण होने का भय था। दारा एक प्रगतिशील इस्लाम के प्रतीक हैं और औरंगजेब कट्टर इस्लाम के, लेकिन दुर्भाग्य रहा कि प्रगतिशील इस्लाम को इस देश में प्रोत्साहन नहीं मिला और कट्टरता फैलती गई। आज जब दुनिया इस्लामिक आतंकवाद जैसे वैश्विक खतरे का सामना कर रही है तो अल्लाह में ईमान लाने वालों को तय करना होगा कि उन्हें किसका अनुसरन करना है ? दारा का या औरंगजेब का। दारा मार्ग है वैश्विक शांति, प्रगतिशीलता, संपन्नता, शांति-भाईचारे का और औरंगजेब का मार्ग है हिंसा, असहिष्णुता, जिहादी उन्माद का। निर्णय लोगों के हाथ में है।
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