दिल्लीपति महाराज अनंगपाल

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दिल्ली किसकी विरासत है, इस बात को लेकर भ्रम पैदा किया गया। छद्म इतिहासकारों के छल के कारण तोमर वंश के महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय का योगदान, उनकी भूमिका और चरित्र इतिहास में दबा रह गया। इस शृंखला में हम उनके कार्य और चरित्र के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगेपत्थरों के वक्ष पर

समय के आलेख विधाता के स्मृति चिह्न बन अमिट हो जाते हैं। आज से 7,000 वर्ष पूर्व राखीगढ़ी (हरियाणा) में जो पत्थर दबे पड़े मिले, दीवारें और घर, घट और मरघट— वे सब पुराविदों के साथ संवाद करने लगे और अपनी आपबीती व अपने समय की गाथा ही नहीं, बल्कि रसोई में क्या पकता था और जन्म तथा मृत्यु के क्या संस्कार थे, यह भी कह बैठे। ये स्मृति लेख राष्ट्र की धरोहर होते हैं और जीवंत राष्टÑ उन्हें पढ़कर नई पीढ़ी को बताते हैं कि यह है तुम्हारी पहचान, तुम्हारे पुरखों का इतिहास और उनकी जय-पराजय की गाथा।
ऐसी ही गाथा सुहेलदेव की मिली तो लोग चौंक गए, क्योंकि उनके बारे में कभी किसी ने कुछ कहा हो, ऐसा विशेष ध्यान में नहीं आता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विख्यात लेखक अमीश त्रिपाठी ने सुहेलदेव को घर-घर चर्चा का, स्मरण का विषय बना दिया। नरेंद्र मोदी ने सुहेलदेव की मूर्ति के अनावरण के समय जो एक पंक्ति कही वह बहुत समीचीन और मार्मिक है— ‘‘इतिहास निर्माताओं के प्रति इतिहास लेखकों के अन्याय को अब ठीक किया जा रहा है।’’
बहुत गहरा अर्थ है इसका। पुराना किला में कुछ महीने पहले मैं दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम देखने गया तो जिन लोगों ने दिल्ली को लूटा, जलाया और यहां नरसंहार किए, उन्हें उर्दू, फारसी भाषा की वार्ता में दिल्ली के इश्क में डुबे हुए बादशाह बताया गया। यहां न तो दिल्ली की सिख विजय का वर्णन था और न ही मराठों द्वारा लाल किले से किए गए राज का। मानो उनका कुछ अस्तित्व ही नहीं। भला हो मोदी सरकार का कि संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री प्रह्लाद पटेल जी ने उस कार्यक्रम को वापस लेकर पुन: निर्माण और समीक्षा के लिए भिजवाया ताकि जब दिल्ली पर सिखों ने विजय प्राप्त की, वह भी उसमें जुड़े और मराठों का पराक्रम भी।
एक ऐसा ही आश्चर्यजनक विषय रहा दिल्ली के संस्थापक महाराजा का। इंद्रप्रस्थ था और है, यह सत्य है। पद्मविभूषण से अलंकृत पुरातत्वशास्त्री प्रो. बृजबासी लाल ने इस पर काफी शोध किया है, पुस्तक भी लिखी है। लेकिन इंद्रप्रस्थ के आंचल में ढिल्लिकापुरी बसी, फली-फूली और आज तक चली आ रही है दिल्ली के रूप में, यह कितने लोग जानते हैं? भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के ब्रिटिशकालीन अधिकारियों जैसे लार्ड कनिंघम से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में डॉ. बुद्ध रश्मि मणि तक अनेक विद्वान इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने ढिल्लिकापुरी के अनेक प्रस्तर अभिलेख और संस्कृत के उद्धरण उत्खनित कर खोज निकाले, जिनसे सिद्ध होता है कि महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय ने महरौली के पास विष्णु स्तंभ की स्थापना कर जो नगरी बसाई वह स्वर्ग जैसी मनोहर ढिल्लिकापुरी थी।
वर्तमान राष्टÑपति भवन जब मूल वायसराय पैलेस के रूप में बन रहा था तो रायसीना के पास सरबन गांव में जो प्रस्तर अभिलेख मिले उनमें ढिल्लिकापुरी का मनोहारी वर्णन है। ये प्रस्तर खंड पुराना किला के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें से एक पर लिखा है- (जो विक्रम संवत् 1384 की तिथि बताता है)
देशास्ति हरियाणाख्य: पृथिव्यां स्वर्गसन्नमि:।
ढिल्लिकाख्या पुरी तत्र तोमरैरस्ति निर्मिता।।
इस धरती पर हरियाणा नाम का प्रदेश है, जो स्वर्ग के सदृश है, तोमरों द्वारा निर्मित ढिल्लिका नाम का नगर है। वही ढिल्लिका कालांतर में दिल्ली नाम से जानी गई, जिसे अंग्रेजों के समय अलग अंग्रेजी वर्तनी के साथ देहली कहा गया। महाराजा अनंगपाल तोमर का बड़ा पराक्रमी और शौर्यवान इतिहास है। उन्होंने महरौली के पास 27 विराट सनातनी, जैन मंदिर बनवाए थे। उनके द्वारा एक सुंदर छोटी झील अनंगताल का निर्माण किया गया। फरीदाबाद के पास अनंगपुर गांव है, अनंग बांध है और अनंगपुर दुर्ग है। महाराजा अनंगपाल द्वितीय के द्वारा जैन भक्ति का प्रकटीकरण भी प्रचुर मात्रा में हुआ। कुतुब मीनार तथा कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद इन्हीं मंदिरों को तोड़कर उन मूर्तियों को दीवारों में लगाकर बनाई गई। आज भी वहां गणपति की अपमानजनक ढंग से लगाई गई मूर्तियां, महावीर, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां, दशावतार, नवग्रह आदि के शिल्प दीवारों तथा छतों पर स्पष्ट रूप से लगे दिखते हैं। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अनंगपाल के 300 साल बाद उनके द्वारा बनाए मंदिरों का ध्वंस कर कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनवाई थी।
अनंगपाल केवल अपने विराट, सुंदर महलों और मंदिरों के लिए ही नहीं जाने गए, बल्कि वे लौह स्तंभ, जो वस्तुत: विष्णु ध्वज स्तंभ है, 1052 ई. में उदयगिरी से लाए। यह बात विष्णु ध्वज स्तंभ पर अंकित लेख से स्पष्ट है। कनिंघम ने उस लेख को सम् दिहालि 1109 अन्तगपाल वहि पढ़ा था और अर्थ किया था संवत् 1109 अर्थात् 1052 ई. में अनंगपाल ने दिल्ली बसाई।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ओम जी उपाध्याय का कहना है कि महाराज अनंगपाल द्वितीय के समय श्रीधर ने पार्श्वनाथ चरित नामक ग्रंथ की रचना की तथा उसमें अपने आश्रयदाता नट्टुल साहू का प्रशंसात्मक विवरण देने के बाद दिल्ली का भी वर्णन किया। इस ग्रंथ में अनंगपाल द्वारा हम्मीर को पराजित किए जाने से संबंधित पंक्तियां लिखी हैं, जिनका अर्थ विद्वानों ने अलग-अलग प्रकार से किया है। इस क्रम में अपभ्रंश के मान्य विद्वान और विश्व भारती शांति निकेतन के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. राम सिंह तोमर ने जो अनुवाद किया, वह निम्नवत है-
‘‘मैं ऐसा समझता हूं- जहां प्रसिद्ध राजा अनंगपाल की श्रेष्ठ तलवार ने रिपुकपाल को तोड़ा, बढ़े हुए हम्मीर वीर का दलन किया, बुद्धिजन वृंद से चीन प्राप्त किया। बौद्ध-सिद्धों की रचनाओं में एक स्थान पर उभिलो चीरा मिलता है, जिसका अभिप्राय होता है- यशोगान किया या ध्वजा फहराई। इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि दिल्ली के महाराज अनंगपाल द्वितीय ने तुर्क को पराजित किया था तथा यह तुर्क इब्राहिम ही था।’’
दिल्ली के संस्थापक महाराज के रूप में अनंगपाल का स्मरण दिल्ली के मूल वास्तविक परिचय का स्मरण है। इस संबंध में सरकार और समाज मिलकर कुछ बड़ा अभियान छेड़ें, दिल्ली के स्वदेशी गौरव की पुन: स्थापना हो, इसका अब समय आ गया है।
(लेखक पूर्व सांसद तथा संस्कृति लेखक हैं)

कौन थे अनंगपाल
महाराजा अनंगपाल द्वितीय तोमर वंश के राजा थे। इन्होंने 1052 से 1081 ई. तक यानी 29 साल 6 माह और 18 दिन दिल्ली पर शासन किया और इसे समृद्ध बनाया। कुव्वत-उल-इस्लाम और अन्य मौखिक किंवदंतियों के अनुसार, अनंगपाल द्वितीय ने 27 मंदिर और एक महल का निर्माण कराया था। इनमें से एक विख्यात योगमाया मंदिर कुतुब मीनार के पीछे स्थित है। अमीर खुसरो ने भी महाराजा अनंगपाल द्वितीय के बनवाए महल का उल्लेख किया है।

दिल्ली के संस्थापक मुगल नहीं थे
दिल्ली के संस्थापक मुगल नहीं थे, बल्कि अनंगपाल द्वितीय द्वारा स्थापित ढिल्लिका/ ढिल्ली ही आज की दिल्ली है। इसके बारे में बिजौलिया, सरबन और अन्य संस्कृत शिलालेखों में उल्लेख मिलता है। 10वीं सदी में गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद तोमर वंश अस्तित्व में आया। इस वंश ने यमुना के किनारे अरावली पहाड़ियों के दक्षिण में योगिनीपुरा में अपने साम्राज्य की स्थापना की। गुर्जर प्रतिहारों के बाद इस वंश ने कन्नौज पर भी शासन किया। इंद्रप्रस्थ के वैभव खोने के बाद महाराजा अनंगपाल द्वितीय ने अरावली के पिछले हिस्से में 11वीं सदी के मध्य में लाल कोटोर (लाल कोट) नामक सशक्त नगर बसाया था, जो ढिल्ली/ढिल्लिका का हिस्सा था।

तोमर वंश के 16वें राजा
इतिहासकार कनिंघम ने अबुल फजल द्वारा लिखित ‘आइन-ए-अकबरी’ तथा बीकानेर, ग्वालियर, कुमाऊं और गढ़वाल से मिली पाण्डुलिपियों से तोमर वंश का पता लगाया था। इन दस्तावेजों के अनुसार, तोमर वंश के शासनकाल की शुरुआत 8वीं सदी में ही हुई थी। इस वंश के 19 शासकों की सूची में महाराजा अनंगपाल तोमर द्वितीय का उल्लेख है। उन्हें तोमर वंश का 16वां राजा माना जाता है। पालम बावली से मिले साक्ष्य स्पष्ट रूप से बताते हैं कि तोमर वंश ने सबसे पहले हरियाणका (हरियाणा) की भूमि पर शासन किया। यहां से प्राप्त अभिलेख में ढिल्लीपुरा का उल्लेख है, जिसे योगिनीपुरा नाम से भी जाना जाता था। गुप्त-प्रतिहार काल के ये पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि इस क्षेत्र में एक मंदिर था, जिसे योगिनीपुरा कहा जाता था। बाद में तोमर वंश के शासन काल में इसका नाम ढिल्ली या ढिल्लिका पड़ा। इसके अलावा, मुहम्मद बिन तुगलक कालीन 1328 ई. का सरबन शिलालेख भी इसका अंतिम प्रमाण है। यह शिलालेख सरबन सराय में पाया गया था, जो आज राजपथ कहलाता है। इस अभिलेख के अनुसार, सरबन इंद्रप्रस्थ के प्रतिगण (परगना) में पड़ता था।

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