स्विट्जरलैंड जैसे पंथनिरपेक्ष देश के लोगों ने पिछले हफ्ते एक असाधारण मत संग्रह में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का या इस प्रकार का कोई भी परिधान पहनने पर प्रतिबंध लगाने को उचित ठहराया। यह कदम वहां के ‘सीधे लोकतंत्र’ के सिद्धांत पर आधारित है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि स्विट्जरलैंड की सरकार या संसद साधारणतया कानून नहीं बनाती, लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों को सीधे जनता के बीच ले जाती है, फिर उन पर मत संग्रह कराने के बाद कानून बनाया जाता है। यह सीधे-सीधे वहां की जन भावना को दर्शाता है कि बुर्का या अन्य कोई इस्लामिक परिधान अब देश में मंजूर नहीं होगा।
यूरोप के अधिकतर लोग काफी खुले विचारों के रहे हैं और धार्मिक क्रिया-कलापों को अधिक महत्व नहीं देते। उनका मानना है कि मजहब-मत सभी का अपना-अपना निजी मुद्दा है और जो, जैसे चाहे, इसका पालन कर सकता है। यूरोप के अधिकतर देशों की संवैधानिक संरचना इसी आधार पर बनाई गई थी। अत: कोई नागरिक कैसे कपड़े पहने या पूजा-प्रार्थना करे, इस पर कोई प्रतिबंध नहीं था। यह व्यवस्था 18वीं शताब्दी से 20वीं शताब्दी के बीच लोगों के व्यवहार और परिस्थितियों के कारण बनाई गई। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हुई ज्यादतियों के कारण अल्पसंख्यक समूहों के अधिकारों के प्रति संवेदना बढ़ी और उनके हर छोटे से छोटे अधिकार को भी महत्वपूर्ण माना गया। इसी कड़ी में इस्लामिक कानूनों और प्रतीकों को समाज में स्थान दिया गया। लगभग सभी यूरोपीय देशों में 1990 के दशक तक कमोबेश यही स्थिति थी।
1990 तक संचार के साधन बहुत सीमित थे। संचार के जो साधन थे भी तो उनमें से अधिकतर स्थानीय मुद्दों पर विचार करते थे। दूर-दराज के देशों में क्या हो रहा है, जन सामान्य को इसका पता ही नहीं चलता था। इसके अलावा, संचार के अधिकतर माध्यम वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। वे कभी भी मुस्लिम देशों में महिलाओं व अन्य अल्पसंख्यक समूहों की बदहाली की सही जानकारी नहीं देते थे। आज भी वामपंथी विचारधारा के लोग इस्लामिक कट्टरपंथियों के मित्र के रूप में उनके कुकृत्यों पर परदा ही डालते हैं। इन्हीं कारणों से सभी यूरोपीय देशों में छद्म पंथनिरपेक्षता का बोलबाला था। राष्ट्रवादी शक्तियों को दानव के रूप में दिखाया जाता रहा और जन सामान्य भी उन्हें ऐसा ही समझता रहा। लेकिन अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के बाद परिस्थितियां तेजी से बदलीं। इंटरनेट युग की शुरुआत हुई और स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय संचार साधनों का भी विकास हुआ। लिहाजा, एक देश की खबरें क्षण भर में दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचने लगीं और इस्लामिक आतंकवादियों की करतूतें भी दुनिया के सामने आने लगीं।
यूरोप के लोग पहले यही मानते रहे कि उनके देश में मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं और वे अपने समाज को ही इसके लिए दोषी ठहराते रहे, बाद में उन्हें पता चला कि वास्तव में ऐसा है ही नहीं। मुसलमान केवल उनके देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी देश में समाज की मुख्य धारा से जुड़ नहीं पा रहे और निरंतर अपनी मांगों के प्रति आक्रामक हो रहे हैं। उनकी अधिकतर मांगें सांप्रदायिक और कट्टपंथी विचारों से संबद्ध थीं, जिनका उस देश के समाज या आर्थिक व्यवस्था से खास लेना-देना नहीं था। उन्होंने यह भी पाया कि ऐसी अधिकतर गतिविधियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संगठित रूप से फैलाई जा रही हैं। समुदाय के लोगों को भड़काने के लिए कट्टरपंथी महजबी स्थलों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन मीडिया में बैठे वामपंथी हर जगह उसी देश के जन सामान्य, वहां के समाज और रीति-रिवाजों को दोषी ठहराते हुए कट्टरपंथियों को राजनीतिक सुरक्षा प्रदान करते रहते हैं। अगर हालात ऐसे भी होते तो शायद लोकतांत्रिक विचारों वाला यूरोपीय समाज इसे सहन कर लेता, लेकिन कुकुरमुत्ते की तरह हर देश में इस्लामिक आतंकी संगठन पनपने लगे, यूरोप के शांत शहरों में बम विस्फोट, गोलीबारी और सिर कलम जैसी आतंकी घटनाएं होने लगीं। यही नहीं, खुले विचारों वाली महिलाओं के साथ मुस्लिम बहुल इलाकों में अभद्रता और बलात्कार के मामले बढ़ने लगे तो उन्हें ‘अपवाद’ बता कर वामपंथी राजनीतिक और पत्रकार इस पर लीपापोती करने का प्रयास करते रहे। लेकिन यूरोप के प्रबुद्ध लोगों ने शीघ्र ही पाया कि मुसलमानों के जिन अधिकारों को लेकर इस्लामिक कट्टरपंथी उनके देशों में अशांति फैलाते हैं, वामपंथी या इस्लामिक देशों में उन्हीं अधिकारों की बात करना मृत्यु दंड का कारण बन जाता है।
21वीं शती में तालिबान, इस्लामिक स्टेट सहित अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों द्वारा लोगों की निर्मम हत्या और बलात्कार की खबरें टीवी, मोबाइल और सोशल मीडिया से तत्काल लोगों तक पहुंचने लगीं। तब बीबीसी, वाशिंगटन पोस्ट और ट्विटर जैसे संस्थानों में बैठे वामपंथी इन घृणित खबरों को छुपाने या ‘अपवाद’ बताने में नाकाम होने लगे। अब यूरोपीय लोगों खासकर युवाओं ने पाया कि वे अपने पास-पड़ोस के मुसलमानों की नाराजगी के लिए स्वयं को दोषी मानते रहे, जो सच नहीं था। वास्तव में मुसलमान खुली सोच वाले समाज से घृणा करते हैं और हर जगह अपने विचारों व सोच को स्थापित करने का सपना देखते हैं। उन्होंने यह भी पाया कि मुसलमान केवल अपनी महिलाओं को ही बुर्का या तीन तलाक आदि के लिए विवश नहीं करते, बल्कि इस समाज की महिलाओं को भी इसी रूप में देखना चाहते हैं। वे खुले विचारों वाली और पश्चिमी कपड़े पहनने वाली महिलाओं को चरित्रहीन मानते हैं। साथ ही, वे यह भी मानते हैं कि मुस्लिम महिलाओं पर इन सब का बुरा प्रभाव पड़ता है। यूरोपीय देशों में लोग जिन विचारों को पहले ‘साम्प्रदायिक’ कह कर खारिज कर देते थे, उन्हें मुसलमानों की गतिविधियां खटकने लगीं। किसी भी दृष्टि से महिलाओं को बुर्का, नकाब, हिजाब या अन्य रूढ़िवादी कपड़े पहनने के लिए बाध्य करना यूरोप के मूलभूत विचारों के विपरीत है। कट्टरपंथी मुसलमानों और इस्लामिक आतंकियों की हरकतों पर मुस्लिम समाज की चुप्पी से यूरोप का जन सामान्य आक्रोशित हो गया। नतीजा, समाज का दबाव ऐसी रूढ़िवादी ताकतों को रोकने के लिए बढ़ने लगा और जो राजनीतिक दल मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करते थे, वे हाशिए पर धकेले जाने लगे।
बुर्के पर प्रतिबंध की शुरुआत 2010 में स्पेन के बार्सिलोना शहर से हुई थी, जो धीरे-धीरे पूरे यूरोप में फैल रहा है। इस्लामिक पोशाकों पर इस प्रकार एक के बाद एक लग रहे प्रतिबंध स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि यूरोप का जनमानस अब इस्लामिक कट्टरपंथ के खतरों से सावधान हो चुका है और इस बात को समझने लगा है कि बुर्के जैसे प्रतीक मजहबी आजादी ही नहीं, बल्कि महिलाओं के विरुद्ध कट्टरपंथियों का एक मजहबी हथियार हैं। यही नहीं, अनेक इस्लामिक कुरीतियों जैसे कि हलाला, मस्जिदों और मदरसों में मजहबी शिक्षा आदि के विरुद्ध भी तेजी से जन जागरण हो रहा है। उदारवादी मुस्लिमों को ऐसे अभियानों से जुड़ना चाहिए और उन मजहबी कुरीतियों का पूरी शक्ति से विरोध करना चाहिए जो कट्टरपंथियों को शक्ति प्रदान करती हों। तभी यूरोप की पंथनिरपेक्ष जनता उन्हें खुशी-खुशी अपनाएगी।
इन देशों में भी बुर्के या नकाब पर पाबंदी
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स्पेन: इस देश के कई शहरों में बुर्के और नकाब पर प्रतिबंध है। हालांकि स्पेन की सर्वोच्च अदालत ने इसे मजहबी आजादी का उल्लंघन बताते हुए इस फैसले पर रोक लगा दी है, लेकिन यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का फैसला इसके विपरीत है। स्पेन के सबसे बड़े शहर बार्सिलोना में जून 2010 से इस पर प्रतिबंध है।
फ्रांस: अप्रैल 2011 में सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का पहनने पर प्रतिबंध लगाने वाला फ्रांस यूरोप का पहला देश है। कानून तोड़ने पर 150 यूरो जुर्माने के साथ नागरिकता भी निषिद्ध की जा सकती है, जबकि किसी महिला पर बुर्का पहनने के लिए दबाव डालने पर 30,000 यूरो जुर्माने का प्रावधान है।
बेल्जियम: यहां जुलाई 2011 से बुर्के पर प्रतिबंध है। कानून का उल्लंघन करने पर एक सप्ताह की कैद या 1300 यूरो तक जुर्माने का प्रावधान है।
आॅस्ट्रिया- इस देश में जनवरी 2017 में कानून बना, लेकिन बुर्के या नकाब पर प्रतिबंध अक्तूबर में लगा।
हॉलैंड: यहां 2015 से स्कूलों, अस्पतालों एवं सार्वजनिक परिवहन में बुर्का और नकाब प्रतिबंधित है।
इटली: यहां के संविधान के अनुच्छेद-8,9 और 21 के तहत लोगों को पांथिक पोशाक पहनने की आजादी है। लेकिन स्थानीय स्तर पर लॉम्बार्डी, नोवारा आदि में बुर्के व नकाब पर प्रतिबंध है। लॉम्बार्डी में बुर्के पर प्रतिबंध की सहमति 2015 में बनी थी, लेकिन लागू जनवरी 2016 में हुआ।
नीदरलैंड: यहां 2016 से बुर्के पर प्रतिबंध है और कानून का उल्लंघन करने पर 410 यूरो जुर्माने का प्रावधान है।
बुल्गारिया: यहां अक्तूबर 2016 से प्रतिबंध है। बुर्के पहनने पर जुर्माने के साथ ही महिलाओं को मिलने वाली सुविधाओं में कटौती की जाती है।
आस्ट्रिया: जनवरी 2017 में बुर्का या नकाब के विरुद्ध कानून बना, लेकिन नौ माह बाद अक्तूबर में लागू हुआ।
जर्मनी: यहां 2017 से सरकारी नौकरियों, सेना और वाहन चलाते समय बुर्का या नकाब पहनने पर रोक है। जुलाई 2020 में सरकार ने स्कूलों में भी इस पर प्रतिबंध लगा दिया।
डेनमार्क: यहां मई 2018 से सार्वजनिक स्थानों पर बुर्का पहनने पर पाबंदी है। कानून तोड़ने पर 157 डॉलर यानी करीब 11,000 रुपये जुर्माने का प्रावधान है।
रूस: यहां के स्ताव्रोपोल क्षेत्र में पहली बार हिजाब पर प्रतिबंध लगाया गया। जुलाई 2013 में देश का सर्वोच्च न्यायालय भी इसे सही ठहरा चुका है।
कैमरून: इस मध्य अफ्रीकी देश ने उत्तरी क्षेत्र के फोटोकोल में दो मुस्लिम फिदायीन महिलाओं के हमले के बाद जुलाई 2015 में बुर्के पर प्रतिबंध लगाया।
श्रीलंका: अप्रैल 2019 में ईस्टर के मौके पर हुए बम धमाकों के बाद बुर्का या नकाब पहनने पर पूर्ण पाबंदी है।
चीन: यहां मुसलमानों पर हर तरह की पाबंदी है। यह कम्युनिस्ट देश अपने हिसाब से मुसलमानों को कुरान पढ़ा रहा है।
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