राष्ट्रीय सम्मान और शांति के लिए शक्ति साधना आवश्यक
वैश्विक भू राजनीति के व्याप में भारत सुरक्षा की दृष्टि से आज जहां होना चाहिए वहां नहीं है। इसके पीछे ऐतिहासिक कारण हैं। पं. नेहरू ने सुरक्षा को पीछे रखते हुए अपनी शांतिप्रिय नेता की छवि बनाने के लिए जिस तरह चीन से धोखा खाया, और पाकिस्तान की धूर्तता बर्दाश्त की उसके चलते हमारी सैन्य तैयारी कमजोर रही। लेकिन अब वक्त करवट ले रहा है
समाज संगठित होते ही, बिखरा हुआ संपूर्ण सामर्थ्य शक्ति का एक प्रचंड रूप धारण करता है। विश्वास का यह वह श्रेष्ठ वाक्य है, जिसमें रा. स्व. संघ के दो सिद्धांत-व्यक्ति निर्माण और राष्टÑ निर्माण अंतर्निहित हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मूल अवधारणा यह है कि कोई समाज उतना ही महान होता है, जितने महान उसके घटक होते हैं। राष्टÑ के सुदृढ़ और समग्र विकास के लिए भारत के संविधान में भी सामाजिक एकता और विविधता में एकता पर जोर दिया गया है। संविधान हमें एक संघीय व्यवस्था में एक लोकतांत्रिक, समावेशी और समतावादी समाज के लिए ढांचा उपलब्ध कराता है जिसमें देश की प्रगति में हर भारतीय की एक हिस्सेदारी हो। संघ का दृष्टिकोण यही रहा है कि वास्तविक राष्टÑीय सम्मान और शांति के लिए अजेय राष्टÑीय शक्ति के निर्माण के अलावा कोई रास्ता नहीं है। दुनिया कमजोरों का दर्शन सुनने के लिए तैयार नहीं है, चाहे वह कितना भी उदात्त हो। दुनिया केवल शक्तिशाली की ही पूजा करती है। (बंच आॅफ थॉट्स, एम़ एस. गोलवलकर, अध्याय 22, पृ़ 270)।
बहु-आयामी अवधारणा
राष्टÑीय सुरक्षा एक बहु-आयामी अवधारणा है, जो मुख्य रूप से व्यापक राष्टÑीय शक्ति सुनिश्चित करने और इस प्रक्रिया के दौरान सामरिक क्षेत्र में पैर रखने से संबंधित है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद शीघ्र ही, पंडित नेहरू के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति का जोर अहिंसा के गांधीवादी आदर्शों, गुटनिरपेक्षता, नेहरूवादी समाजवादी मूल्यों और ‘पंचशील’ के विचार से प्रभावित था। लेकिन इससे न तो पड़ोस में भारत की छवि बदली और न ही यह संयुक्त राष्टÑ सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने में मददगार रहा। हम एक कमजोर राष्ट्र के रूप में उभरे।
राष्ट्रीय शक्ति का सबसे पहला परीक्षण जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले के रूप में हुआ। उस पूरे प्रकरण ने हमारे कमजोर कवच में दो बड़ी दरारों को उजागर कर दिया-सैन्य तैयारियों का अभाव और सामरिक दृष्टिकोण का पूर्ण अभाव। राष्ट्र सुरक्षा तैयारियों के अभाव का अगला सबक ’50 के दशक में मिला, जब चीन ने बेशर्मी से तिब्बत पर कब्जा कर लिया और भारत दलाई लामा और उनके बहुत सारे अनुयायियों का मेजबान बना। भारत हिमालय में सामरिक वर्चस्व से हाथ धो बैठा, जो आज तक हमारे लिए हानिकारक साबित हो रहा है। हमें एक और झटका 1962 में चीनी आक्रमण के रूप में लगा, जिसने हमारी कमजोरियों को पूरी तरह से दुनिया के सामने उघाड़ कर रख दिया। हम दुनिया के सामने एक पराजित, अपमानित, कमजोर और आसानी से पिट जाने वाले राष्टÑ के रूप में खड़े थे।
शक्ति संधान आवश्यक
संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ‘बंच आफ थॉट्स’ में उल्लेख करते हैं-बाह्य स्थिति चाहे जो हो, भुगतना कमजोर को पड़ता है। अगर राष्टÑ स्वाभाविक रूप से कमजोर हो, तो कितना भी बाहरी समायोजन या तुलना उसे बचाने में सक्षम नहीं हो सकती है। दुनिया सिर्फ एक भाषा समझती है-शक्ति की भाषा। गुरुजी ने चीन के नापाक इरादों के बारे में तत्कालीन सरकार को चेतावनी भी दी थी। कहा था कि बीजिंग पर भरोसा करना खतरनाक है। 1965 में पाकिस्तान के दुस्साहस ने हमें हमारी प्राथमिकताओं को फिर से परिभाषित करने का मौका दे दिया। 1965 में सैन्य विजय ने (भारतीय सेना ने एक सप्ताह से अधिक समय तक लाहौर में तिरंगा फहराया था) सशस्त्र बलों का मनोबल बढ़ाया और एक नई सैन्य सोच के लिए बुनियादी नींव रखी। लेकिन जीत में हमारी उदारता को रणनीतिक सौदेबाजी करके पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से चीन को सौंपे गए क्षेत्रों सहित पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की वापसी से अधिक महत्वपूर्ण होने के रूप में पेश किया गया था।
इस तथ्य को समझते हुए कि तेजी से बदलते वैश्विक सुरक्षा माहौल में नैतिकता और मूल्यों का विदेश नीति में नाममात्र ही महत्व है, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पड़ोसियों के प्रति एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश की। 1971 में बंगलादेश की मुक्ति और उसके बाद दक्षिण एशिया में एक राष्टÑ के निर्माण ने प्रत्यक्ष भारतीय सैन्य हस्तक्षेप के माध्यम से भारत की विदेश नीति और सुरक्षा विकल्पों में कठोर शक्ति का प्रयोग कर सकने की क्षमता का प्रदर्शन किया। लेकिन मजबूत सेना और शक्ति प्रदर्शन के बावजूद भारत की राष्टÑीय सुरक्षा के सामने चुनौतियां बनी हुई हैं। सुरक्षा योजना में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक हितधारकों की भूमिका और भागीदारी है। एक समय था जब रक्षा और अर्धसैनिक बल किसी भी सुरक्षा खतरे से निपटने के लिए पर्याप्त होते थे। लेकिन ऐसा उस समय से बहुत पहले होता था, जब पाकिस्तान ने हमें हजारों घाव करके और खून बहाकर खत्म करने (डेथ बाइ थाउजेंड कट्स) का फैसला किया था। तीन शक्ति केन्द्रों-सेना, राजनीतिक प्रतिष्ठान और मौलवियों वाले पाकिस्तान ने तथाकथित अराजक तत्वों का उपयोग करते हुए आतंकी हमलों के जरिए भारत के टुकड़े- टुकड़े करने का संकल्प लिया है। अर्थव्यवस्था, कृषि, परिवहन, साइबर तंत्र आदि समाज का हर पहलू गहरे खतरे की चपेट में है। बाजार में नकली मुद्रा झोंकने से पूरी बैंकिंग प्रणाली पटरी से उतर सकती है, जिसके कारण नोटबंदी के लिए बाध्य होना पड़ा है। राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि राष्टÑीय सुरक्षा सरकार का या अकेले सशस्त्र बलों का कोई विशेषाधिकार नहीं है। सुरक्षा चुनौतियों का वास्तविक निशाना भी लोग हैं, हितधारक और प्रत्युत्तर भी लोग हैं। निर्वाचित सरकारों का मुख्य दायित्व लोगों की सामूहिक शक्ति को बढ़ाना है।
व्यावहारिक दिशानिर्देश
गुरुजी ने इस तथ्य को लगभग पांच दशक पहले इंगित किया थे। यह शक्ति कहां से आती है? आखिरकार, राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्र केवल लोगों की जन्मजात शक्ति की ही तो अभिव्यक्तियां हैं। राजनीतिक शक्ति भी ऐसी ही एक अभिव्यक्ति है। सैन्य शक्ति जनता की एक अच्छी तरह अनुशासित, गहरी देशभक्ति से भरी हुई वीरतापूर्ण प्रवृत्ति है। राष्ट्रीय आचरण के इन व्यावहारिक और यथार्थवादी दिशानिर्देशों पर चलकर हमारी जनता पुन: एक महान राष्ट्र के रूप में उठ खड़े होने की उम्मीद कर सकती है। इस जगत के समक्ष एक मुक्त और गौरवशाली राष्टÑीय जीवन के लिए यही अंतिम उपाय है। (बंच आफ थॉट्स, एम़ एस. गोलवलकर, अध्याय 22, पृ़ 277) ।
21 वीं सदी को एशियाई सदी कहा जा रहा है, मुख्यत: इस कारण क्योंकि आर्थिक शक्ति और विकास के विभिन्न इंजनों का स्थानांतरण एशिया की ओर होता जा रहा है। एशिया आज विनिर्माण का हब है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए सबसे बड़ा गंतव्य बना हुआ है। लेकिन अभूतपूर्व आर्थिक विकास, व्यापार और विकास में वृद्धि के बावजूद एशिया यूरोपीय संघ की तरह एक राजनीतिक या आर्थिक इकाई या एक संगठित समूह के रूप में उभरने से बहुत दूर है। हालांकि भौगोलिक दृष्टि से सटा होने के बावजूद, राजनीतिक तौर पर एशिया बंटा हुआ है और तेज आर्थिक विकास की प्रक्रिया इसे और विभाजित कर सकती है। एशिया उभरते आर्थिक ब्लॉकों के बीच तीव्र प्रतिद्वंद्विता का मैदान बन सकता है। भारत की सुरक्षा और सामरिक योजना को अल्पकालिक और दीर्घकालिक चुनौतीपूर्ण सामरिक गतिशीलता का ध्यान रखना चाहिए।
एक भारतीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो, चीन की वृद्धि को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है-सामंजस्यपूर्ण विकास के सिद्धांत की दृष्टि से और व्यावहारिक-यथार्थवादी सिद्धांत की दृष्टि से। दोनों सिद्धांत धाराएं इस पर एकमत हैं कि एक क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति के रूप में चीन की वृद्धि अपरिहार्य है, लेकिन उनमें रणनीति और मंशा पर मतभिन्नता है। चीन ने पाकिस्तान को गुप्त रूप से परमाणु तकनीक की आपूर्ति की है और इस प्रकार हमारे ऐन पड़ोस में एक परमाणु विरोधी पैदा कर दिया है।
यथार्थपरक आकलन जरूरी
भारत के पास क्या विकल्प हैं? नई दिल्ली के पास एक मजबूत नेतृत्व है और वह स्थिति नियंत्रण में लेने के लिए एक बेहतर स्थिति में है। चूंकि हम पाकिस्तान के साथ एक मजबूत स्थिति से निपट रहे हैं, लिहाजा यह इतिहास का सही समय है, जब वह पाकिस्तान के साथ उलझने के बुनियादी नियमों को बदल दे। बलूचिस्तान, सिंध और पख्तून क्षेत्रों में स्वतंत्रता की भावना और आजादी के लिए संघर्ष दिन-ब-दिन तेज हो रहा है। आज नहीं तो कल स्वतंत्रता के लिए संघर्ष मजबूत होता जाएगा और उस ढुलमुल केंद्र सरकार पर हावी हो जाएगा, जो अपने ही विरोधाभासों के बोझ तले डूब सकती है। ऐसे में नई दिल्ली को स्थिति का एक यथार्थपरक आकलन करके एक दीर्घावधि की रणनीति बनानी होगी।
जहां राष्टÑीय हित का संवर्धन करना हमारी विदेश नीति की घोषित दिशा है, वहीं सार्वभौमिक मूल्यों, नैतिकता और भारत के शाश्वत सांस्कृतिक लोकाचार को बढ़ावा देना हमारी विश्वदृष्टि का मूल सिद्धांत है। हम अंतरराष्टÑीय मामलों में नैतिकता और मूल्यों की खातिर व्यावहारिकता को त्याग देने के परिणाम देख चुके हैं। ‘पंचशील’ और पड़ोसियों के साथ मूल्य आधारित संबंधों के सिद्धांतों का पालन करने की कीमत भारत ने बार-बार हुए आक्रमणों और हमारे क्षेत्र में घुसपैठों के रूप में और लगभग अलग-थलग पड़कर चुकाई थी।
कुख्यात विश्व युद्धों के कई दशकों बाद, तकनीकी रूप से परिष्कृत और इस कारण उच्च लागत के युद्ध राष्टÑीय सुरक्षा के एक और निर्धारणकर्ता हैं, और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। पिछले कुछ दशकों में सरकारों को क्षेत्रीय अखंडता और राष्टÑीय संप्रभुता के साथ समझौता किए बिना समावेशी विकास, आर्थिक उदारीकरण और अंतरराष्टÑीय आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों के बीच संतुलन बनाकर चलना पड़ रहा है।
गैर पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों पर क्षेत्रीय सहयोग के लिए निकट अवधि का प्रभावी तंत्र विकसित करना दीर्घकाल में व्यापक लाभ दे सकता है और भारत को इस क्षेत्र की लंबे समय से चली आ रही पुरानी सुरक्षा समस्याओं में से कुछ का हल करने की दिशा में आगे बढ़ने का मौका मिल सकता है। एक ऐसे गहरे और व्यापक अध्ययन की तत्काल आवश्यकता है, जो साझी गैर पारंपरिक सुरक्षा चिंताओं पर सहयोग के लिए अवसरों की तलाश करे, जिन्हें एक व्यावहारिक क्षेत्रीय भारत केंद्रित सुरक्षा ढांचे के विकास की ओर संभावित ब्लॉकों के रूप में विकसित किया जा सके।
सामरिक दृष्टिकोण में नया आयाम
भारत की शक्ति उसके आकार और एक ‘सौम्य और गैर हस्तक्षेपकारी शक्ति’ होने की उसकी नीति की निरंतरता में निहित है। लेकिन इस तरह का दृष्टिकोण अकेले अब अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सकता। यदि अमेरिका इराक और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप कर सकता है, तो भारत से अपनी परिधि में घटित होने वाली घटनाओं के प्रति उदासीन रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है, न ही हम अपने पड़ोसियों को अमेरिकी चश्मे से देखना बर्दाश्त कर सकते हैं। जहां यह क्षेत्र विदेशी शक्तियों से निषिद्ध होना ही चाहिए, वहीं सोवियत संघ के पतन और एक आर्थिक शक्ति के रूप में चीन के उद्भव ने हमारी विदेश नीति के संचालन, सुरक्षा आवश्यकताओं और सामरिक दृष्टिकोण में एक नया आयाम प्रस्तुत किया है।
किसी देश की सुरक्षा, सामरिक योजना और नीतिगत दृष्टिकोण घटनाओं और अतीत के अनुभवों और आज की भू-राजनीतिक वास्तविकताओं का कुल योग होता है। भारत को एक तीन स्तरीय नीति पर विचार करना होगा, जिसमें पड़ोस, क्षेत्र और वैश्विक खिलाड़ी शामिल हों। भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए-(क) क्षेत्रीय सुरक्षा, स्थिरता और शांति सुनिश्चित करना (ख) क्षेत्र में आर्थिक संरचना को मजबूत बनाना (ग) क्षेत्रीय संगठनों को दुरुस्त रखना, ताकि क्षेत्रीय संपर्क रहे और (घ) भारत के सामरिक महत्व को प्रासंगिक बनाए रखना।
(लेखक आर्गनाइजर साप्ताहिक के पूर्व संपादक, फोरम फॉर इंटीग्रेटिड
नेशनल सिक्योरिटी (फिन्स) के महासचिव, क्रॉनिकल सोसायटी आफ
इंडिया फॉर एजुकेशन एंड एकेडमिक रिसर्च के निदेशक हैं।)
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