रा. स्व. संघ में 2005 के बाद एक नए चरण का आरम्भ हुआ था जिसे कालक्रम में विकास का चौथा चरण माना जा सकता है।संघ प्रेरित अनेक गतिविधियों के शुरू होने के बाद कार्य में नई गति आई, समाज जीवन के नए क्षेत्र स्पर्श किए गए।नूतन प्रकल्पों के माध्यम से अनेक काम खड़े हुए, कार्यकर्ताओं की नई टोली खड़ी हुई
दो हजार पांच से सोलह तक की संघ एकादशी की पृष्ठभूमि काफी रोचक युगांतरकारी परिवर्तनों का उद्घोष करती है। राम जन्मभूमि आंदोलन ने एक विराट मानस परिवर्तन का अध्याय रचा था। सदियों से दास-मानसिकता का पोषण करने वाली विचारधाराओं के अंत का आरंभ दिखने लगा था। अपने-अपने वैचारिक अधिष्ठानों पर सर्प कुंडली के समान जमे वामपंथी और उनके विचित्र सहयात्री कांग्रेस के तत्व बौखलाए संघ पर पुरातनपंथी, बैलगाड़ी युग के हिंदू होने का वही आरोप लगा रहे थे जो भारत विभाजन से पूर्व पाकिस्तानी समर्थक हिंदुओं पर व्यंग्योक्ति करते हुए लगते थे। नई तकनीकी, नई प्रौद्योगिकी देश का नया युवा उत्सुकता और उत्कंठा से अपनाने के लिए तैयार था। श्री फकीर चंद्र कोहली सदृश प्रौद्योगिकी ऋषि सत्तर के दशक से इस नई ई-प्रौद्योगिकी को टीसीएस के युवा वैज्ञानिकों के जरिए फैला रहे थे तो उसके साथ ही कंप्यूटरों द्वारा बेरोजगारी बढ़ेगी और भारत जैसे जन-बहुल देश में नई तकनीकी और नई प्रौद्योगिकी को ‘निकम्मा एवं मनुष्य श्रम की गरिमा के विरुद्ध’ घोषित करने वाले स्वर भी उठने लगे थे। ऐसे वातावरण में वे स्वयंसेवक जो अमेरिका, यूरोप में नई प्रौद्योगिकी के अग्रदूत बने, हिंदू शक्ति साधना में उसके उपयोग के नए प्रयोग कर रहे थे। वे संघ में अपनी नई पहचान ही नहीं बनाने लगे, वरन संघ के सर्वोच्च अधिकारियों के समर्थन से शाखा कार्य के नए आयाम भी रचने लगे।
यह 1996 जनवरी की बात है— पूज्य रज्जू भैया के जन्म दिवस 29 जनवरी को उन्होंने पाञ्चजन्य में प्रथम संगणक (कम्प्यूटर) का तिलक लगाकर उद्घाटन किया। वह प्राय: 82,000 रु.╪ में खरीदा गया था और उसके लिए ऋण जनसहकारी ऋण संस्था से लिया था। उस समय अमेरिका से आए गहन वैचारिक निष्ठा के साफ्टवेयर इंजीनियर अजय शाह से चर्चा हुई और सोचा गया कि विश्व की पहली साइबर शाखा यानी अंतरिक्ष शाखा को प्रारंभ किया जाए। तब रज्जू भैया से बात हुई और उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी। केशव कुंज के सभागार में ध्वजोत्तोलन के साथ कंप्यूटर पर बैठे अजय शाह और उनकी मंडली ने पहले से ही विश्व के 20 देशों के स्वयंसेवकों को भारतीय समयानुसार अपने-अपने अंतरिक्ष संघ स्थान पर सम्पत और फिर पूज्य रज्जू भैया से प्रश्न पूछने की सूचना दी हुई थी। यह स्मरणीय घटना राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचार का विषय बनी। इसका उल्लेख मात्र यह बताने के लिए किया गया है कि नए युग की हर आहट का संघ ने हृदय से समर्थन किया, जिसका समाज के नवोन्मेष हेतु उपयोग किया जा सके और जो सार्थक परिणाम देने वाला हो।
इलेक्ट्रानिक युग के नए प्रयोगों में बंगलुरू से सिलिकॉन वैली तक के स्वयंसेवक बड़ी तन्मयता से जुटे थे। उन्हीं दिनों शाखाओं के विस्तार और नए हिंदूधर्म निष्ठ एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र के लिए मंडली, ई-शाखा, आईटी मिलन के नए विचार दिल्ली आईआईटी से लेकर बंगलुरू और अन्य क्षेत्रों, जैसे आईआईटी-पुणे, टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च, रुड़की विवि. (जो बाद में आईआईटी के नए रूप में उभरा) में प्रारंभ हुए थे।
इन प्रयोगों की तुरंत सफलता एवं उससे जुड़ने वाले स्वयंसेवकों की संख्या में लगातार वृद्धि ने नए उत्साह का संचार किया और इसे, विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के स्वयंसेवकों की शाखा को आईटी मिलन का औपचारिक रूप मिल गया।
2005 उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहा था जो विश्व में सबसे युवा एवं परिवर्तनगामी समाज का शक्तिपुंज था। यह समाज ग्रामीण क्षेत्र की सोंधी महक और नए युग की क्रांतिकारी प्रौद्योगिकी का संगम जो युगों की दासता से जमी काई को तोड़ने के लिए छटपटा रहा था। इस नवीन युग साधना के नए सोपानों में रक्त बैंक, नेत्र बैंक, दिव्यांगों के लिए सक्षम जैसे संगठन, ग्राम-स्वराज्य के लिए नए उत्साह से भरे कार्यकर्ता और आरोग्य जैसे नए विचार प्रस्फुटित हुए जिनसे मेरा ‘भारत-सक्षम-सशक्त-सुसंस्कृत-सबल भारत बनें’, यह एक समग्रता की कल्पना अनेक विध रूपों में आकार लेने लगी। नए युवा की नवीन जिम्मेदारियां उसे यहां के कंक्रीट वन में यूं भटकाती दिखीं कि भारत के भारतीयत्व का मूल आधार परिवार संस्था ही टूटती दिखने लगी।
समाज के विभिन्न वर्गों, कार्य प्रणालियों एवं मनोरंजन के विश्व से भी परिवार गायब होने लगे और लौकिक, दैहिक संबंध ही मूल स्वर बनने लगे। दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-ताऊ, मामी, मौसी, बुआ, भौजी इन सब संबंधों को मानो शब्दकोश के अतीतकालीन पृष्ठों का शोध-परक विषय बनाने की ओर हम बढ़ते दिखे। उस चिंता से कुटुंब प्रबोधन का विचार प्रस्फुटित हुआ।
गांवों, नगरों, महानगरों में परिवारों से मिलना, नव दंपतियों को भारतीय कुटुंब प्रणाली के सद्गुणों और उसके भावी पीढ़ी पर होने वाले सकारात्मक प्रभाव से परिचित कराने का अखिल भारतीय उपक्रम एक विशिष्ट हिंदू जीवन पद्धति का एक कवच बनकर सामने आया।
इस दिशा में साहित्य का निर्माण रोचक तथ्यों और प्रेरक कथाओं की प्रतिश्रुति, परिवारों के सामूहिक मिलन एवं सफल कुटुंबों के साथ अन्यों का हिंदू समाज का ऐसा प्रयोग बना जो न केवल अभिनव था बल्कि जिसे संभवत: युवा हिंदू स्वीकार करने को भी उत्सुक दिखे।
जब हम इस नवीन, नवोन्मेष की ओर उन्मुख हिंदू युवा की बात करते हैं तो उसमें अभी तक प्राय: कोचिंग केंद्रों की तरह अलग-थलग रखे गए महाविद्यालयीन युवाओं के शिविर नई ताजगी भरी हवा की तरह पहले प्रयोग और फिर नियमित प्रकल्प की भांति सामने आए। मुझे स्मरण है कि जब श्री गोपाल जी आर्य राजस्थान के प्रांत प्रचारक थे तो प्राय: 27,000 महाविद्यालयीन छात्रों का शिविर पूरे देश में चर्चा का विषय बना और अ.भा.प्रतिनिधि सभा में उसका विशेष उल्लेख भी हुआ।
कौन है यह युवा?
राजस्थान से लेकर केरल, महाराट्र, असम, बिहार, उत्तर प्र्रदेश जैसे अन्यान्य प्रांतों में महाविद्यालयीन छात्रों के शिविर एक नई लीक बनाते गए। इसमें इंजीनियर, मेडिकल, वास्तु शिल्प,आई टी, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के वे छात्र शामिल होते गए जिनके रक्त और मानस में हिंदुत्व पीढ़ी दर पीढ़ी मिले संस्कारों के कारण प्रवाहित तो हो रहा था किंतु उसे अभिव्यक्ति और सहस्थरिता का अवसर नहीं मिल पा रहा था। हम कहते रहे कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है, हमारे वैज्ञानिक एवं इंजीनियर दुनियाभर में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमा रहे हैं, लेकिन क्या हम उन्हें भारत माता के अजस्र, अमर, अविनाशी स्नेह की धारा से सिंचित कर पा रहे हैं? क्या नए भारत के नवोन्मेष में उनके योगदान को हम अधिक सार्थक और दूरगामी बनाने का मंच दे पा रहे हैं? महाविद्यालयीन छात्रों के शिविरों एवं संस्कार मिलनों के पीछे यही एक भाव था कि समाज का वह कोई भी वर्ग जो नए भारत का चेहरा बनकर उभर रहा है, रा.स्व.संघ के परिवर्तनकारी उद्घोष के स्वरों से दूर न रहे।
भारत की आर्थिक, सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक आधारशिला ग्रामीण भारत है, जिसे अंग्रेजीदां और पश्चिमी जूठन एवं वामपंथी विदेशीमन के लोगों ने देहाती, गंवार, गंवई कहकर तिरस्कृत किया। सत्य तो यह है कि भारत यदि आज भी भारत है तो उसका कारण शहर या महानगर नहीं बल्कि वह ग्रामीण किसान वर्ग है जहां भाषा, गीत, संस्कार, रंगोली, त्योहार, परंपराएं, रस्में, एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या जीवित है तो कुंंभ स्नान की आतुरता, पितृपक्ष में पुरखों का स्मरण, अपनी वेशभूषा, आचार, शिष्टाचार, सहज स्वाभाविक आत्मीयता है। वह बचे तो बचेगा भारत। पूज्य भाऊराव देवरस, पूज्य बालासाहेब, पूज्य सुदर्शन जी सदृश विचारक संघ तपस्वियों ने ग्राम विकास पर बल दिया जिसे पूज्य सरसंघचालक श्री मोहन भागवत एवं सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी ने आगे बढ़ाया। आज देश के अनेक प्रांतों में अनाम, अनजान सैकड़ों, हजारों कार्यकर्ता ग्राम विकास की अभिनव कल्पना को लेकर साधनारत हैं। इसमें मार्गदर्शक कीर्ति कलश के नाते ग्राम शिल्पी और दधीचि के समान जीवन अर्पित करने वाले नानाजी देशमुख का पथ सबके लिए एक प्रेरणास्रोत बना है। संभवत: न केवल भारत में, वरन विश्वभर में रा.स्व.संघ ही ऐसा संगठन है जो ग्रामीण जीवन एवं अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए एक मौन साधना में जुटा है और उन युवा कार्यकर्ताओं का जीवनदीप बना है जो शहरी कोलाहल से दूर ग्राम साधना में अपना जीवन खपाना चाहते हैं।
गोसंरक्षण ग्रामीण अर्थव्यवस्था और भारतीय संस्कारों का रक्षा-कवज है इसलिए संघ का यह स्वप्न बिना गोसंरक्षण के कैसे पूरा हो सकता था? प. पूज्य गुरुजी ने साठ के दशक में पूरे देश को आंदोलित करने वाले जिस गोरक्षण महाभियान का सूत्रपात किया था, उसी भाव और विचार को लेते हुए देश के विभिन्न भागों में रा.स्व.संघ से प्रेरित होकर लाखों स्वयंसेवकों ने गोवंश के संरक्षण, संवर्धन एवं समाज में गोचेतना के जागरण का महती कार्य करके दिखाया। उ.प्र., राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे अनेक प्रांतों में गाय के विभिन्न अवदानों का जनसामान्य में उपयोग बढ़े, इसके लिए विराट स्तर पर प्रयोग सफल रहे हैं। गोमूत्र, गोबर से बनने वाली औषधियां, सामान्य त्वचा संरक्षण के उत्पाद काफी लोकप्रिय हुए हैं। गोसंरक्षण के कार्य में अखिल भारतीय स्तर पर की गई गो ग्राम विकास यात्रा इस दिशा में एक प्रेरक एक अनुकरणीय योगदान रही है। (लेखक पूर्व राज्यसभा सदस्य हैं)
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