स्वतंत्रता के सूर्योदय से नई स्वाधीन सुबह तक
May 23, 2025
  • Read Ecopy
  • Circulation
  • Advertise
  • Careers
  • About Us
  • Contact Us
android app
Panchjanya
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
SUBSCRIBE
  • ‌
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • वेब स्टोरी
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • अधिक ⋮
    • जीवनशैली
    • विश्लेषण
    • लव जिहाद
    • खेल
    • मनोरंजन
    • यात्रा
    • स्वास्थ्य
    • संस्कृति
    • पर्यावरण
    • बिजनेस
    • साक्षात्कार
    • शिक्षा
    • रक्षा
    • ऑटो
    • पुस्तकें
    • सोशल मीडिया
    • विज्ञान और तकनीक
    • मत अभिमत
    • श्रद्धांजलि
    • संविधान
    • आजादी का अमृत महोत्सव
    • मानस के मोती
    • लोकसभा चुनाव
    • वोकल फॉर लोकल
    • जनजातीय नायक
    • बोली में बुलेटिन
    • पॉडकास्ट
    • पत्रिका
    • ओलंपिक गेम्स 2024
    • हमारे लेखक
Panchjanya
panchjanya android mobile app
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • मत अभिमत
  • रक्षा
  • संस्कृति
  • पत्रिका
होम संघ

स्वतंत्रता के सूर्योदय से नई स्वाधीन सुबह तक

by WEB DESK
Mar 16, 2021, 04:41 pm IST
in संघ
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

व्यक्ति निर्माण के पथ पर अग्रसर रा. स्व.संघ के स्वयंसेवक रच रहे हैं असाधारण इतिहास

रा. स्व. संघ ने अपने स्थापना काल से ही देशहित को सर्वोपरि रखते हुए समाज प्रबोधन का कार्य किया है। आज 90 वर्ष की इस यात्रा पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि वैचारिक विरोधियों की ओर से अनेक संकट आने के बावजूद यह यात्रा पहले से और प्रखरता के साथ आगे बढ़ती गई है

उन्नीस सौ सैंतालिस से 1977 के तीन दशकों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विकास के दूसरे दौर के तौर पर देखा जा सकता है जब वह एक संगठन से आंदोलन बना। 1947 में राष्ट्र की स्वतंत्रता के सूर्य का उदय हुआ जबकि 1977 गवाह बना नागरिकों की खोई आजादी के वापस मिलने का। स्वतंत्रता की सुबह का नायक पिता था और विडंबनापूर्ण सत्य यह है कि दूसरे पक्ष की खलनायिका उनकी पुत्री।
1950 की वह सुबह मुझे अच्छी तरह याद है जब संघ की नई भूमिका मेरी समझ में आई। 1947 के मई माह में मैं संघ के एक प्रशिक्षण शिविर में हिस्सा लेने चेन्नै गया था। तब हर प्रशिक्षु को जो शपथ लेनी होती थी, उसके सबसे महत्वपूर्ण शब्द थे-‘अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए’। उसके तुरंत बाद संघ पर प्रतिबंध लग जाने के कारण अगला प्रशिक्षण सत्र दो साल बाद 1950 में आयोजित हुआ। दूसरे वर्ष के प्रशिक्षण के लिए मैं फिर शिक्षार्थियों के बीच गया। वहां पहले वर्ष के सहपाठियों से मुझे पता चला कि इस बार शपथ में कुछ बदलाव किया गया है और अब ‘अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए’ की बजाय सबसे महत्वपूर्ण शब्द थे ‘अपनी मातृभूमि के समग्र विकास के लिए’।
भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद संघ की शपथ की भाषा बदल गई थी। चूंकि अब देश आजाद हो गया था इसलिए प्रत्येक व्यक्ति, समूह एवं संगठन से उम्मीद की जा रही थी कि वह मातृभूमि के समग्र विकास के लिए कार्य करे। संघ की शपथ में आए परिवर्तन का अर्थ भी पूरी तरह इसी संदर्भ से जुड़ा था।
अगले तीन दशकों में संघ के स्वयंसेवक बहुत सारी घटनाओं के साक्षी बने जिनमें 1948 में संगठन पर लगाया गया अप्रत्याशित प्रतिबंध, 1955 में गोवा स्वतंत्रता अभियान, 1956 में भाषायी राज्यों का गठन, 1962 में चीनी आक्रमण, 1963 में स्वामी विवेकानंद की जन्मशती, 1965 में पाकिस्तान से युद्ध, 1971 में पाकिस्तान से दूसरा युद्ध, फिर तत्कालीन सत्तारूढ़ राजनीतिक दल में तानाशाही प्रवृत्तियों का जागना (जिसने 1975 में देशभर में आपातकाल लागू किया), फिर 1977 में अंतत: खोई हुई व्यक्तिगत आजादी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की पुन: स्थापना।
1973 में श्री गुरुजी के देहावसान के बाद श्रद्धेय बालासाहेब देवरस ने संगठन की बागडोर संभाली। सांगठनिक तौर पर संघ एक ऐसी अखिल भारतीय संस्था बन चुकी थी जिसके कार्यकलाप देश के कोने-कोने तक फैल गए थे। उसकी पहुंच विदेशों तक हो चुकी थी। संघ के विशाल ढांचे में हजारों स्वयंसिद्ध प्रतिबद्ध युवा थे और वहां नेतृत्व का कोई पदक्रम नहीं था। संघ में सभी समान थे और सरसंघचालक उनका मुखिया। संगठन का पूरा ढांचा एक वृहत् संयुक्त हिंदू परिवार की तरह था जहां प्रत्येक व्यक्ति दूसरे के कल्याण की सोचता था। कोई भी व्यक्ति अपने अनुभवों से संघ को नई दिशा या आयाम देने में पीछे नहीं रहता था।

वैयक्तिक, सांगठनिक और सामाजिक स्तर पर प्रत्येक स्वयंसेवक ने उपरोक्त घटनाओं को समझा और उसी के अनुसार काम किया। चुनौतियों को अवसरों में तब्दील किया गया जो अंतत: उपलब्धियां बनीं। संक्षेप में कहा जाए तो इन तीन दशकों में संघ की गाथा यही रही।
विचारवान बुद्धिजीवी अक्सर कहते हैं कि समय के अनुसार आदर्शों के स्वरूप में सुधार जरूरी है। परंतु एक आदर्शवादी व्यक्ति के लिए आदर्शों में नहीं बल्कि आदर्शों के अनुकूल किए जा रहे कर्म को सुधारना ज्यादा आवश्यक है। बदलती परिस्थितियों में प्रत्येक सदस्य को आदर्शों की प्रासंगिकता समझाने में ही नेतृत्व की कुशलता निहित होती है। इस विचार के प्रति संघ सदा सचेत रहा और आज भी है।
12 जुलाई 1949 को प्रतिबंध हटने के बाद के तीन महीनों के दौरान श्री गुरुजी ने सभी राज्यों में चुने हुए कार्यकताओं के सम्मुख तीन से पांच श्रृंखलाबद्ध व्याख्यान दिए। जैसा कि उन्होंने बालासाहेब खापर्डे को लिखा था कि ‘यह प्रयास कार्य को पुन: पटरी पर लाने के लिए था।’ इसके अलावा, देशभर में जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के लिए पुनर्विन्यास संबंधी तीन सत्र भी आयोजित किए गए जिनमें से पहला 1954 में 9 से 16 मार्च के दौरान नागपुर के निकट सिंदी में आयोजित किया गया। दूसरा सत्र 1960 में 6 से 13 मार्च के दौरान इंदौर और तीसरा 1972 में 28 अक्तूबर से 3 नवंबर तक ठाणे, मुंबई में आयोजित किया गया।
23 दिसंबर, 1949 को पहली संभाषण श्रृंखला में श्री गुरुजी के शुरूआती शब्द थे, ”दो वर्ष पूर्व दिल्ली के आनंद पर्वत में ऐसी ही एक सभा के दौरान हमने नई परिस्थितियों के संदर्भ में अपने कार्यकलापों पर गहन विचार और उसकी रूपरेखा पर सोचा था। परंतु दुर्भाग्यवश हमारे काम पर रोक लगा दी गई और हमें कारागार में डाल दिया गया…”। इससे स्पष्ट था कि स्वतंत्रता के बाद के भारत में संघ का नेतृत्व अपनी कार्य स्थितियों पर मनन कर रहा था। बेशक शपथ में किए गए परिवर्तन से भी इसकी झलक मिलती थी।
1954 के सिंदी पुनर्विन्यास के दौरान सरसंघचालक ने कहा, ”विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हमारे कार्यकर्ता हमारे राजदूत या फील्ड-मार्शलों की तरह हैं। अपने चातुर्य और बुद्धिमत्ता तथा अपने परिश्रम और बलिदान से उन्हें उन क्षेत्रों में वांछित परिवर्तन लाना ही होगा और सुनिश्चित करना होगा कि संघ के आदर्श मूर्तरूप लंे।”
1960 में इंदौर चिंतन शिविर में उन्होंने पूरी तरह से स्पष्ट किया कि एक सुगठित, अनुशासित, गुणवत्तामूलक गतिशील समाज ही हमारा आदर्श है और इसकी स्थापना के लिए संघ शाखा एक कारगर माध्यम है। इस विचार से संघ समाज में मौजूद एक संगठन मात्र नहीं है, बल्कि वह एक सुगठित समाज का प्रतिरूप है। संघ की शाखा के जरिये कार्यकर्ताओं का गठन इसी दिशा में एक कदम है।
श्रृंखला के अंत में, 1972 के ठाणे शिविर में श्री गुरुजी ने जोर देकर कहा, ”कार्य बेहद बड़ा है। सामाजिक कार्य कई दिशाओं में फैला है। इसलिए कर्मठ और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की मांग लगातार बढ़ रही है। ऐसे कार्यकर्ताओं को सही दिशा में ले जाना समय की मांग है। अत: इस संभावना को कार्यरूप देने के लिए एक केंद्रीय समूह होना चाहिए।”

पुनर्विन्यास हेतु निर्णय शिविरों में उनका पूरा जोर प्रतिदिन आयोजित की जाने वाली शाखा पर था जो किसी भी परिस्थिति से निबटने के लिए हमें निरंतर संबल देती है। नतीजा, अपने लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में तमाम तूफानों को चीरता हुआ संघ का जहाज सुरक्षित चलता रहा है।
पहले चरण के दौरान संघ नारियल के ऐसे वृक्ष की तरह था जिसकी कोई शाखा नहीं होती। परंतु उसका बीज उस वट वृक्ष की तरह था जिसमें अनेकानेक शाखाएं उगाने की अपार क्षमता छिपी हुई थी। संघ का लगाए गए प्रतिबंध से यह पहला अवसर प्राप्त हुआ। संघ पर बारीकी से अध्ययन करने वाला हर व्यक्ति मानता है कि बतौर छात्र संगठन वह हर स्थान पर विकसित हुआ है। संभवत: यही कारण था कि प्रतिबंध के दौरान पं. जवाहरलाल नेहरू ने संघ को ‘नटखट बालकों के जमावड़े’ की संज्ञा दी थी। एक अन्य बड़ी हस्ती ने कहा था, ”मध्य प्रांतों में प्रबुद्ध युवा संघ के साथ हैं।” इसलिए प्रतिबंध से वैधानिक तरीके से निजात पाने के लिए छात्रों ने कई जगहों पर अलग-अलग नामों से अपने-अपने गुट बना लिए। इनमें से कुछ जाने-माने संगठन पंजाब, उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रांतों में थे। बालासाहब देवरस सबको साथ लाए और उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गठन के लिए प्रेरित किया। इस तरह 9 जुलाई, 1949 को विद्यार्थी परिषद की नींव रखी गई। बतौर संगठन यह संघ आंदोलन की पहली शाखा थी। हालांकि, इससे पहले भी एक अन्य शाखा अस्तित्व में थी-वैधानिक तौर पर गठित दिल्ली स्थित भारत प्रकाशन। यहां से साप्ताहिक पत्रिका ‘ऑर्गनाइजर’ का प्रकाशन होता था। यह प्रकाशन स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले से हो रहा था।
इसके बावजूद, आज भी संघ का मानना है कि एक सच्चा स्वयंसेवक तैयार करने का सही माध्यम शाखा ही है और कोई समाचारपत्र इसका विकल्प नहीं हो सकता। फिर भी संघ के प्रमुख प्रांतीय कार्यकर्ताओं ने ‘ऑर्गनाइजर’ की शुरूआत की थी। यहां किसी किस्म की दुविधा नहीं थी। नेतृत्व का विचार था, ‘स्वतंत्रता की सुबह आने वाली है, कुछ ही दिनों में भारत एक लोकतांत्रिक राज्य होगा, भारत के बेटे या बेटियां आजाद होंगी; उन्हें राष्ट्रीय और राजनीतिक तौर पर साक्षर होना होगा और उसके लिए समाचारपत्र एक प्रभावकारी माध्यम हो सकता है।’ इस तरह ‘ऑर्गनाइजर’ का जन्म हुआ। देश के प्रत्येक हिस्से में यह चलन बढ़ता गया और 1950 तक भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में साप्ताहिक एवं मासिक पत्र-पत्रिकाएं शुरू हो चुकी थीं। नागपुर में नरकेसरी प्रकाशन ट्रस्ट के संरक्षण में बालासाहब देवरस एवं उनके चुनिंदा सहकर्मियों ने ‘तरुण भारत’ दैनिक की कमान अपने हाथों में ले ली। इसका पहला पुन: प्रकाशित अंक 1 जनवरी, 1950 को आया था। 1975 में केरल में भी ‘राष्ट्र वार्ता’ नामक दैनिक शुरू हो चुका था। दिल्ली में अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ की शुरूआत हुई जिसे 1975 में आपातकाल के दौरान जबरदस्ती बंद कर दिया गया।

हिन्दू महा-अभियान का दूसरा सांगठनिक स्वरूप भारतीय जनसंघ के तौर पर सामने आया। भारत एक लोकतांत्रिक गणतंत्र बन चुका था और वयस्कों को वोट डालने का अधिकार था। संघ की छाया तले लाखों स्वयंसेवक एकजुट हो चुके थे। वे भी मतदाता बन गए थे। संघ ने उन पर राष्ट्र के समग्र विकास में योगदान की जिम्मेदारी डाली। वे गैर-राजनीतिक होने का खतरा नहीं उठा सकते थे। सौंपी गई राष्ट्रीय जिम्मेदारी के अंतर्गत उन्हें अपनी चेतना के अनुसार पसंद के प्रत्याशी को वोट देना था। अब बड़ा सवाल था कि वोट किसे दिया जाए? क्या उन्हें मत डाला जाए जिनके कारण मातृभूमि विभाजित हुई थी? नहीं। देशद्रोही कम्युनिस्टों को? कभी नहीं। लोकतंत्र में संगठित विचार ही महत्वपूर्ण होता है। उसकी अनदेखी करना सामाजिक पाप कहलाता है। इसलिए एक वैकल्पिक राजनीतिक मंच तैयार करना ही एकमात्र तरीका था। बंगाल के शेर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसी दिशा में सोच रहे थे। नतीजतन, नागपुर में संघचालक श्री एम. एन. घटाटे के घर पर डॉ. मुखर्जी, श्री गुरुजी, बालासाहब देवरस एवं भाऊराव देवरस की बैठक हुई। गहन मंत्रणा के बाद भारतीय जनसंघ की नींव पड़ी। श्री गुरुजी ने संघ की विशिष्ट पहचान का खास ध्यान रखते हुए डॉ. मुखर्जी के सहयोग के लिए नानाजी देशमुख और पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे मंजे हुए कार्यकर्ताओं को आगे किया। भारतीय जनसंघ भारत में जन्म लेने वाली ऐसी पहली पार्टी थी जिसे एक भारतीय ने भारतीय विचारधारा के साथ शुरू किया था। यह एक अंग्रेज नौकरशाह ए.ओ. ह्यूम द्वारा अंग्रेजी शासकों के समक्ष एक याचिकाकर्ता गुट के रूप में शुरू की गई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से अलग थी। यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से भी अलग थी जिसे उन मुट्ठीभर लोगों ने रूस की सैनिक पार्टी के तौर पर ताशकंद में गठित किया जिन्होंने भारत को दारुल-हरब कह कर नकार दिया था।
इसके कुछ ही समय बाद ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ नाम से एक अन्य जन संगठन का जन्म हुआ। संघ नेतृत्व आजादी के बाद, प्रतिबंध उपरांत अनुकूल माहौल में ट्रेड-यूनियन क्षेत्र में उतरने के विरुद्ध नहीं था, लेकिन इसका अवसर ईश्वर प्रदत्त था। संयोगवश 1950 में इंटक के पी.वाई. देशपांडे ने संघ प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी को अपने साथ काम करने का न्योता दिया। देवरस जी की समयानुकूल रजामंदी के साथ ठेंगड़ी का एक ट्रेड यूनियन नेता के तौर पर अवतार हुआ और बाद में 23 जुलाई, 1955 को भोपाल में भारतीय मजदूर संघ का उदय हुआ।
फैक्ट्रियों से जंगलों तक की यात्रा बेहद लंबी व अविश्सनीय है! परंतु अपनी शाखाओं को विस्तार देने को प्रतिबद्ध संस्था के लिए असंभव कुछ नहीं था। इसी दौरान 26 दिसंबर, 1952 को जंगलों में रहने वालों के हित में काम करने वाली संस्था वनवासी कल्याण आश्रम की नींव पड़ी थी। रमाकांत केशव देशपांडे मध्य प्रांत में जनजातियों के बीच बतौर क्षेत्रीय विकास अधिकारी के तौर पर काम करते थे। परंतु लोगों के कन्वर्जन पर उतारू ईसाई मिशनरियों और भ्रष्ट राजनीति का शिकार होकर कर्मठ देशपांडे जी को कई बार स्थानांतरण झेलना पड़ा था। श्री गुरुजी ने उन्हें नौकरी छोड़कर स्वतंत्र रूप से वकालत करने की सलाह दी ताकि वे अपने लक्ष्य की ओर निर्बाध बढ़ते रहें। उन्होंने खुशी-खुशी सलाह मान ली और इसी के बाद वनवासी कल्याण आश्रम की शुरूआत की। हर परिस्थिति में उनकी मदद के लिए गुरुजी ने युवा प्रचारक मोरेश्वर केतकर को उनके पास भेजा। जसपुर के राजकुमार विजय भूषण सिंह जूदेव की सक्रिय मदद से दोनों ने पूरे उत्साह से कार्य शुरू किया।

जन संगठनों की श्रृंखला में आकार लेने वाला अंतिम संगठन था विश्व हिन्दू परिषद। इसके लिए एक दशक का इंतजार सर्वथा उचित था। संन्यासियों और धार्मिक नेताओं को एकजुट करना एक अत्यंत जटिल कार्य था। हिंदुत्व से जुड़े ऐसे लोगों के संदर्भ में तो और भी दुरूह था। परंतु स्वामी चिन्मयानंद, श्री गुरुजी एवं एस. एस. आप्टे के सामूहिक प्रयास से यह असंभव कार्य संभव हुआ और 29 अगस्त, 1964 को जन्माष्टमी के पवित्र अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद गठित हुई। यह अवसर हिंदुओं के इतिहास में सचमुच अविस्मरणीय था।
हिन्दुओं में पुराना अंधविश्वास रहा है कि समुद्र पार यात्रा धर्म भ्रष्ट करती है। परंतु नवयुगीन हिन्दू वर्ग कहता है कि विदेशी संपर्क बनाने से खुद हिन्दू धर्म सुदृढ़ होता है। सितंबर, 1946 में पंजाब के जगदीश चंद्र शारदा शास्त्री एस.एस.वासन जहाज से मोम्बासा जा रहे थे। जहाज पर ही उनकी भेंट गुजरात के माणिक लाल रुघानी से हुई। स्वाभाविक तौर पर दोनों स्वयंसेवकों ने एक-दूसरे को पहचाना और लंबी बातचीत के बाद उन्होंने संघ प्रार्थना की। यात्रा के अगले दस दिनों तक उन्होंने यह क्रम जारी रखा। उस समय तक वह 17 व्यक्तियों का समूह बन चुका था। यह विदेशों में संघ के कार्य की शुरूआत थी। संघ का कार्य वस्तुत: समुद्र पार पहुंच चुका था! कुछ दिनों बाद केन्या में स्थानीय शाखा की शुरूआत हुई।
1950 में पंजाब के डॉ. मंगल सेन बर्मा (म्यांमार) में बस गए। बतौर स्वयंसेवक उन्होंने वहां संघ की नींव रखी। बाद में विचार-विमर्श के उपरांत केन्या में समूह का नाम ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ और बर्मा में ‘सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ’ रखा गया। यह संघ के विश्व विभाग का आरंभ था। श्री रामप्रकाश धीर को बतौर प्रचारक बर्मा भेजा गया। 1956 में गुरुजी के 51वें जन्म दिवस के अवसर पर रंगून में बर्मी भाषा में पूजनीय गुरुजी की संक्षिप्त जीवनी प्रकाशित की गई। मोटे तौर पर गुरुजी के कार्यकाल के दौरान संघ की पहुंच ऑस्ट्रेलिया के अलावा चारों महाद्वीपों तक हो गई थी।
यहां ध्यान देने वाली बात है कि विदेशों में शाखा शुरू करना संघ के केंद्रीय कमान का निर्णय नहीं था। अपितु वहां पहुंचे आम स्वयंसेवक खुद को संघ से अलग होता हुआ नहीं देख सकते थे, इसलिए उन्होंने यह शुरूआत की। संगठन की यही विशेषता है कि इसका साधारण सदस्य भी इसके विकास को लेकर शीर्ष नेतृत्व जैसा ही प्रतिबद्ध रहता है। ऐसे में नेतृत्व खुशी-खुशी नई पहल को स्वीकारता है और प्रतिबद्ध स्वयंसेवक के प्रयास की उन्मुक्त तारीफ करता है। कहना न होगा कि यहां बछड़े के पीछे गाय के चले आने का मुहावरा चरितार्थ होता दिखता है।

पहले तीन दशकों के दौरान स्वयंसेवकों ने अपने कार्यक्षेत्र की जरूरतों की पूर्ति हेतु अनेक संस्थानों की नींव रखी। इनमें से एक 1952 में गोरखपुर में स्थापित सरस्वती शिशु मंदिर रहा। बहुत ही कम समय में उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश में इन विद्यालयों की संख्या हजारों में पहुंच गई। आज शीर्ष संस्था विद्या भारती के अंतर्गत इनका काम समूचे भारत के साथ नेपाल और श्रीलंका में भी पहुंच चुका है। मैकाले द्वारा फैलाये गए जहर को काटने की यह कारगर खुराक रही है।
दूसरा संगठन है मध्य प्रदेश में चांपा स्थित कुष्ठ निवारक संघ। रेलवे मंर कार्यरत एक प्रतिबद्ध स्वयंसेवक सदाशिव गोविंद कात्रे कुष्ठ रोग का शिकार हुए। उन्होंने उपचार हेतु एक ईसाई कुष्ठ निवारक मिशन में शरण ली थी। वहां उन्होंने पाया कि मिशनरी मानव सेवा की बजाय कन्वर्जन में अधिक रुचि ले रहे थे। उन्होंने इसका विरोध किया और आंदोलनकारी बन गए। श्री गुरुजी से जब उनकी भेंट हुई तो उनका चित्त बेहद अशांत था। गुरुजी ने उनसे बेहद सांत्वनापूर्ण तरीके से पूछा, ”तुम एक स्वयंसेवक हो, तो तुम यह क्यों नहीं सोचते कि परम पिता परमात्मा ने तुम्हें यह रोग इसलिए दिया कि तुम ऐसे रोगियों की सेवा कर सको?” उनका यह कहना ही काफी था। कात्रे जी को नई दृष्टि मिली और 5 मई, 1962 को उन्होंने कुष्ठ गृह की शुरूआत की। अंतिम दिनों में उन्हें समूचे इलाके में ‘बाबाजी’ कह कर सम्मान दिया जाता था और उस स्थान का नाम भी ‘कात्रे नगर’ पड़ गया। आज देश भर में ऐसे 10 केंद्र हैं, परंतु इनकी नींव सचमुच बाबाजी कात्रे ने रखी थी। (8)

अनेक अवसरों पर व्यक्तियों की तरह संगठन भी ऐसे कार्यों की ओर आकर्षित होते हैं जिन पर उन्होंने पहले कभी विचार नहीं किया होता। ऐसी परिस्थितियों में प्रतिबद्धता और घटनाक्रम एक साथ आ जुड़ते हैं। संघ के साथ कुछ ऐसा ही हुआ जब उसने देश के बंटवारे के दौरान लाखों बेघरों को राहत पहुंचाने के लिए पंजाब रिलीफ कमेटी गठित की। संघ तभी से ऐसी गतिविधियों में आगे रहा और 1950 में पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू शरणार्थियों की मदद के लिए बंगाल में वस्तुहारा सहायता समिति अस्तित्व में आई। इसी तरह जब पहले स्वतंत्रता दिवस पर देश खुशियां मना रहा था, उस समय असम भूकंप से हुई बबार्दी से कराह रहा था; देशभर से संघ कार्यकर्ता पूर्वोत्तर के अपने भाइयों की मदद के लिए एकजुट होकर सामने आए थे। उसी समय से प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं के दौरान राहत पहुंचाना संघ के आचरण में शामिल हो गया।
युद्धकाल के दौरान भी संघ की ऐसी ही भूमिका रही है। हमारी मातृभूमि को 1947, 1965, 1971 और कारगिल के दौरान चार बार पाकिस्तान के अलावा 1962 में कम्युनिस्ट चीन का हमला झेलना पड़ा। इन हमलों के समय संघ ने सेना को सहायता पहुंचाने में अग्रणी भूमिका निभाई। यही कारण रहा कि 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने गणतंत्र दिवस परेड पर संघ कार्यकर्ताओं को गणवेश में परेड में शामिल होने का न्योता दिया था। 1965 के युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री ने 5 सितंबर को फोन करके संघ के सरसंघचालक को न्योता दिया कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा पर 6 मार्च को होने वाली सर्वदलीय बैठक में शामिल हों। श्री गुरुजी उस बैठक में निमंत्रित एकमात्र गैर-राजनीतिक नेता थे। इसी बैठक के दौरान उन्होंने वामपंथी नेताओं को बातचीत में ‘हमारी सेना’ संबोधन इस्तेमाल करने की सलाह दी जो तब बार बार ‘आपकी सेना’ कह रहे थे। युद्ध के दौरान गुरुजी से अम्बाला में भारतीय सेना को संबोधित करने का अनुरोध भी किया गया, जो उन्होंने कर्तव्यनिष्ठा से किया।

दरअसल, 1948 का प्रतिबंध संगठन के लिए गहरा आघात था। संघ की छवि और प्रतिष्ठा धूमिल करने में कांग्रेस काफी हद तक सफल रही थी। तब स्वयंसेवकों को यह अपमान बेहद धैर्य और साहस के साथ झेलना था और उन्होंने ऐसा ही किया। लेकिन तीन वर्ष बाद एक बड़ा परिवर्तन सुकून की सौगात लेकर आया जब संघ ने गोहत्या विरोधी अभियान की शुरूआत की। यह 22 अक्तूबर से 22 नवंबर तक 32 दिनों तक चलने वाला यज्ञ था। गोहत्या का विरोध करने वालों से घर-घर जाकर हस्ताक्षर लेने थे। उपयुक्त समूह द्वारा उपयुक्त भूभाग में उपयुक्त उद्देश्य की दिशा में बढ़ाए गए कदम सफलता के उपयुक्त समीकरण और राज हैं। उस दौरान कुल 1,74,89,352 हस्ताक्षर एकत्रित किए गए जो विश्व रिकार्ड है। यह महा-अभियान सांस्कृतिक व सामाजिक तौर पर सुप्त पड़े देश को पुन: जागृत करने वाला साबित हुआ और सांगठनिक तौर पर संघ के हर कार्यकर्ता ने महसूस किया कि समाज में उसकी जगह पहले की ही तरह सुदृढ़ है।
चार वर्ष बीत गए। संघ एक कदम और आगे बढ़ा। इस बार सीधी अपील संघ की विचारधारा से जुड़ी थी। श्री गुरुजी के 51वें जन्मदिवस को संघ ने अनोखी तरह से मनाने का निर्णय किया। गुरुजी के भाषणों पर पुस्तिका छपवाई गई और इसके साथ घर-घर जाकर संपर्क स्थापित करने की योजना बनाई गई। 51 दिन लंबा यह अभियान 18 जनवरी से 8 मार्च, 1956 तक चला। इस प्रयास को मिले जन समर्थन और प्रबुद्धगणों से मिले प्रोत्साहन से एक बार फिर साबित हुआ कि संगठन सही मार्ग पर है।
सात वर्ष बाद यानी 1963 में संघ ने स्वामी विवेकानंद की जन्मशती मनाने का निर्णय लिया। वास्तव में यह एक विचार अभियान था। इसका ध्येय था भारतवासियों को भारत के अमिट अस्तित्व की पहचान कराना। शुरूआत में स्वामीजी का स्मारक बनाने का कोई विचार नहीं था। इसलिए एकनाथ रानाडे ने स्वामीजी के विचारों को एक पुस्तिका में समाहित किया जिसका शीर्षक था ‘स्वामी विवेकानंदाज राउजिंग काल टू हिन्दू नेशन’। दो सौ पृष्ठों की मूल अंग्रेजी पुस्तिका का सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ और शुरू में ही इसकी एक लाख से अधिक प्रतियां बिक गईं। देश में ऐसा कोई शहर नहीं था जहां स्मृति सभा का आयोजन न हुआ हो।
कन्याकुमारी में विवेकानंद रॉक मेमोरियल के निर्माण के दौरान घटनाक्रमों ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि संघ को उसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेनी पड़ी और एकनाथ रानाडे को यह मुश्किल कार्य संपन्न करने का जिम्मा सौंपा गया। स्वयंसेवकों ने प्रति व्यक्ति एक रुपया चंदा बटोरना शुरू किया। एकत्रित चंदे से दान देने वालों की संख्या का स्वत: ही पता लग जाता। चंदे की राशि एक करोड़ से अधिक रही! स्वतंत्रता पश्चात देश में बेशक कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ, परंतु यह स्मारक इसलिए अनोखा है क्योंकि इसे एक विशालकाय पत्थर पर नए सिरे से बनाया गया। बीसवीं सदी में निर्मित यह अपनी तरह का अकेला हिन्दू मंदिर है।
संघ की शपथ के आरंभिक शब्द हैं, ‘हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति एवं हिन्दू समाज की रक्षा…’। स्पष्ट है कि हिन्दू समाज की रक्षा करना संघ का प्राथमिक सरोकार है। संघ के संस्थापक ने गौर किया था कि हमारा समाज विभक्त है। इसलिए अपनी स्थापना के समय से ही ऊंच-नीच के भेदभाव से दूर एक सौहार्दपूर्ण एकजुट समाज का निर्माण ही संघ का लक्ष्य रहा। संघ में इसे ‘सामाजिक समरसता’ कहने का चलन है। इस दिशा में संघ संस्थापक के समय से ही सफलता मिलनी शुरू हो गई थी। 1936 के वर्धा शीत शिविर के दौरान महात्मा गांधी ने भी संघ के प्रयासों की प्रशंसा की थी। संघ के दूसरे दौर में भी यही कहानी आगे बढ़ी। 1969 का वर्ष इस मायने में अविस्मरणीय रहा। उडुपी में विश्व हिन्दू परिषद सम्मेलन में एकत्रित संतों ने एक स्वर से कहा, ”सभी हिन्दू भाई हैं और उनके बीच कोई ऊंच-नीच नहीं है।” इसके बाद देशभर में आयोजित हर सम्मेलन में यह संकल्प दोहराया गया। इसका चरम18 मई, 1974 को आया जब पुणे में वसंत संबोधनों के दौरान पूजनीय बालासाहब देवरस ने घोषणा की, ”अगर अस्पृश्यता पाप नहीं तो इस धरा पर कुछ भी पाप नहीं है।”
आरंभ से ही संघ हिंदुओं के कन्वर्जन के खिलाफ रहा है। हिन्दू समाज के प्रति सरोकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति इसकी घटती संख्या देखकर चिंतित होगा। यहां तक कि स्वामी विवेकानंद ने भी एक साक्षात्कार में अफसोस के साथ कहा था, ”किसी हिंदू द्वारा अपना समुदाय छोड़कर दूसरा मत अपनाने से जहां हमारी संख्या घटती है, वहीं शत्रु की संख्या बढ़ जाती है।” साक्षात्कार लेने वाली कोई और नहीं बल्कि रामकृष्ण मठ की आधिकारिक पत्रिका ‘प्रबुद्ध भारत’ की सिस्टर निवेदिता थीं।
एकनाथ रानाडे ने यह साक्षात्कार उपरोक्त संकलन में पुन: प्रकाशित किया। श्री गुरुजी ने इसी संदर्भ में एक नया विचार भी दिया था। 25 अक्तूबर, 1955 को ‘राष्ट्र शक्ति’ साप्ताहिक में उन्होंने लिखा, ”अगर स्वतंत्रता को व्यवहार के स्तर पर प्राणवान करना है तो उन हिन्दुओं को वापस अपना धर्म अपनाकर राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा बनना होगा जो इस्लाम और ईसाइयत में कन्वर्ट हो गए हैं। तभी पूर्ण स्वतंत्रता की स्थिति प्राप्त होगी।”
1956 में अपने सभी धन्यवाद संभाषणों में उन्होंने इस विचार को सशक्त रूप से दोहराते हुए स्पष्ट किया, ”अगर लंबा समय बीतने के कारण अपने कन्वर्टिड मत के प्रति उनकी निष्ठा इतनी मजबूत हो गई हो कि वे उसे छोड़ नहीं सकते तो भी हिंदुओं को उस मुद्दे पर विरोध नहीं होगा क्योंकि हमारे कई देवी-देवताओं में दो देवता और जुड़ जाएंगे। उनसे बस यही अपेक्षा रखी जाती है कि वे अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान से विमुख न हों और खुद को पराया न समझें।”
निश्चित तौर पर यह दृष्टिकोण में आ रहे बदलाव का द्योतक था जो खुद का बचाव करने की प्रवृत्ति का त्याग कर कार्यशीलता की ओर अग्रसर था और संरक्षित पृथकता भाव से समावेशी एकजुटता पर केंद्रित था। गुरुजी पूरे एक दशक तक इस विचार को सींचते रहे जब तक 1966 में विश्व हिन्दू परिषद की कुंभ मेला की विस्तृत बैठक में सभी धर्माचार्यों ने एकमत होकर इसे अपना नहीं लिया। हिन्दू समाज अब अपने उदार पुत्रों को अपनाने के लिए तैयार हो चुका था।
दूसरे चरण का तीसरा दशक राजनीतिक तौर पर चुनौतीपूर्ण और सांगठनिक रूप से चेतावनी सरीखा था। एक ओर कांग्रेस का एकाधिकार घट रहा था, तो दूसरी ओर सभी मोर्चों पर संघ आगे बढ़ रहा था। इसी बीच गुरुजी को कैंसर हो गया और इस बीमारी से जूझते हुए अंतत: उनका देहावसान हो गया। उनके बाद बालासाहब देवरस सरसंघचालक बने। कांग्रेस के आपातकाल से वैयक्तिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई थी। साथ ही, संघ पर केवल इसलिए प्रतिबंध लगा क्योंकि उसका विस्तार सत्ताधीशों की आंखों की किरकिरी बन रहा था। देश के लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष के लिए यह समय सबसे सटीक था। सही मायनों में यह स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई थी। अंतत: संघ और राष्ट्र विजयी हुए। नए नेतृत्व के अधीन नए माहौल में संघ विजय ध्वज लेकर आगे बढ़ा। केसरी भ्रातृभाव बढ़ रहा था।
यह संघ के दूसरे चरण की संक्षिप्त कहानी है। अगर पहले चरण में संघ एक ‘संस्था’ के तौर पर आकार ले रहा था तो दूसरे चरण में वह एक ‘अभियान’ के तौर पर उभर रहा था। अगर पहले चरण में उसने संस्था की सेवा, पोषण और उसे शक्तिसंपन्न किया तो दूसरे चरण में उसने हमारे बहुरंगी समाज की जरूरत और मांग को पूरा करने के लिए कठोर श्रम किया। दादाराव परमार्थ का कहना था, ‘संघस्थान हिन्दुस्थान है और हिन्दुस्थान संघस्थान है।’ संघ का पहला चरण दादाराव के कथन को चरितार्थ करता है और दूसरा चरण दूसरी उक्ति पर खरा उतरने को तैयार है।
(लेखक रा. स्व. संंघ के अ. भा. बौद्धिक प्रमुख रहे हैं)

ShareTweetSendShareSend
Subscribe Panchjanya YouTube Channel

संबंधित समाचार

पाकिस्तानी विमान 1 महीने और भारतीय एयरस्पेस में नहीं कर सकेंगे प्रवेश, NOTAM 23 जून तक बढ़ाया

गणित का नया फॉर्मूला: रेखा गणित की जटिलता को दूर करेगी हेक्सा सेक्शन थ्योरम

Delhi High Court

आतंकी देविंदर भुल्लर की पैरोल खत्म, तुरंत सरेंडर करने का आदेश

सुप्रीम कोर्ट

ऑनलाइन सट्टेबाजी ऐप्स को लेकर SC ने केंद्र सरकार काे जारी किया नाेटिस

देश के विकास को नया स्वरूप देती अमृत भारत स्टेशन योजना

मारे गए नक्सली बसव राजू की डायरी का पन्ना

‘जहां भी हो, छिप जाओ, DRG फोर्स वाले खोजकर…’ नक्सलियों में खौफ, बसव राजू की डायरी ने बताई सच्चाई

टिप्पणियाँ

यहां/नीचे/दिए गए स्थान पर पोस्ट की गई टिप्पणियां पाञ्चजन्य की ओर से नहीं हैं। टिप्पणी पोस्ट करने वाला व्यक्ति पूरी तरह से इसकी जिम्मेदारी के स्वामित्व में होगा। केंद्र सरकार के आईटी नियमों के मुताबिक, किसी व्यक्ति, धर्म, समुदाय या राष्ट्र के खिलाफ किया गया अश्लील या आपत्तिजनक बयान एक दंडनीय अपराध है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

ताज़ा समाचार

पाकिस्तानी विमान 1 महीने और भारतीय एयरस्पेस में नहीं कर सकेंगे प्रवेश, NOTAM 23 जून तक बढ़ाया

गणित का नया फॉर्मूला: रेखा गणित की जटिलता को दूर करेगी हेक्सा सेक्शन थ्योरम

Delhi High Court

आतंकी देविंदर भुल्लर की पैरोल खत्म, तुरंत सरेंडर करने का आदेश

सुप्रीम कोर्ट

ऑनलाइन सट्टेबाजी ऐप्स को लेकर SC ने केंद्र सरकार काे जारी किया नाेटिस

देश के विकास को नया स्वरूप देती अमृत भारत स्टेशन योजना

मारे गए नक्सली बसव राजू की डायरी का पन्ना

‘जहां भी हो, छिप जाओ, DRG फोर्स वाले खोजकर…’ नक्सलियों में खौफ, बसव राजू की डायरी ने बताई सच्चाई

Chhattisgarh anti-Naxal operation

दम तोड़ता ‘लाल आतंक’, लोकतंत्र का सूर्योदय

दिल्ली में पकड़े गए 121 बांग्लादेशी घुसपैठिए

अमित शाह ने बताए ऑपरेशन सिंदूर की सफलता के 3 कारण

मध्य प्रदेश : शूटिंग कोच मोहसिन खान पर 2 और FIR दर्ज, मोबाइल में मिले 100 से ज्यादा अश्लील वीडियो

  • Privacy
  • Terms
  • Cookie Policy
  • Refund and Cancellation
  • Delivery and Shipping

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies

  • Search Panchjanya
  • होम
  • विश्व
  • भारत
  • राज्य
  • सम्पादकीय
  • संघ
  • ऑपरेशन सिंदूर
  • वेब स्टोरी
  • जीवनशैली
  • विश्लेषण
  • लव जिहाद
  • खेल
  • मनोरंजन
  • यात्रा
  • स्वास्थ्य
  • संस्कृति
  • पर्यावरण
  • बिजनेस
  • साक्षात्कार
  • शिक्षा
  • रक्षा
  • ऑटो
  • पुस्तकें
  • सोशल मीडिया
  • विज्ञान और तकनीक
  • मत अभिमत
  • श्रद्धांजलि
  • संविधान
  • आजादी का अमृत महोत्सव
  • लोकसभा चुनाव
  • वोकल फॉर लोकल
  • बोली में बुलेटिन
  • ओलंपिक गेम्स 2024
  • पॉडकास्ट
  • पत्रिका
  • हमारे लेखक
  • Read Ecopy
  • About Us
  • Contact Us
  • Careers @ BPDL
  • प्रसार विभाग – Circulation
  • Advertise
  • Privacy Policy

© Bharat Prakashan (Delhi) Limited.
Tech-enabled by Ananthapuri Technologies