विधान सभा चुनाव से ठीक पहले एक बार फिर से चर्च ने राजनीतिक बयान जारी करके ईसाइयों को संदेश देकर अपनी मंशा स्पष्ट की । ऐसा नहीं है कि चर्च की ओर से इस तरह का बयान पहली बार किसी क्रिश्चियन समूह ने भारतीय जनता पार्टी के लिए दिया है। उन सभी क्रिश्चियन समूहों को भाजपा की सरकार से समस्या होती है, जिन क्षेत्रों में कन्वर्जन का काम जोर—शोर से चलता है। वह चाहे ओडिशा हो या फिर झारखंड, असम या फिर मेघालय
असम चुनाव की तैयारी के बीच असम क्रिश्चियन फोरम का बयान चर्चा में है। चर्च इन दिनों असम में भाजपा के खिलाफ अभियान चला रहा है। इस तरह की राजनीति को कांग्रेसी इको सिस्टम के पत्रकारिता शब्दकोश में साम्प्रदायिक राजनीति कहा जाता है। लेकिन असम के क्रिश्चियन फोरम के बयान के बाद उनके गोले में खामोशी है।
क्रिश्चियन फोरम ने एक खास रिलिजियस समूह को संबोधित करते हुए अपना बयान जारी किया है। जिसमें वह ईसाइयों से अपील करते हुए कहता है— असम के ईसाइयों को दिसम्बर, 2019 के नागरिकता कानून के खिलाफ चले अभियान को नहीं भूलना है। ना ही उस बच्चे को भूलना है, जिसकी जान इस विरोध के बीच हुई पुलिसिया कार्रवाई में गई।
फोरम के अनुसार कोई भी ईसाई सताए जाने की वजह से पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान से असम नहीं आया। ऐसे में इस कानून का हमारे ईसाई समुदाय के लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता। मतलब फोरम को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि इस कानून से मानवता की सेवा हो रही है या नहीं। सताए जा रहे, कन्वर्ट होने के दबाव में जी रहे हिन्दू, बलात्कार का भय सहते हुए दिन काट रहीं महिलाओं को इस कानून ने जीने की हिम्मत दी है या नहीं। पाकिस्तान—बांग्लादेश—अफगानिस्
तान में खत्म हो रहे हिन्दुओं को जीने की एक रोशनी सीएए में दिखाई दी है या नहीं ? इस कानून से इंसानियत की सेवा हो रही है या नहीं ? इन सवालों पर क्रिश्चियन फोरम खामोश है। क्या ईसाई बाइबल में इंसानियत की सेवा का पाठ पढ़ते हैं, वह सिर्फ किताबों तक है और भारत में सेवा का कार्य कन्वर्जन तक। यदि ऐसा नहीं है तो फिर असम क्रिश्चियन फोरम पाकिस्तान से भारत आ रहे हिन्दुओं की खुशी में शामिल क्यों नहीं है ?
असम में ईसाई समुदाय के वाट्सअप समूह पर असम क्रिश्चियन फोरम के प्रवक्ता एलेन ब्रुक्स का बयान वायरल हो रहा है। ”किसी प्रवासी को सिर्फ धार्मिक पहचान की वजह से नागरिकता नहीं दी जानी चाहिए।”
ब्रुक्स एक बार भी नहीं बताते कि जिन्हें नागरिकता दी गई है, उन्हें यह नागरिकता सिर्फ हिन्दू होने की वजह से दी जा रही है या फिर उनका पीड़ित होना सबसे महत्वपूर्ण कारण है। यदि मुस्लिम बहुल देश में हिन्दुओं के साथ अत्याचार होता है। बेटियों को अपहृत कर उन्हें इस्लाम कुबूल कराया जाता है, उनका बलात्कार कर जबरन निकाह कराया जाता है। ऐसी स्थिति में किसी हिन्दू के लिए क्या विकल्प है ? अपना धर्म बदल ले या फिर सभी तरह के अत्याचार सहता रहे। क्या किसी का मानवाधिकार सिर्फ इसलिए छीन लिया जाना चाहिए क्योंकि वह हिन्दू है। यहां उल्लेखनीय है कि एलेन ब्रुक्स का बयान ऐसे समय पर आया है जब असम में चुनाव है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का बयान पहली बार किसी क्रिश्चियन समूह ने भारतीय जनता पार्टी के लिए दिया है। उन सभी क्रिश्चियन समूहों को भारतीय जनता पार्टी की सरकार से समस्या होती है, जिन क्षेत्रों में कन्वर्जन का काम जोर—शोर से चलता है। वह चाहे ओडिशा हो या फिर झारखंड, असम या फिर मेघालय।
मेघालय में ईसाई मिशनरियों को बहुत प्रोत्साहित किया गया। उन्होंने कन्वर्जन पर पूरा जोर लगाया लेकिन जो कांग्रेसी एनजीओ यह झूठ फैलाते नहीं थकते थे कि जनजाति समाज के लोग हिन्दू नहीं होते। वही लोग ईसाई कन्वर्जन पर खामोश हो गए। उन्होंने कभी नहीं बताया कि जनजातीय समाज के लोग ईसाई होते हैं या नहीं ? किस तरह का प्रलोभन देकर लाखों जनजातीय समाज के लोगों को ईसाई बना दिया गया। नागा समाज, कुकी, सूमी, अंगामी, इंचुंगेर, आओ, चखेसंग, चांग, दिमासा कचारी, रेंगमा, संगतम और जेलियांग आदि जनजातियों में विभक्त हैं।
ईसाई असम में तीसरी सबसे बड़ी आबादी है। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां ईसाई आबादी लगभग 12 लाख है। जो असम की कुल जनसंख्या का 3.74 प्रतिशत है। चर्च की कन्वर्जन नीति का ही परिणाम होगा कि असम में ईसाई इस्लाम से भी तेज गति से बढ़ रहे हैं। असम राजनीति के जानकार बताते हैं कि कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया एंटोनियो माइनो की वजह से देश भर के चर्च कांग्रेस के प्रति अपनापन महसूस करते हैं। असम क्रिश्चियन फोरम का बयान भी ठीक चुनाव के पहले कांग्रेस को फायदा पहुंचाने के लिए ही आया है। अब देखना होगा कि इस बयान का कांग्रेस को 2021 के चुनाव में कितना लाभ मिल पाता है
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