पश्चिम बंगाल के मतदाताओं से बात करने पर एक बात तो स्पष्ट दिखती है कि इस बार वे लोग परिवर्तन का मन बना चुके हैं। बदलाव की छटपटाहट केवल आम मतदाताओं में ही नहीं, बल्कि कलाकारों, शिक्षाविदों, युवाओं और यहां तक कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं में भी दिख रही है
यदि आपको सत्तारूढ़ दल में चुनावी चिंता देखनी हो तो आप एक बार पश्चिम बंगाल का दौरा कर लें। कोलकाता से कूचबिहार तक आपको सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हरकतों से पता चल जाएगा कि उनमें सत्ता खोने का डर और निराशा किस हद तक है। इस स्थिति से उबरने के लिए वे विरोधी दल, विशेषकर भाजपा के कार्यकर्ताओं पर हमले करके लोगों में डर पैदा करना चाहते हैं, पर लोग निडरता के साथ उनका विरोध कर रहे हैं। आम लोगों का मानना है कि हिंसा की राजनीति तृणमूल कांग्रेस को हार की ओर धकेल रही है। आसनसोल में एक निजी विद्यालय में पढ़ाने वाले झंटू डे कहते हैं, ‘‘बंगाल भद्र लोगों की भूमि रही है। ऐसे लोग जब तृणमूल के कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी देखते हैं तो निराश होते हैं। वे उनकी गुंडागर्दी से विचलित भी होते हैं और यह विचलन सत्ता परिवर्तन का माध्यम बन जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।’’ इससे साफ झलकता है कि लोग तृणमूल के गुंडों से डर नहीं रहे और खुलकर अपनी राय भी रख रहे हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा की 294 सीटों के लिए 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच आठ चरणों में चुनाव होने वाले हैं। राज्य में पहली बार आठ चरण में चुनाव होने जा रहे हैं। इसको लेकर भी विवाद चल रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आरोप लगाया है, ‘‘चुनाव आयोग ने वही किया जो भाजपा ने उसे करने को कहा।’’ लेकिन राज्य के आम मतदाता चुनाव आयोग के इस कदम से सहमत हैं। खिदिरपुर, कोलकाता में चाय बेचने वाले सुब्रत मंडल कहते हैं, ‘‘चुनाव से पहले ही बंगाल में राजनीतिक हिंसा हो रही है। चुनाव के समय यह हिंसा न हो और लोग निडर होकर मतदान कर सकें, इसलिए चुनाव आयोग ने आठ चरण में मतदान कराने का निर्णय लिया है। इस पर कोई टीका-टिप्पणी करना ठीक नहीं है।’’ वहीं अनेक लोग ममता बनर्जी के बयान को उनकी हताशा मान रहे हैं। राज्य के लोगों का साफ कहना है, ‘‘ममता के साथी ही उनसे दूर हो रहे हैं। ऐसे में उन्हें यह आभास होने लगा है कि अब सत्ता बचाना शायद कठिन है। इसलिए वे कभी चुनाव आयोग पर उंगुली उठा रही हैं, तो कभी केंद्र सरकार को गरिया रही हैं। यह सब वह अपने कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी पर पर्दा डालने के लिए कर रही हैं।’’
लेकिन दुनिया को पता है कि बंगाल में इन दिनों सबसे ज्यादा राजनीतिक हिंसा हो रही है और इसमें अधिकतर तृणमूल के कार्यकर्ता शामिल हैं। पहले यह हिंसा वामपंथी करते थे। 2011 में सता से वामपंथियों की विदाई के बाद हिंसा फैलाने का ठेका मानो तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने ले लिया है। इन सबको देखते हुए ही बंगाल में कई चरणों में पहले भी मतदान कराया गया है। 2016 में यहां छह चरणों में चुनाव हुए थे। इससे पहले 2011 में भी छह चरणों में मतदान हुआ था, जब ममता बनर्जी ने कम्युनिस्टों को सत्ता से बाहर कर दिया था। वाम शासन के दौरान 2006 में पांच चरण में चुनाव हुए थे। अब पहले से ज्यादा राजनीतिक हिंसा हो रही है। इसलिए चुनाव के चरण बढ़ गए हैं। पश्चिम बंगाल भाजपा के अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, ‘‘चीजें अपने मन मुताबिक न होने पर हल्ला मचाना ममता बनर्जी और उनकी पार्टी की आदत है। 2011 में भी छह चरण में मतदान हुआ था। उन्होंने उस समय विरोध क्यों नहीं किया था?’’
इस बार किसी एक चरण में जिन सीटों पर चुनाव होना है उनकी अधिकतम संख्या 45 है, जो 17 अप्रैल को होने वाले पांचवें चरण में है। दिलीप घोष को इस चुनाव में अच्छे प्रदर्शन का भरोसा है। उनका यह आत्मविश्वास अकारण नहीं है। गत दिनों सिलीगुड़ी जैसे कई महत्वपूर्ण राजनीतिक इलाकों में ममता बनर्जी की रैलियों में भीड़ बहुत कम थी। इसका कोई एक कारण नहीं है। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी भी स्वीकार करते हैं, ‘‘तृणमूल सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी भावना से भाजपा को ताकत मिल रही है।’’ इस पर राजनीतिक विश्लेषक भी सहमत दिखते हैं। सिलीगुड़ी में रहने वाले राजनीतिक पर्यवेक्षक रमाकांतो शान्याल कहते हैं, ‘‘उत्तरी बंगाल में जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग और आसपास के क्षेत्रों में बंगाली मतदाता ‘बंगाल का विभाजन’ चाहने वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को साथ लेने के ममता के फैसले से नाराज हैं।’’ शान्याल कहते हैं, ‘‘1 फरवरी को सिलीगुड़ी में ममता की रैली में बहुत कम लोग आए थे। इससे वह परेशान हो गई हैं। दार्जीलिंग-कलिम्पांग पहाड़ियों की 15 विधानसभा सीटों पर पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने गोरखाओं के साथ गठबंधन करके 100 से ज्यादा सीटों पर बंगाली मतदाताओं को क्षुब्ध कर दिया है।’’
जाहिर है कि ‘अलग गोरखालैंड’ की मांग को बंगाल के विभाजन के रूप में देखा जाता है और बंगाली मतदाताओं को यह स्वीकार्य नहीं है। क्षेत्र के भाजपा नेता उत्साहपूर्वक दावा करते हैं कि परिवर्तन की लहर उनके पक्ष में है। वे यह भी कहते हैं कि राज्यभर में ममता की रैलियों में आने वाले तृणमूल के जमीनी कार्यकर्ताओं और समर्थकों का एक बड़ा वर्ग वास्तव में मतदान के दिन तृणमूल के खिलाफ वोट कर सकता है।
यह उत्साह भाजपा के शीर्ष नेताओं तथा इस पार्टी के मुख्य रणनीतिकार और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की आवाज में झलकता है। शाह ने इस साल जनवरी में कहा था कि चुनाव का समय आते-आते ममता खुद को बेहद अलग-थलग पाएंगी। दुगार्पुर में भाजपा के एक कार्यकर्ता अमिताभ बनर्जी कहते हैं, ‘‘यह सच है कि तृणमूल कांग्रेस घबराहट की मनोदशा में है।’’
तृणमूल के कई बड़े नेता अब भाजपाई हो गए हैं। इनमें शुभेंदु अधिकारी जैसे बड़े जनाधार वाले चेहरे और बांग्ला फिल्मी दुनिया के सितारे भी शामिल हैं। गत 30 जनवरी को दिल्ली में अमित शाह के आवास पर भाजपा में शामिल हुए पूर्व वन मंत्री राजीब बनर्जी कहते हैं, ‘‘यह तृणमूल के अंत की शुरुआत है। समय आ गया है कि बंगाल में डबल इंजन की सरकार (केंद्र की ही पार्टी की सरकार) बने।’’
राज्य में जिस तरह से भाजपा की लोकप्रियता बढ़ रही है, उससे तृणमूल के नेताओं में खलबली है। वे यह मानने लगे हैं कि अब उनके लिए राह आसान नहीं है। इसलिए तृणमूल के नेता कांग्रेस से भी गठबंधन की बात करने लगे हैं। तृणमूल नेता तापस रॉय कहते हैं, ‘‘कांग्रेस और वाम दलों को भी ममता की पार्टी के साथ गठबंधन में शामिल होना चाहिए।’’ उनकी इस बात से भाजपा में जबर्दस्त उत्साह है। दिलीप घोष कहते हैं, ‘‘तृणमूल जानती है कि उसके लिए भाजपा से लड़ना असंभव है। असली परिवर्तन अब दूर नहीं है और इसलिए बंगाल के लोगों को एहसास है कि उन्हें भाजपा की जरूरत है, ममता की नहीं।’’
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली सफलता उसकी बढ़ती स्वीकार्यता को दर्शाती है। अतीत में राज्य की राजनीति के प्रमुख खिलाड़ी रहे वामपंथी और कांग्रेसी अब हाशिए पर हैं। बदली हुई राजनीतिक वास्तविकता में भाजपा यहां की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 18 सीट जीत गई थी। भाजपा की इस बढ़ती लोकप्रियता का डर ममता और तृणमूल के अन्य नेताओं में साफ दिख रहा है। इससे उबरने के लिए वह हर प्रयास कर रही हैं, जो उन्हें अच्छा लगता है। ममता ने उत्तर प्रदेश और बिहार के मतदाताओं को अपने पाले में खींचने के लिए अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव का सहारा लेने का मन बनाया है। पिछले दिनों कोलकाता में तेजस्वी ने उनसे भेंट भी की है। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि क्या तेजस्वी और अखिलेश ‘बाहरी’ नहीं हैं? उल्लेखनीय है कि ममता और उनके अनेक नेता भाजपा के केंद्रीय नेताओं को ‘बाहरी’ कहते रहे हैं। यानी लोग इस बात पर भी ममता के साथ नहीं दिख रहे हैं। निश्चि रूप से इसका लाभ भाजपा को मिलता रहा है।
कला जगत केसरिया
बंगाल की सत्ता में परिवर्तन लाने के लिए राज्य के कलाकारों में कितनी छटपटाहट है, इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि जो कलाकार पहले ममता के समर्थक थे, वे अब भाजपा में शामिल हो रहे हैं। अभिनेत्री श्रबंती चटर्जी हाल ही में तृणमूल छोड़कर भाजपा में शामिल हुई हैं। अभिनेत्री पायल सरकार ने भी ऐसा ही किया है। अभिनेता यश दासगुप्ता और अभिनेत्री अंजना बसु ने भी भाजपा का दामन थामा है।
2019 के लोकसभा चुनाव में बीरभूम जैसे कुछ जिलों में भाजपा ने अच्छी पैठ बना ली है। यहां के 11 विधानसभा क्षेत्रों में से चार में भाजपा को बढ़त मिली है। 2016 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और माकपा ने बीरभूम जिले से एक-एक सीट जीती थी; अब वे दोनों हाशिए पर हैं। कुल मतों में तृणमूल की हिस्सेदारी के कम होने का अर्थ है भाजपा को लाभ। लोकसभा चुनाव में भाजपा के दूध कुमार मंडल ने लोकप्रिय अभिनेत्री और बीरभूम से सांसद शताब्दी रॉय को कड़ी टक्कर दी थी। भाजपा उम्मीदवार को 5,65,000 से अधिक मत मिले थे। दूसरी ओर शताब्दी रॉय को 2014 में मिले मतों से 7.32 प्रतिशत कम मत मिले और माकपा उम्मीदवार रेजाउल करीम को केवल 96,763 वोट मिले। सोमनाथ चटर्जी को सात बार अपना प्रतिनिधि बनाने वाली वामपंथियों का गढ़ रही एक अन्य संसदीय सीट बोलपुर में भाजपा प्रत्याशी राम प्रसाद दास 5,92,000 मतों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। यहां भाजपा के पिछले प्रदर्शन की तुलना में 25 प्रतिशत अधिक मत उसके पाले में आए। पूरे राज्य में माकपा का मत प्रतिशत 2019 में 6.34 प्रतिशत पर आ गया, जबकि यह 2006 में 37 प्रतिशत था।
वास्तव में सत्ता गंवाने के पांच साल बाद 2016 के विधानसभा चुनाव में माकपा ने हड़बड़ाहट में साथी बनाई गई कांग्रेस से भी कमजोर प्रदर्शन किया। कभी कट्टर प्रतिद्वंद्वी रही कांग्रेस के साथ इसके गठजोड़ ने कांग्रेस को ही ज्यादा लाभ पहुंचाया। शान्याल जैसे राजनीति विशेषज्ञ कहते हैं, ‘‘अगर वामंपथी इस बार अच्छा प्रदर्शन नहीं करते हैं, तो उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता ही खत्म हो जाने की संभावना का सामना करना पड़ेगा। 2019 के संसदीय चुनाव में माकपा को एक भी सीट नहीं मिली थी।’’
हताशा और पहचान की राजनीति
वामपंथी खेमे में मौजूद हताशा ने माकपा को अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेकुलर फ्रंट (आईएसएफ) पर निर्भर बना दिया है। आईएसएफ घोर सांप्रदायिक दल है, जिसका गठन कुछ दिन पहले ही हुआ है। आईएसएफ से माकपा और कांग्रेस गठबंधन को कितना लाभ मिलता है, यह तो समय ही बताएगा, पर एक बात तो अभी से दिख रही है कि इसने ममता बनर्जी की राह में रोड़ा डाल दिया है। कभी ममता के घोर समर्थक रहे अब्बास सिद्दीकी ने कोलकाता के ऐतिहासिक ब्रिगेड मैदान में वामपंथी और कांग्रेसी नेताओं के साथ मंच साझा करते हुए कहा है, ‘‘हम उन्हें (ममता) शून्य में बदल देंगे। आने वाले दिनों में हम ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल से उखाड़ फेंकेगे।’’
अब्बास ऐसे ही यह बात नहीं कह रहे हैं। उल्लेखनीय है कि तृणमूल कांग्रेस बहुत हद तक मुस्लिम मतदाताओं के भरोसे ही चुनाव जीतती रही है। बंगाल में लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। उन्हें अपने पाले में बनाए रखने के लिए ममता आएदिन हिंदू संस्कृति पर हमला करती रही हैं। इस कारण बड़ी संख्या में हिंदू मतदाता ममता से दूर हो रहे हैं और मुस्लिम भी आईएसएफ की ओर झुकते दिख रहे हैं। यह एक नई राजनीतिक घटना है। उल्लेखनीय है कि बंगाल के मुसलमान इससे पहले माकपा और उसके बाद तृणमूल के साथ रहे हैं, लेकिन इस बार वे एक मुस्लिम पार्टी आईएसएफ का गुणगान कर रहे हैं। आसनसोल, मालदा और मुर्शिदाबाद के आसपास के इलाकों में बंगाली मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा वर्ग भाजपा को नैतिक समर्थन दे रहा है। इसका कारण है केंद्र सरकार द्वारा तीन तलाक व्यवस्था को खत्म करना।
भाजपा ने इस चुनाव में भारी हिंसा की आशंका जता कर राज्य में केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग की है। यही कारण है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अब तक केंद्रीय बलों की 125 कंपनियों को तैनात भी कर दिया है। यह भी कहा है कि आने वाले समय में और कंपनियां भी तैनात होंगी। भाजपा की यह आशंका निराधार नहीं है। उसके अपने ही 130 से अधिक कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। इन सबका आरोप सत्तारूढ़ तृणमूल के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर है। कुछ ही समय पहले माकपा के एक वरिष्ठ नेता राबिन देब ने कहा था, ‘‘हमारा राज्य कई जगहों पर श्मशान में बदल गया है। लेकिन दु:ख की बात यह है कि इस स्थिति में सुधार के लिए बहुत कुछ नहीं किया जा सकता, क्योंकि राज्य की पुलिस हत्या और हिंसा की घटनाओं को छुपाने में ज्यादा व्यस्त है।’’ शायद यही कारण है कि पुरुलिया में वामदलों के समर्थक कहते हैं कि यह तो सुनिश्चित है कि लोग तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ मतदान करेंगे, पर देखने वाली बात यह है कि उनमें से कितने लोग वास्तव में भाजपा को या वाम-कांग्रेस गठबंधन को वोट देंगे।
दुगार्पुर के मोफिदुल इस्लाम का कहना है कि वह इस संभावना से इंकार नहीं कर सकते कि तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए वामपंथी दलों के जमीनी कार्यकर्ता भाजपा से भी हाथ मिला लें। ये सारी बातें बंगाल में सत्ता परिवर्तन का संकेत दे रही हैं। अब कौन इस संकेत को समझ रहा है और कौन नहीं, यह अलग बात है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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