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होम भारत

भाजपा को विकास पर विश्वास

by WEB DESK
Mar 10, 2021, 12:00 am IST
in भारत
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असम में सत्तारूढ़ भाजपा को विश्वास है कि गत पांच साल में उसकी सरकार ने जो कार्य किए हैं, उनके आधार पर फिर से वह सरकार में वापस आ जाएगी। राज्य में नेतृत्वहीन कांग्रेस के कारण भी भाजपा की राह आसान दिख रही है
इस चुनावी मौसम में असम पहुंचने वाले पत्रकार हर किसी से पहला सवाल यही करते हैं कि राज्य में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) का क्या प्रभाव रहने वाला है, राष्ट्रीय नागरिकता पंजी (एनआरसी) की कवायद से क्या अंतर आने वाला है, आदि-आदि। ऐसे प्रश्न उठना स्वाभाविक है, क्योंकि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सीएए को ही अपनी चुनावी रणनीति की धुरी बनाया है। जबकि जमीनी स्तर पर मौन मतदाता रोटी के प्रश्न में उलझा है, या यूं कहें कि समाधान खोज रहा है। कांग्रेस सीएए के साथ महंगाई और बेरोजगारी जैसे उन चिर स्थायी मुद्दों को जोड़ रही है, जिनका जवाब खुद उसके पास भी कई बार नहीं होता, वहीं भाजपा विकास का पत्ता आगे रखकर बाजी जीतने के मूड में है। ऐसा नहीं है कि इस कोशिश में भाजपा अपने मूल मुद्दों को भूल रही हो। पार्टी के वरिष्ठ नेता और मंत्री हिमंत बिस्व शर्मा का कहना है, ‘‘असम का विकास और असम की सभ्यता दोनों के बीच शरीर और आत्मा जैसा संबंध है, इसलिए हम दोनों मुद्दों को साथ लेकर चुनाव में उतरे हैं।’’

दिल्ली के दूरबीन से उठते हवा-हवाई प्रश्नों का पटाक्षेप असम में कांग्रेस की गतिविधियों पर दृष्टि डालते ही हो जाता है, साथ ही, आगामी विधानसभा चुनावों की तस्वीर भी बहुत हद तक स्पष्ट हो जाती है। कांग्रेस के सीएए विरोधी अभियान की हवा उसके राष्ट्रीय नेता राहुल गांधी की उपस्थिति में ही निकल गई जब उनकी शिवसागर रैली में ‘नो सीएए’ लिखे असमिया गमछे नेताओं को भेंट किए जा रहे थे। इस रैली में मौजूद महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव समेत कई नेताओं ने यह गमछा धारण नहीं किया और इस अवसर का वीडियो असम के राजनीतिक गलियारों में सीएए के मुद्दे पर कांग्रेस की अंदरूनी फूट की कहानी कहने लगा। इसे संभालने के लिए कांग्रेस ने एक बयान जारी कर दिया, ‘‘नो सीएए लिखे असमिया गमछे पूरे राज्य से संकलित किए जाएंगे और इस कानून के विरोध में हुए प्रदर्शनों के दौरान मारे गए लोगों का ‘शहीद स्मारक’ बनाकर वहां ये गमछे रखे जाएंगे।’’ इस पर भी बराक घाटी के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने कहा कि यदि पूरे असम की जनता इस कानून के विरोध में होती तो पूरे राज्य से भाजपा के इतने सांसद कैसे लोकसभा में पहुंच जाते?

कांग्रेस ने इस चुनाव में सीएए के विरोध के नाम पर भावनात्मक कार्ड खेलने की कोशिश की है, लेकिन वहां भाजपा ने पहले से अपनी बढ़त बना रखी है। विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर कांग्रेस ने हुंकार रैली शुरू की तो सांसद प्रद्युत बरदोलोई ने भाजपा पर असम समझौते की धारा छह को संकीर्ण करने और भाषा के आधार पर विभाजन करने का आरोप लगाया, जबकि भाजपा पहले से ही असम में रहने वाले हर नागरिक की भाषिक, जातीय, मजहबी पहचान को असमिया पहचान के रूप में रेखांकित करती रही है। हिमंत बिस्व शर्मा तो सीना ठोक कर कहते हैं, ‘‘जो मुस्लिम अपने को असमिया नहीं मानतें हों या असमिया से इतर पहचान स्थापित करना चाहते हों, वे मुझे (भाजपा) वोट न दें। ऐसा कोई वोटर यदि मुझे वोट दे भी देता है तो मुझे विधानसभा में खड़े रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।’’

जिस राज्य में 34 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम हों और 30 से 35 सीटों पर निर्णायक भूमिका में हों, वहां ताल ठोक कर ऐसा कहने का आत्मविश्वास भाजपा नेताओं में आया है तो राज्य में किए गए विकास और जनकल्याण कार्यों के कारण। यह न सिर्फ सैद्धांतिक बात है, बल्कि इसका व्यावहारिक स्वरूप भी देश ने देखा है। 2016 में भाजपा की सरकार बनते ही यहां विकास की कई परियोजनाएं शुरू की गर्इं। इनमें से ज्यादातर पूरी भी हो गई हैं। यही कारण है कि गत लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने राज्य के 126 में से 82 विधानसभा क्षेत्रों में मजबूत बढ़त बनाए रखी, जबकि कांग्रेस मात्र 26 और एआईयूडीएफ मात्र 12 सीटों पर बढ़त बनाए रख सकी।

‘मैं वोट किसे दू
बात बीते लोकसभा चुनावों के समय की है, पर इसकी प्रसांगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी उन दिनों थी। असम के दक्षिणी हिस्से में स्थित सिल्चर लोकसभा क्षेत्र में चुनावी यात्रा के दौरान एक वाहन में तीन-चार पत्रकार आपस में चर्चा कर रहे थे। बातचीत का सार यह निकल रहा था मुस्लिम वोट तो भाजपा को मिलने से रहे, इसलिए भाजपा की नैया पार लग नहीं पाएगी। तभी बीच में ड्राइवर ने हस्तक्षेप किया, ‘‘आप लोगों को ऐसा क्यों लगता है कि मुस्लिम वोट भाजपा को नहीं मिलेंगे?’’ उसे जवाब भी सवालिया लहजे में मिला, ‘‘आप बताओ क्यों मिलेगा?’’ अब ड्राइवर बोल उठा, ‘‘मैं मुस्लिम हूं, मुझे भाजपा का स्थानीय प्रत्याशी भी पसंद नहीं है, फिर भी मैं भाजपा को वोट दूंगा, मोदी के लिए।’’ यहां तक तो यह बातचीत बड़बोलापन से सराबोर मालूम पड़ रही थी, लेकिन आगे का कथन दिलचस्प था, ‘‘आप जिस जगह चल रहे हैं न, यहां की सड़क हर बरसात में बह जाया करती थी, हर साल करोड़ों रुपए आते थे, सड़क बनती थी और अगली बरसात में फिर से बह जाती थी। फिर केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार बनी। नदी की दिशा से सड़क को सीमेंट से पक्का कर दिया गया। अब बारहों मास सड़क चलती है। मैं तो ड्राइवर हूं, मुझे रोजी-रोटी इसी मोदीराज में मिली, मैं वोट किसे दूं।’’

ढांचागत विकास की दिशा में सिल्चर-गुवाहाटी महामार्ग को छोड़ दें (इसे मार्च, 2022 तक पूरा करने का लक्ष्य दिया गया है) तो राज्य की शेष सभी सड़कों का कायाकल्प विगत 5-6 वर्ष में हो गया है। अनेक नए पुल-पुलियों ने आवागमन को सुगम कर यहां जनजीवन को गति दी है। रेल, वायु व सड़क मार्ग के माध्यम से बेहतर संपर्क ने बाहरी दुनिया से आदान-प्रदान के अवसरों को बढ़ाया है। राज्य में 2016 से 2020 के दौरान 14,000 किमी से ज्यादा सड़कों का निर्माण हुआ है। मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के शब्दों में, ‘‘जिस असम में ब्रह्मपुत्र नदी पर एक अदद पुल के लिए आंदोलन करना पड़ रहा था, वहां केंद्र की सरकार ने इस नदी पर पांच नए पुलों के निर्माण की स्वीकृति स्वयं दे दी है।’’ ये पांच नए पुल धोला-सादिया और बोगिबिल पुलों के उद्घाटन के बाद स्वीकृत किए गए हैं।

‘भारतमाला’ परियोजना की तर्ज पर ‘असममाला’ परियोजना का उद्घाटन हाल ही में प्रधानमंत्री ने किया है जिसके तहत राज्य में चौड़ी और सुदृढ़ सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है। यह केवल सड़क मार्ग की कहानी है। अरुणाचल व मेघालय तक रेल का विस्तार, त्रिपुरा, मिजोरम, मणिपुर को जोड़ने वाली रेल लाइनों का आमान परिवर्तन, दिल्ली और दक्षिण भारत के प्रमुख शहरों के साथ रेल संपर्क, उड़ान योजना के जरिए हवाई यातायात की आवृत्ति में बढ़ोतरी, देश के प्रमुख शहरों से सीधा हवाई संपर्क आदि अनेक कदम हैं, जिन्होंने इस राज्य के जनजीवन, व्यापार-कारोबार आदि को सुगम किया है। ‘लुक ईस्ट’ को ‘एक्ट ईस्ट’ में बदलने के केंद्र सरकार के संकल्प और उस दिशा में काम-काज ने जापान जैसे देशों की दिलचस्पी असम में जगाई है, वहीं इस मोर्चे पर प्रगति का सकारात्मक असर जनकल्याण के कार्यों पर भी हुआ है। इतना ही नहीं, राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य के आधारभूत क्षेत्रों में भी अभूतपूर्व प्रगति देखी जा रही है। राज्य में 2016 तक मात्र छह मेडिकल कॉलेज हुआ करते थे। अब इनकी संख्या 12 हो चली है।

प्रत्येक दो जिले में एक मेडिकल और एक इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने के लिए राज्य सरकार लगातार वादे करती आ रही है और इस दिशा में कमोबेश काम चल भी रहा है। इस कारण राज्य के प्रतिभावान विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के अवसर घर के आसपास सहजता से मिल पा रहे हैं। बिहार में नीतीश कुमार को सत्ता की दूसरी पारी दिलाने में स्कूली बालिकाओं की साइकिल ने बड़ी भूमिका निभायी थी। यहां असम सरकार ने प्रथम श्रेणी में 12वीं पास करने वाली हर छात्रा को स्कूटी देकर अलग ही माहौल बना लिया है। खेल विश्वविद्यालय, कृषि विश्वविद्यालय आदि की स्थापना और विकास से शैक्षिक परिवेश सुधरती दिख रही है। कोविड 19 जैसी आपात परिस्थिति में बेहतर स्वास्थ्य प्रबंधन और जन प्रबंधन कर राज्य सरकार ने जनता का दिल भी जीता और महामारी का प्रसार भी रोका। लॉकडाउन के दौरान जरूरतमंदों तक नि:शुल्क दवा पहुंचाना, अन्य राज्यों से लौटकर आए लोगों की समुचित स्क्रीनिंग, संक्रमितों की देखभाल आदि के मामले में असम सरकार ने अच्छा कार्य किया है।

मध्यवर्ग के लिए बुनियादी सुविधाएं और जीवन सुगमता, कारोबार सुगमता उपलब्ध होने से राज्य सरकार के लिए अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों जैसे बागानी समुदाय आदि पर ध्यान देना सहज हुआ और इस कारण चाय बागानों में भाजपा की जमीन जितनी मजबूत हुई उसने भी विपक्ष की नींद उड़ा दी है। हाल में जब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का गुवाहाटी दौरा हुआ तो चाय बागान श्रमिकों को 3,000 रुपए की किस्त डीबीटी के रूप में देने के लिए विशाल आयोजन किया गया था। इससे पहले 5,000 रुपए श्रमिकों के खाते में पहुंच चुके थे। लगभग 7,50,000 चाय श्रमिकों को इसका लाभ मिला है। कांग्रेस के पास अपने कार्यकाल के लिए कहने को कुछ था नहीं तो उसने इस आयोजन को नौटंकी बताना शुरू कर दिया।

23_1 H x W: 0 केंद्र सरकार ने इस वर्ष के बजट में 1,000 करोड़ रु. का आवंटन चाय श्रमिकों के कल्याण पर खर्च के लिए किया गया है। इसके अलावा राज्य की ओर से बागानी क्षेत्रों में 119 मॉडल हाई स्कूल बनाए गए हैं। गर्भवती महिला श्रमिकों को विशेष भत्ते दिए जा रहे हैं। दसवीं और 12वीं पास करने वालों विद्यार्थियों को 10-10 हजार रु., बागान के सरदार को मोबाइल फोन और उद्यम की इच्छा रखने वाले युवाओं को नगद धनराशि प्रदान की जा रही है। चाय बागानों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, मातृत्व लाभ, आंगनबाड़ी जैसी सुविधाएं पहुंचाने को राज्य सरकार ने प्राथमिकता दी तो इसका प्रतिफल पार्टी को एक मजबूत वोट बैंक के रूप में मिला है। राज्य में चाय बागानकर्मियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का लगभग 20 प्रतिशत है। चाय बागान और बंगाली हिंदू मतों के भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण को देखकर घबराई कांग्रेस मुस्लिम मतों को समेटने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाती दिख रही है।

हिमंत विश्व शर्मा जहां चुनावों को सरायघाट की दूसरी लड़ाई बताकर ‘मुगलों’ को गुवाहाटी से दूर रखने की बात बार-बार मंच से कर रहे हैं, वहीं कांग्रेस बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाकर और उसमें एआईयूडीएफ को प्रमुखता देकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। फिर भी अब तक के सर्वेक्षण उसके सपनों को चूर-चूर होता दिखा रहे हैं। बीते माह आए सी-वोटर सर्वे के अनुसार यह महाजोत (महागठबंधन) 43-51 सीटों के बीच अटक कर रह जा रहा है। हाल में बोडो डेमोक्रेटिक फ्रंट के राजग से अलग होने पर कांग्रेसी धड़ा उत्साहित तो हो उठा मगर यह भूल गया कि लोकसभा चुनावों के ठीक पहले असम गण परिषद (अगप) ने भी सीएए को मुद्दा बनाकर राजग छोड़ दिया था, फिर चुनाव आते-आते राजग में शामिल हुई। इसके बाद भी भाजपा ने अपने खाते की सभी सीटें जीतीं और जिन दो सीटों पर राजग को हार मिली, वे अगप के खाते की सीटें थीं।

यहां एक और बात ध्यान देने की है कि देश के बाकी हिस्सों की ही तरह कांग्रेस असम में नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। जो चेहरा इन चुनावों में पार्टी की ओर से सबसे ज्यादा चमकने वाला है, वह है छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का। पार्टी ने उन्हें राज्य में चुनावी घोषणापत्र को अंतिम रूप देने का दायित्व दिया है। राज्य के नेताओं ने बाकायदा घोषणाएं की हैं कि असम में छत्तीसगढ़ मॉडल लागू किया जाएगा। तरुण गोगोई के निधन के बाद कोई नेता उनकी तरह स्वीकार्य छवि वाला है नहीं, दूसरी ओर भाजपा के समक्ष ऐसा कोई संकट नहीं है। लोग प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर जितने फिदा हैं, उतनी ही लोकप्रियता सर्वानंद सोनोवाल और हिमंत बिस्व शर्मा की जोड़ी को हासिल है।

इसी का परिणाम है कि पिछले एक वर्ष में कांग्रेस के दर्जनों विधायक/पूर्व विधायक/पूर्व सांसद आदि बड़े नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं। ऐसे में चुनावी बिगुल बज जाने के बाद अब कांग्रेस का संकट गहराने वाला है। देखना होगा कि विकास के एजेंडे के सहारे भाजपा गठबंधन को विजय मिलेगी या सांप्रदायिक एजेंडे पर चल रहे महाजोत को जीत हाथ लग पाती है।

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