इस आंदोलन पर अब राकेश टिकैत का ही दबदबा दिखाई देने लगा है। बाकी किसान नेताओं का कहीं कोई अता पता नहीं है। टिकैत अपने हिसाब से आंदोलन को चला रहे हैं और वह भी विशुद्ध रूप से राजनीतिक एजेंडे के साथ
किसान आंदोलन की आड़ में गणतंत्र दिवस की शर्मनाक हिंसा रूपी तूफान के बाद स्वयंभू आंदोलन से सभी मुद्दे उड़ गए, अब केवल एक टिकैत नामक मुद्दा बचा दिख रहा है। वह टिकैत जो मई, 2024 यानि लोकसभा चुनावों तक धरना देने, चुनावी राज्यों में जाकर भाजपा का विरोध करने की बात करते हैं। लेकिन हाल ही में 2 मार्च को गुजरात में सत्तारूढ़ भाजपा ने सभी 31 जिला पंचायतों के साथ ही 231 तालुका पंचायतों में से 196 में और 81 नगरपालिकाओं में से 74 में स्पष्ट बहुमत ले निकाय चुनावों में बड़ी जीत हासिल की। कृषि कानूनों के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उपचुनावों सहित अनेक प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों में भाजपा को मिली जीत ने बता दिया कि देश का असली किसान किसके साथ है और किसान नेताओं के उजागर हुए राजनीतिक एजेंडे से भी साफ हो गया है कि आंदोलन से तीन कृषि कानून, एमएसपी पर कानून व सभी तरह के किसानी मुद्दों सहित सबकुछ उड़ गया है। आंदोलन में शेष केवल मोदी व भाजपा विरोध की राजनीति रह गई जिसके प्रतीक भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत बनते जा रहे हैं।
लाल किले की घटना और ट्रैक्टर परेड में हुई हिंसा के बाद किसान आंदोलन का हश्र भी शाहीनबाग जैसा होता दिखाई दिया। हिंसा के दूसरे दिन ही दो किसान संगठन आंदोलन से अलग हो गए। कुछ किसान संगठनों ने हिंसा के लिए सरकार पर ही आरोप लगाये। इसमें कितनी सच्चाई है, यह तो देश जानता है, लेकिन आंदोलन मार्ग भटक चुका, यह सच साबित हो चुका है। देश की राजधानी में हुई खुलेआम हिंसा ने किसान आंदोलन और उनकी जायज मांगों के प्रति आम आदमी की सहानुभूति को खो पूरी तरह दिया।
आंदोलनकारी किसान संगठन शुरू से कृषि कानून खत्म करने जैसा अतिवादी सिरा पकड़े हुए थे, जिसे मोदी तो क्या कोई भी संवैधानिक सरकार शायद ही स्वीकार करती। आंदोलन के संचालक किसान नेताओं को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के उस प्रस्ताव पर सकारात्मक ढंग से विचार करना था, जिसमें कृषि कानूनों को डेढ़ साल स्थगित करने की बात कही गई थी। यह सही है कि किसान आंदोलन के कारण सरकार दबाव में थी। आंदोलन की इसी शक्ति ने किसान नेताओं को मुगालते में ला दिया। वरना गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड करने का कोई औचित्य नहीं था।
अतीत पर नजर डालें तो इस देश में ज्यादातर बड़े और निर्णायक किसान आंदोलन आजादी के पहले भी हुए और बाद में भी। आजादी के बाद दो ऐसे बड़े किसान आंदोलन हुए जिन्होंने देश की राजनीतिक धारा को प्रभावित करने का काम किया। ये दोनो आंदोलन भी वामपंथियों ने ही खड़े किए थे। पहला था 1947 से 1951 तक हैदराबाद रियासत में सांमती अर्थव्यवस्था के खिलाफ आंदोलन। दूसरा बड़ा किसान आंदोलन 1967 में पश्चिम बंगाल में नक्सली आंदोलन के रूप में हुआ। इसके परिणामस्वरूप बंगाल में भूमि सुधार लागू हुए, लेकिन हिंसक होने के कारण यह आंदोलन जल्द ही सहानुभूति खो बैठा ठीक मौजूदा किसान आंदोलन की तरह। इसके बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत ने अस्सी और नब्बे के दशक में कई किसान आंदोलन किए। उन्होंने 1988 में उन्होंने पांच लाख किसानों के साथ एक सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर धरना दिया और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी थी। लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन पूरी तरह पथभ्रष्ट दिखने लगा है।
बेशक, नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों के मन में संशय हो सकते हैं, जिनके समाधान कारक उत्तर तो इन कानूनों के व्यवहार मे आने के बाद ही मिल सकते थे। फिर भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए इन कानूनों को आधार बनाकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया। यहां तक कि इन कानूनों के पास होने के बाद राकेश टिकैत सहित कई किसान नेताओं ने इन कानूनों का यह कहते हुए स्वागत किया कि उनकी बरसों की मेहनत सफल हुई और सरकार ने उनकी सुन ली है। लेकिन एकाएक उन्हीं मुखों से इन कानूनों के काला कानून होने की बात सुन कर देश दंग रह गया। हालांकि यह बात अलग है कि न तो कोई किसान नेता और न ही विपक्ष अभी तक यह बता पाया कि इन तीन काले कानूनों में काला क्या है ?
इस आंदोलन पर अब राकेश टिकैत का ही दबदबा दिखाई देने लगा है। बाकी किसान नेताओं का कहीं कोई अता पता नहीं है। टिकैत अपने हिसाब से आंदोलन को चला रहे हैं और वह भी विशुद्ध रूप से राजनीतिक एजेंडे के साथ। किसान मोर्चा अपना मंच किसी राजनेता से सांझा न करने के दावे करते थे परंतु टिकैत अपने प्रिय व हितैषी नेताओं की खूब सार्वजनिक आवाभगत कर रहे हैं। उन्हें मंच पर पूरा समय और सम्मान दिया जा रहा है। केवल इतना ही नहीं टिकैत सरेआम सरकार को धमका भी रहे हैं और सत्ता परिवर्तन की धमकी भी दे रहे हैं। टिकैत ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के एक बयान के जवाब में कहा कि जब लोग जमा होते हैं तो सरकारें बदल जाती हैं। उन्होंने कहा कि अगर तीन नए कृषि कानूनों को रद्द नहीं किया गया तो सरकार का सत्ता में रहना मुश्किल हो जाएगा। टिकैत सोनीपत जिले के खरखौदा की अनाज मंडी में किसान महापंचायत में को संबोधित कर रहे थे। ज्ञात रहे कि श्री तोमर ने ग्वालियर में कहा था कि केंद्र सरकार नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे किसानों से बात करने को तैयार है लेकिन, महज भीड़ जमा हो जाने से कानून रद्द नहीं होंगे। इस पर राकेश टिकैत ने कहा, ‘राजनेता कह रहे हैं कि भीड़ जुटाने से कृषि कानून वापस नहीं हो सकते, जबकि उन्हें मालूम होना चाहिए कि भीड़ तो सत्ता परिवर्तन का भी सामर्थ्य रखती है। यह अलग बात है कि किसानों ने अभी सिर्फ कृषि कानून वापस लेने की बात की है, सत्ता वापस लेने की नहीं। टिकैत ने कहा, ‘सरकार को मालूम होना चाहिए कि अगर किसान अपनी उपज नष्ट कर सकता है तो आप उनके सामने कुछ नहीं हो। टिकैत हरियाणा, दिल्ली के आसपास, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महापंचायतें करके जिस तरह लोगों के बीच ब्यानबाजी कर रहे हैं उससे साफ हो जाना चाहिए कि पूरे आंदोलन में किसान तो केवल कंधा हैं और उस पर बंदूक रख कर चांदमारी विपक्ष कर रहा है।
दूसरी ओर केंद्र के साथ टकराव के मार्ग पर चल रहे राज्यों महाराष्ट्र व पश्चिमी बंगाल को लेकर प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिक्खस फार जस्टिस (एसजेएफ) ने इनसे अपील की है कि वे भारत से अलग हो जाएं। ज्ञात रहे कि पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आई.एस.आई. के गुप्त एजेंडे पर चल रहा यह संगठन किसान आंदोलन के दौरान भी काफी सक्रिय रहा और किसानों को हिंसा के लिए भड़काता रहा है। किसान आंदोलन में एक अन्य खालिस्तानी संगठन ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन’ का नाम भी सामने आया जिसका संचालक कनाडा का निवासी मो. धालीवाल है। हाल ही में सामने आया टूल किट प्रकरण का सूत्रधार भी यही संगठन है। टूलकिट एक तरह की गाइडलाइन है जिसके जरिए ये बताया जाता है कि किसी काम को कैसे किया जाए। ज्ञात रहे कि किसान आंदोलन को लेकर पूरी दुनिया में सोशल मीडिया पर अभियान चला था, जिसका उद्देश्य हिंसा को बढ़ावा देना और भारत की छवि को तार-तार करना था। इस दस्तावेज का जुड़ाव ‘पोएटिक जस्टिस फाउंडेशन’ नामक खालिस्तानी समर्थक समूह से होने का पता चला। इस ‘टूलकिट’ का मकसद भारत सरकार के खिलाफ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जंग छेडऩा था।
हरित क्रांति का क्षेत्र कहे जाने वाले पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है उनका इस कथित किसान आंदोलन में जिक्र तक नहीं। देश का यह उपजाऊ मैदान निरंतर सूख रहे भू-जल, खतरनाक स्तर पर पहुंचे रासायनिक खादों के प्रयोग, धरती की कम हो रही उर्वरा शक्ति, बिगड़ रहे पर्यावरण, इन्हीं कारणों से समाज में फैल रही कैंसर जैसी घातक बिमारियों जैसी समस्याओं से सर्वाधिक परेशान है परंतु किसान आंदोलन में इनका जिक्र तक नहीं मिलता। पंजाब के किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्याएं कर रहे हैं और केंद्र सरकार जब इन्हीं किसानों की आय बढ़ाने के उद्देश्य से उन्हें फसलों की खरीद के वैकल्पिक नए अवसर प्रदान करना चाहती है तो यही कथित किसान नेता उसका विरोध करते दिखाई दे रहे हैं, वह भी विपक्ष के राजनीतिक एजेंडे और देश विरोधी शक्तियों की साजिशों का जाने-अनजाने में हितपोषण करते हुए। देश व देश के किसानों के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की क्या बात हो सकती है ?
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