रांची उच्च न्यायालय के पास पत्थरगड़ी करने पर उतारू लोग गत 22 फरवरी को रांची उच्च न्यायालय के समीप अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई। डॉ. आंबेडकर की मूर्ति के सामने कुडूख नेशनल काउंसिल के करीब 200 लोग पत्थरगड़ी करने पहुंच गए। पुलिस ने मामले को गंभीरता से लेते हुए उन्हें समझा-बुझाकर वहां से हटा तो दिया, पर उन लोगों ने धमकी दी कि वे आगे बड़ी संख्या में आएंगे और पत्थरगड़ी जरूर करेंगे। इन लोगों का कहना था कि पूरे राज्य में शासन प्रणाली जनजातियों के हाथ में होनी चाहिए। काउंसिल के सदस्य धनेश्वर टोपो ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री, लोकसभा, विधानसभा, सर्वोच्च न्यायालय और राज्यपाल से भी बड़ा उनका अधिकार क्षेत्र है और इसे कोई नहीं रोक सकता।’’ उनके इस बयान को दुस्साहस ही कहा जाएगा। उनमें यह दुस्साहस ऐसे नहीं आया है। इसके पीछे वर्तमान हेमंत सोरेन सरकार है, जो इन दिनों पत्थरगड़ी के आरोपियों को छोड़ने की प्रक्रिया को पूरा करने में व्यस्त है।
सोरेन सरकार जनवरी, 2015 से लेकर 31 दिसंबर, 2019 तक दर्ज करीब 30 मामलों को वापस लेने जा रही है। ये बड़े गंभीर मामले हैं और भाजपा सरकार के समय दर्ज हुए थे। लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन चर्च और अपने वोट बैंक को खुश करने की खतिर इन मामलों को वापस ले रहे हैं। बता दें कि पत्थरगड़ी करने वालों को चर्च का समर्थन प्राप्त है। इन लोगों ने चर्च के इशारे पर ही झारखंड के कई इलाकों में पत्थरगड़ी करके भारतीय संविधान को ही चुनौती दे दी थी। इसलिए कई लोगों के विरुद्ध मामले दर्ज हुए थे। वर्तमान राज्य सरकार उन मामलों को वापस ले रही है। भाजपा ने इसका विरोध किया है।
भाजपा नेता कुणाल सारंगी कहते हैं, ‘‘पत्थरगड़ी के आरोपियों को छोड़ने का फैसला पूरी तरह से गलत और बेतुका है। इससे देशविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा। पत्थरगड़ी के नाम पर देश और संविधान विरोधी गतिविधियों की इजाजत नहीं दी जा सकती।’’ उन्होंने यह भी कहा, ‘‘इससे यही साबित होता है कि वर्तमान हेमंत सरकार को अपने ही राज्य की पुलिस और प्रशासन पर भरोसा नहीं है।’’ सारंगी का यह भी कहना था, ‘‘सरकार के इस फैसले से जहां झारखंड पुलिस और प्रशासन का मनोबल गिरेगा, वहीं देशविरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों का होसला और बुलंद होगा।’’
यह था मामला
रघुबर दास सरकार के कार्यकाल में पत्थरगड़ी के नाम पर खूंटी, गुमला, सिमडेगा, चाईबासा, सरायकेला जैसे कुल 13 जिलों में करीब 50 गांवों के लोगों को अपनी ही सरकार के खिलाफ भड़काया गया था। उनके इस अभियान को चर्च और नक्सलियों ने भी पूरा साथ दिया। उन्हीं के इशारे पर गांवों में पत्थरगड़ी करने के बाद सीमाएं निर्धारित कर दी गई थीं। इसके बाद बाहर से किसी भी शख्स को इन गांवों में आने से पहले ग्रामसभा से इजाजत लेनी पड़ती थी। जो इस नियम को तोड़कर गांव में प्रवेश करता था, उसे बंधक बना लिया जाता था। ग्रामसभा उसे दंड देती थी। इसी क्रम में सरकार से अपनी बात मनवाने के लिए कई बार पुलिस और सीआरपीएफ के जवानों को भी बंधक बनाया गया था। नवंबर, 2019 में विधानसभा चुनाव के वक्त हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने अपने घोषणापत्र में पत्थरगड़ी करने वालों के मुकदमे वापस लेने की बात कही थी। जब सरकार बन गई तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक (29 दिसंबर, 2019) में पत्थरगड़ी से संबंधित मामलों को वापस लेने की घोषणा की थी। उस समय भाजपा सहित कुछ नौकरशाहों ने भी इस निर्णय का विरोध किया था। पुलिस के कुछ पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों ने यह आशंका जताई थी कि इससे राज्य में कानून-व्यवस्था को खतरा हो सकता है, लेकिन सरकार ने किसी की बात नहीं मानी और आरोपियों को छोड़ने की प्रक्रिया को शुरू कर दिया था। इससे पत्थरगड़ी करने वालों का दुस्साहस ही बढ़ा। इसकी एक छोटी झलक 22 फरवरी को नजर आई। इससे अंदाज लगा सकते हैं कि आने वाले समय में सरकार का यह निर्णय राज्य के लोगों के लिए कितना घातक साबित होने वाला है।
जरूरत क्यों पड़ी पत्थरगड़ी की?
उल्लेखनीय है कि रघुबर दास के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा सरकार के समय नक्सलियों, मानव तस्करों, मिशनरियों और अन्य अपराधियों की नकेल अच्छी तरह कसी जा रही थी। इससे इन तत्वों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा था। इन लोगों ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जनजातियों की पुरानी प्रथा पत्थरगड़ी (इसमें किसी मृत व्यक्ति की कब्र के पास एक पत्थर पर उसकी सारी जानकारी उकेरी जाती है आदि) की आड़ में उन्हें सरकार और प्रशासन के विरुद्ध भड़काने का काम किया। उल्लेखनीय है कि सुदूर जिलों में नक्सली और चर्च के लोग अफीम की खेती करते थे। इसकी कमाई से ही ये लोग नक्सली आंदोलन को चलाते थे। 2017 में जनवरी से अगस्त के महीने के बीच खूंटी, अड़की और मुरहू इलाके में प्रशासन द्वारा करीब 50 किलो अफीम भी बरामद की गई थी। इसके साथ पुलिस ने उन इलाकों में हो रही अफीम की खेती को नष्ट कर दिया था। इसका नुकसान नक्सलियों और चर्च को हो रहा था। उनका गोरखधंधा चलता रहे और वहां तक पुलिस पहुंच न पाए, इसलिए उन्होंने ग्रामीणों को संविधान की गलत व्याख्या बताकर कहा कि उनके गांव में ग्रामसभा की अनुमति के बिना कोई प्रवेश नहीं कर सकता। उनके बहकावे में आकर कुछ ग्रामीणों ने पुलिसकर्मियों को कई जगह बंधक भी बना लिया था। तत्कालीन रघुबर सरकार ने ग्रमाीणों को बरगलाने वाले लोगों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा दर्ज किया था। इसी क्रम में पत्थरगड़ी को लेकर नक्सलियों और मिशनरियों की भूमिका भी उजागर हुई थी। जो ग्रामीण इन तत्वों की बात नहीं मानते, उनकी हत्या करा दी जाती है। 23 जनवरी, 2020 को बुरुगुलीकेरा गांव के सात जनजाति लागों की हत्या कर दी गई थी। उनका दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने पत्थरगड़ी आंदोलन के समर्थकों का कहना नहीं माना था। वर्तमान सरकार अपने को जनजातियों का हितैषी कहती है, पर इन मारे गए जनजातीय लोगों को अभी तक न्याय नहीं मिला है। अभी भी हत्यारों को सजा दिलाने के लिए सरकार ने कोई उपयुक्त कदम नहीं उठाया है।
खूंटी के सामाजिक कार्यकर्ता प्रमोद सिंह कहते हैं, ‘‘पत्थरगड़ी करने वालों को झारखंड सरकार का खुला समर्थन है। इसे किसान आंदोलन की तरह देश के उन इलाकों में फैलाने की कोशिश हो रही है, जहां जनजाति समाज के लोग रहते हैं।’’
उम्मीद है कि झारखंड सरकार को सद्बुद्धि आएगी और वह केवल सत्ता के लिए उन तत्वों का समर्थन नहीं करेगी, जो देश और संविधान को ही चुनौती दे रहे हैं।
दस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। राजनीति, सामाजिक और सम-सामायिक मुद्दों पर पैनी नजर। कर्मभूमि झारखंड।
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