पुस्तक के लेखक हैं श्री गिरीश प्रभुणे। गिरीश जी स्वयं ऐसी ही कठिन यात्रा के पथिक हैं। महाराष्ट्र में सोलापुर के पास उन्होंने संघ प्रचारक होते हुए एक अद्भुत प्रकल्प भटकी हुई एवं विमुक्त (घुमंतू) जनजातियों के लिए खड़ा किया। ऐसे अद्भुत कार्य को खड़ा करने वाला संवेदनशील और सहृदय सेवाभावी गिरीश जी जैसा व्यक्ति ही शिवगंगा जैसे जनांदोलन को कलमबद्ध करने का सफलतापूर्वक प्रयास कर सकता था।
कुछ समय पहले ही एक पुस्तक आई है, जिसका शीर्षक है ‘नवभगीरथ’। इसमें मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में चलने वाले एक प्रकल्प ‘शिवगंगा’ और उसके सर्वेसर्वा श्री महेश शर्मा और उनकी टोली का बहुत ही सुंदर चित्रण किया गया है। महेश जी संघ के प्रचारक रहे हैं। शिवगंगा प्रकल्प के जरिए जनजातीय बंधुओं को उनकी ही परंपरा की याद दिलाते हुए, स्वयं के बल पर अपने सूख चुके प्रदेश को फिर से हरा-भरा बनाया जा रहा है।
इस पुस्तक के लेखक हैं श्री गिरीश प्रभुणे। गिरीश जी स्वयं ऐसी ही कठिन यात्रा के पथिक हैं। महाराष्ट्र में सोलापुर के पास उन्होंने संघ प्रचारक होते हुए एक अद्भुत प्रकल्प भटकी हुई एवं विमुक्त (घुमंतू) जनजातियों के लिए खड़ा किया। ऐसे अद्भुत कार्य को खड़ा करने वाला संवेदनशील और सहृदय सेवाभावी गिरीश जी जैसा व्यक्ति ही शिवगंगा जैसे जनांदोलन को कलमबद्ध करने का सफलतापूर्वक प्रयास कर सकता था। कैसे समाजसेवी भाव से निकला एक भावुक व्यक्ति अपने प्रेम से व्यक्ति से व्यक्ति को जोड़ते हुए एक-एक करके सपनों को बड़ा आकार दे सकता है, कैसे पिछड़े दिखने वाले सर्वसाधारण वनवासियों में आत्मविश्वास भर कर उन्हीं के पराक्रमभाव को जगा कर उनके नीरस जीवन में रंग भर सकता है, यह गाथा इन्हीं प्रयासों का निदर्शन है।
कैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से कंधे से कंधा मिला कर ऐसे सत्कार्य को आगे बढ़ाते हैं, यह इसका यात्रा गान है। यदि मन में समाज के बंधुओं के लिए बंधुत्व भाव हो, आत्मीयता हो, तो मार्ग सहज खुलते जाते हैं। हृदयाघात से उबरे महेश जी सैकड़ों गांवों की पदयात्रा बिना किसी साधन के कर सकते हैं, क्योंकि उनके मन में यह अटूट विश्वास है कि सारा समाज मेरा है, और वे उनके साथ एकाकार हो जाते हैं। यह पुस्तक इन्हीं मानवीय भावों से साक्षात्कार कराती है।
लेखक ने ऐसे विषय को अपने कवित्वमय भावनात्मक अंदाज में जीवंत कर दिया है। मूल पुस्तक मराठी में है। डॉ. मोहन बोंडे ने हिन्दी में इतना सुन्दर अनुवाद किया कि पाठक महसूस ही नहीं करता कि वह अनुवाद पढ़ रहा है। जहां गिरीश जी हमें झाबुआ के भीलों के गौरवशाली, संपन्न और शौर्यपूर्ण इतिहास और उनकी विपन्नता के बीच का दर्शन कराते हैं, महेश जी के भगीरथ प्रयासों को अंकित करते हैं, वहीं डॉ. बोंडे उनकी भावनाओं को पाठक के दिल में उतार देते हैं। उन्होंने लेखक की काव्यमय शैली के साथ पूरी तरह न्याय किया है। भारत स्वतंत्र तो हो गया परंतु हमारे वनवासी बंधुओं के साथ अब भी कैसा दुर्व्यवहार हो सकता है, ऐसे अनुभव आपको झकझोर देंगे। वहीं नगरीय समाज को ग्रामीण समाज के साथ जोड़ने, अध्यात्म को समाज कार्य की प्रेरणा बनाने के प्रयत्न, उनकी सफलता, आपसी भेदभाव को बंधुत्वभाव में बदलने के सादे प्रयोग, ये सब पाठक को प्रफुल्लित करने में समर्थ हैं।
प्रस्तावना में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत सावधान करते हैं, ‘‘यह कोई रोमांचकारी उपन्यास नहीं है…इस पुस्तक का वाचन उस आत्मीयता व संवेदना की प्रेरणा पाने की बुद्धि से करना चाहिए, क्योंकि उस आत्मीयता व संवेदना का विस्मरण, यही भारतवर्ष की सभी समस्याओं के मूल में एकमात्र समस्या है।’’
जिस व्यक्ति की समाज सेवा करने की इच्छा हो या जिसे भारत के समाज के मानस को समझना हो, उसे यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। -रतन शारदा
टिप्पणियाँ