तनाव, हताशा, अवसाद आदि अनेक मनोवैज्ञानिक समस्याओं के बारे में अब मदद ली जा सकती है चैटबॉट से। मनोरोगियों के लिए अपने समय और शर्तों पर इन रोगों के समाधान का एक जरिया है चैटबॉट
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार भारत में सिर्फ पांच हजार मनोविज्ञानी हैं और पेशेवर मनोचिकित्सकों की संख्या सिर्फ दो हजार है। वह भी तब जब देश के एक अरब तीस करोड़ लोगों में से 5.6 करोड़ किसी न किसी तरह की मनोवैज्ञानिक समस्या से जूझ रहे हैं। समस्या बड़ी, समाधान उपलब्ध नहीं। ऐसे में मनोवैज्ञानिक समस्याओं से परेशान लोगों को राहत देने के लिए मोबाइल एप्लीकेशन और चैटबॉट एक सुविधाजनक माध्यम बनकर उभरे हैं जिनके लिए महज इंटरनेट कनेक्टिविटी की दरकार है। चैटबॉट का मतलब है, ऐसे एप्लीकेशन जिनके साथ आप लगभग उसी तरह से चैट कर सकते हैं जैसे व्हाट्सएप्प या मैसेंजर में चैट करते हैं। फर्क इतना है कि सामने कोई इनसान नहीं बल्कि एक बॉट (सॉफ्टवेयर रोबोट) है जो बहुत संभव है कि इस प्रक्रिया को ज्यादा सटीक बनाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का प्रयोग कर रहा हो।
ज्यादातर मामलों में चैटबॉट और मोबाइल एप्स नि:शुल्क उपलब्ध हैं। हां, अगर आप सामान्य इस्तेमाल से आगे बढ़कर किसी खास सेवा में दिलचस्पी रखते हैं तो आपको फीस देनी पड़ सकती है। मिसाल के तौर पर, किसी मनोवैज्ञानिक से सीधा परामर्श या फिर आपको लगातार सलाह देते रहने वाली कोचिंग सेवा। अहम बात यह है कि अपनी जगह, अपने समय और अपनी शर्तों पर अवसाद, निराशा, हताशा, तनाव और ऐसी ही दर्जनों दूसरी सामान्य तथा गंभीर समस्याओं के समाधान का एक जरिया हमेशा आपके पास है।
हर मनोवैज्ञानिक उलझन की जड़ में कोई न कोई दूसरी समस्या है। कभी जटिल तो कभी सरल। लेकिन इन समस्याओं के बारे में आम तौर पर लोग दूसरों के साथ खुलते नहीं हैं। मसलन प्रेम से जुड़ी समस्या, पति-पत्नी के बीच की समस्याएं, दफ्तर की समस्याएं आदि। कुछ लोगों को अपनी आदतों, स्वभाव आदि की वजह से भी ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता है तो कुछ को उनके जीवन में घटी किसी खास घटना की वजह से कोई मनोवैज्ञानिक चुनौती घेर लेती है। बहरहाल, इनसानों से जो चर्चा करने में दिक्कत महसूस होती है वही चर्चा किसी बेजान मशीन, मोबाइल एप्प या चैटबॉट के साथ करने में क्या दिक्कत? दिन हो या आधी रात, किसी भी समय गोपनीयता के साथ अपने मन की बात साझा करने के लिए इस तकनीकी मनोवैज्ञानिक की मदद ली जा सकती है।
आइविल (कह्र’’) ऐसा ही एक चैटबॉट है जो एकाध दर्जन सवालों के जवाबों का विश्लेषण करके इस बात का शुरुआती आकलन करने में सक्षम है कि मरीज की समस्या क्या है, कितनी गंभीर है और उसे किस तरह की सहायता की जरूरत है। इसका विकास करने वाली कंपनी ने 35 मनोवैज्ञानिकों को अपने साथ जोड़ा हुआ है और इनके अलावा 15 दूसरे विशेषज्ञ भी जरूरत पड़ने पर फ्रीलांसर के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। ऐसा दावा किया जाता है कि भारत में इसके 50,000 डाउनलोड हो चुके हैं। चूंकि इसकी स्थापना एक भारतीय ने की है इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि यह भारतीय परिस्थितियों को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने में सक्षम है। वह अपने यूजर की आदतों, व्यवहार, खानपान, नींद की स्थिति, मूड और सोच आदि की मॉनिटरिंग करता रहता है और उसी के मुताबिक उन्हें सलाह देता है। जरूरत पड़ने पर वह उनको अपने मनोवैज्ञानिकों से कनेक्ट करता है जो इलाज की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।
आइविल की ही तरह एक और बॉट है- वोबॉट (हङ्मीुङ्म३) जिसे अमेरिका के सान फ्रांसिस्को में विकसित किया गया। भारत में भी इसका काफी प्रयोग हो रहा है। शुरुआत में आपको कुछ सवालों के जवाब देने होते हैं जिनके आधार पर वह आपकी मनोदशा का अंदाजा लगाने की कोशिश करता है। ज्यादातर प्रयोक्ताओं का मानना है कि उसका विश्लेषण काबिलेतारीफ है। जैसे वह आपके मूड को अच्छी तरह भांप लेता है और अगर आप निराश हैं तो मजाकिया भाषा का प्रयोग करते हुए आपका मूड ठीक करने का प्रयास भी करता है। यह कॉग्निटिव बिहेवियरल थेरेपी (सीबीटी) पर चलता है जिसे इलाज का प्रमाण-आधारित तरीका माना जाता है। एक यूजर ने बताया कि वोबॉट ने उसके तीन विचारों को हानिकारक विचारों के रूप में पहचान लिया और उनकी जगह तीन दूसरे सकारात्मक विचारों को सोचने में मदद की।
जो अग्रवाल और रमाकांत वेम्पाती नामक दंपती ने वायसा (ह८२ं) नाम के चैटबॉट का विकास किया है जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाता है। ये लोग चाहते थे कि मनोवैज्ञानिक समस्याएं हाथ से निकल जाएं उससे पहले ही उनका समाधान करने का कोई न कोई माध्यम ढूंढा जाना चाहिए। यह भी आइविल की ही तरह क्लिनिकल बिहेवियरल थेरेपी के आधार पर काम करता है। इसके पीछे 25 लोगों की टीम है जिनमें से आठ मानसिक स्वास्थ्य प्रोफेशनल हैं जो गाइड या कोच की तरह उपलब्ध हैं। उन्होंने लाखों लोगों के साथ रिकॉर्ड की गई बातचीत को अलग-अलग श्रेणियों में बांटा हुआ है। इन चर्चाओं के दौरान उभरने वाले पैटर्न तथा तनाव, हताशा, अवसाद आदि मनोवैज्ञानिक समस्याओं के बीच संबंधों को जानने-समझने की कोशिश की जाती है। जैसे-जैसे डेटाबेस बढ़ता चला जाएगा, वायसा और दूसरे चैटबॉट्स के डायग्नोसिस तथा परिणाम और भी सटीक होते चले जाएंगे।
इस प्रक्रिया में कुछ सवाल भी खड़े होते हैं। मसलन यह कि जिन चैटबॉट्स को हम निर्जीव मानकर चल रहे हैं, कहीं हकीकत में उनके पीछे कोई है तो नहीं? मतलब यह कि जो यूजर अपनी समस्या किसी के साथ साझा नहीं करता, वह यहां पर सौ फीसदी निजता तय मानकर चल रहा है। लेकिन कौन जाने कि एप्प के इंटरफेस के पीछे क्या कुछ घटित हो रहा है? उनके साथ की जाने वाली चर्चाएं किन लोगों तक पहुंचती हैं और उनका बाद में किस रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। आप जानते हैं कि इंटरनेट पर इकट्ठा किए जाने वाले डेटा के दुरुपयोग और निजता के हनन पर खासी आशंकाएं मौजूद हैं। दूसरा डर यह है कि कहीं इस डेटा का दुरुपयोग किसी तीसरे पक्ष द्वारा तो नहीं कर लिया जाएगा? इन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था खुद कितनी सुरक्षित है। तीसरे, इनसान लगातार अपनी जानकारी, अनुभव और कौशल का विकास करता रहता है लेकिन नियमों के आधार पर काम करने वाला सॉफ्टवेयर क्या इनसान की बराबरी कर सकता है? तीसरे सवाल का जवाब तो स्पष्ट है कि फिलहाल इन्हें इनसान के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि इंसानी विशेषज्ञ तक पहुंचने से पहले वाली कड़ी के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। बाकी दो चुनौतियों पर इनके विकासकर्ता इनके सुरक्षित होने का भरोसा दिला रहे हैं। अलबत्ता, इन दावों की स्वतंत्र आधार पर पुष्टि प्रयोक्ताओं के हित में जरूरी है। (लेखक सुप्रसिद्ध तकनीक विशेषज्ञ हैं)
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