महबूबा मुफ़्ती और फारुख अब्दुल्ला द्वारा की जा रही पाकिस्तान के साथ बातचीत की वकालत की मंशा कुछ और है। दरअसल, ये दोनों नेता और इनके दल जिला विकास परिषद् चुनावों में गुपकार गठजोड़ के निराशाजनक प्रदर्शन से हताश और मायूस हैं। इसी के साथ केंद्र सरकार द्वारा घोषित की गयी जम्मू-कश्मीर की नयी अधिवास नीति, भू-स्वामित्व नीति, आधिकारिक भाषा नीति, पर्यटन विकास नीति और औद्योगिक नीति आदि ने इनकी नींद उड़ा दी है
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान से बातचीत का राग अलापा है। इससे ठीक पहले एक और पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा महबूबा मुफ़्ती भी यह अवांक्षित मशविरा दे चुकी हैं। ये वही लोग हैं जो अतीत में जम्मू-कश्मीर के लिए ग्रेटर ऑटोनोमी और सेल्फ रुल का राग जब-तब अलापते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों द्वारा भारतीय सैन्य बलों पर किये गए कायराना पुलवामा हमले के बाद से मोदी सरकार ने पाकिस्तान के साथ सभी प्रकार के सांस्कृतिक और कूटनीतिक सम्बन्ध पूरी तरह समाप्त कर लिए थे। साथ ही, बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा हमले में बलिदान हुए 40 सैनिकों की शहादत का बदला लिया था। बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक में जांबाज भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के कई आतंकवादी प्रशिक्षण केन्द्रों को नेस्तनाबूद करते हुए 250 से अधिक आतंकवादियों को जहन्नुम पहुंचा दिया था।
मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को ऐतिहासिक निर्णय लेकर अभूतपूर्व संकल्प, साहस और इच्छाशक्ति का परिचय दिया। उसने भारतीय संविधान में अस्थायी रूप से जोड़े गए अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी और अनुच्छेद 35 ए को समाप्त करते हुए जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्रशासित प्रदेशों में बांट दिया। यह निर्णय भारतीय जनमानस की सामूहिक आकांक्षा की अभिव्यक्ति था। जम्मू-कश्मीर का भारत के साथ पूर्ण एकीकरण सुनिश्चित करके मोदी सरकार ने डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित प्रेमनाथ डोगरा के संघर्ष और बलिदान के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए ‘एक विधान और एक निशान’ लागू कर दिया।
अब तक जम्मू-कश्मीर की दो प्रमुख राजनीतिक धुरियां रहे वंशवादी राजनीतिक दलों-नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने स्वाभाविक ही इस निर्णय का विरोध किया, क्योंकि अब तक वे अदल-बदलकर राज कर रहे थे। उनके राज में ही केंद्र से विकास योजनाओं के लिए आने वाले धन की खुली लूट हुई और रोशनी एक्ट जैसे घोटाले हुए। इस घोटाले में अरबों की सरकारी जमीन बड़ी पहुंच वाले नेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों को कौड़ियों के दाम ‘बेच’ दी गयी। इस घोटाले के भंडाफोड़ में अग्रणी भूमिका निभाने वाले इकजुट जम्मू के अध्यक्ष एडवोकेट अंकुर शर्मा का तो यहां तक कहना है कि इस एक्ट की आड़ में मजहब विशेष के लोगों को सरकारी भूमि आवंटित करके जम्मू संभाग की डेमोग्राफी बदलने की साजिश भी रची गयी। 5 अगस्त, 2019 से पहले जम्मू-कश्मीर भारतीय संविधान और भारतीय दंड संहिता और कैग द्वारा ऑडिट किये जाने आदि से बचा हुआ था। इसीलिए सरकारी संसाधनों, खजाने और नौकरियों आदि की बंदरबांट जारी थी। अनुच्छेद 370 और 35 ए की आड़ में जम्मू-कश्मीर ‘अन्धेरगर्दी चौपट राजा’ का अनुपम उदाहरण बना हुआ था।
लूट और झूठ की राजनीति में माहिर अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार जम्मू-कश्मीर की जनता को बरगलाकर बारी-बारी से राज कर रहे थे। इसलिए 5 अगस्त, 2019 को हुए ऐतिहासिक परिवर्तन से उन्हें सबसे बड़ा धक्का लगा। इसलिए उन्होंने पुरानी स्थिति की बहाली के लिए अपनी पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता को भुलाते हुए ‘पीपुल्स एलाइंस फॉर गुपकार डिक्लरेशन’ नामक अवसरवादी गठजोड़ बना लिया। इस अवैध और अपवित्र गठजोड़ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसे अल्प-प्रभावी राजनीतिक दल भी शामिल हो गए। हद तो तब हो गयी जब महबूबा मुफ़्ती ने पुरानी स्थिति की बहाली तक भारतीय राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा) न उठाने की शपथ ले ली। वहीं, फारुख अब्दुल्ला ने पुरानी स्थिति की बहाली के लिए चीन से मदद लेने तक की बात कहना शुरू कर दिया। यह उन दिनों की बात है जब चीन वास्तविक नियन्त्रण रेखा का उल्लंघन करते हुए लद्दाख के पैंगोंग और चुसुल क्षेत्र को हथियाने की फ़िराक में था। ये बयान इन दोनों नेताओं के ‘खोखले राष्ट्रप्रेम’ के असली प्रमाण-पत्र हैं। इस गठजोड़ ने मिलकर जिला विकास परिषद् चुनाव लड़ा; लेकिन उस चुनाव में भाजपा और निर्दलियों ने निर्णायक बढ़त हासिल करते हुए इसे धूल चटा दी। यहां तक कि जिला विकास परिषदों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के चुनावों में भाजपा, अल्ताफ बुखारी की जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी और निर्दलियों ने उस निर्णायक बढ़त की पुष्टि करते हुए गुपकार गठजोड़ को और भी हाशिये पर धकेल दिया है। आपसी अविश्वास और धोखाधड़ी के चलते सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस ने इस गठजोड़ से किनारा कर लिया है। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की अध्यक्षा महबूबा मुफ़्ती और नेशनल कॉन्फ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला के बीच जो जुगलबंदी चल रही है, उसका हश्र भी अंततः यही होना है। मतलब और मौके की दोस्ती दीर्घायु नहीं होती।
पिछले दिनों पहले महबूबा मुफ़्ती ने जम्मू-कश्मीर समस्या के निपटारे के लिए पाकिस्तान से बातचीत शुरू करने की वकालत की। उसके दूसरे-तीसरे दिन ही फारुख अब्दुल्ला ने भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए आतंकवाद की समाप्ति और जम्मू-कश्मीर में शांति बहाली के लिए पाकिस्तान से बात करने की सलाह केंद्र सरकार को दे डाली। ऐसा न करने पर फारुख अब्दुल्ला नामक नजूमी (ज्योतिषाचार्य) ने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध की ‘भविष्यवाणी’ भी कर डाली। जम्मू-कश्मीर के स्वयंभू और सरपरस्त इन दोनों नेताओं ने अनजाने में ही भारत सरकार द्वारा बार-बार कही जाने वाली इस बात की पुष्टि कर दी है कि भारत में और ख़ासतौर पर जम्मू-कश्मीर में घटने वाली आतंकवादी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ होता है। पाकिस्तान बार-बार इससे इन्कार करता है और सबूत मांगता है। उसके चहेते इन दो नेताओं, जोकि खुद को जम्मू-कश्मीर के अवाम का सबसे मान्य प्रतिनिधि मानते हैं; के बयानों ने भारत में घटित आतंकवादी घटनाओं में पाकिस्तान की संलिप्तता की पुष्टि कर दी है। 26 नवम्बर,2008 को मुंबई में घटित आतंकवादी घटना भी इसका अपवाद नहीं है। इन दोनों ने अनजाने में ही सही पर पाकिस्तान के आतंकी चेहरे को बेनकाब कर दिया है। पाकिस्तान ने ‘फेल्ड स्टेट’ है। फ़ौज के शिकंजों में छटपटाता पाकिस्तानी लोकतंत्र आतंक और नशे की खेती करने को मजबूर है। दिवालिया हो चुके पाकिस्तान की राजनीति और अर्थ-व्यवस्था का आधार चीनी अनुदान, आतंक और नशे का कारोबार हैं। ऐसी बदहाली और बेचारगी के शिकार पाकिस्तान से भारत को डराने की कोशिश इन नेताओं के मानसिक दिवालियेपन और हताशा की पराकाष्ठा है। ये लोग नए बनते हुए भारत की शक्ति और सामर्थ्य को नज़रन्दाज कर रहे हैं। आज भारत कूटनीति, रणनीति और अर्थनीति में आत्मनिर्भरता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। पैन्गोंग और चुसुल इलाकों से चीन का पीछे हटना उसके ह्रदय-परिवर्तन का नहीं; बल्कि नए भारत की सामरिक और कूटनीतिक ताकत का परिणाम है। क्वैड( जिसके सदस्य संयुक्त राज्य अमेरिका, आस्ट्रेलिया, जापान और भारत हैं) एक ऐसा अंतरराष्ट्रीय गठन है, जिससे विस्तारवादी चीन भयभीत और व्यथित है।
महबूबा मुफ़्ती और फारुख अब्दुल्ला द्वारा की जा रही पाकिस्तान के साथ बातचीत की वकालत की मंशा कुछ और है। दरअसल, ये दोनों नेता और इनके दल जिला विकास परिषद् चुनावों में गुपकार गठजोड़ के निराशाजनक प्रदर्शन से हताश और मायूस हैं। इसी के साथ केंद्र सरकार द्वारा घोषित की गयी जम्मू-कश्मीर की नयी अधिवास नीति, भू-स्वामित्व नीति, आधिकारिक भाषा नीति, पर्यटन विकास नीति और औद्योगिक नीति आदि ने इनकी नींद उड़ा दी है। उधर उच्च न्यायालय की देखरेख में आगे बढ़ रही रोशनी एक्ट घोटाले की जांच भी इनकी चिंता बढ़ा रही है। इन बदली हुई परिस्थतियों में लम्बे समय तक जम्मू-कश्मीर पर राज करने वाले इन दोनों ‘राजघरानों’ को अपने क्रमशः अप्रासंगिक होने का डर सता रहा है। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की समस्या की समाप्ति के लिए पाकिस्तान से बातचीत का सुझाव और सिफारिश उसी निराशा और बौखलाहट का परिणाम है। यह मशविरा उनके द्वारा एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश है। एक तरफ ये आतंकी हिंसा की शिकार जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए चिंतित दिखकर उसके रक्षक और हिमायती बने रहना चाहते हैं, वहीं भारतवासियों और भारत सरकार को भी अपने देशप्रेम और देश-हितैषी होने के बारे में भ्रमित करना चाहते हैं। इस सबसे बढ़कर वे पाकिस्तान की हमदर्दी और साथ चाहते हैं। ताकि पाकिस्तान उनके ‘एजेंडे’ में उनकी आर्थिक और अन्यान्य प्रकार की भरपूर मदद करे। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान हवाला आदि के माध्यम से देश-विदेश में अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की भी ‘मदद’ करता रहा है। ये दल शायद यह बात भूल रहे हैं कि पाकिस्तानी कालेधन की मुफ्तखोरी ने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को मरणासन्न कर दिया है। अब नेशनल कॉन्फ्रेस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी भी आत्महत्या की उसी राह पर चल निकले लगते हैं।
(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता छात्र कल्याण हैं)
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