चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की लागत 46 अरब डॉलर से बढ़कर लगभग 62 अरब डॉलर हो गई है। इस परियोजना के कारण आज पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खतरे में है। एक लम्बे समय से पाकिस्तान की जनता को लगातार सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए जाते रहे हैं, चीन के सहयोग से चल रही सीपीईसी अर्थात चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना के नाम पर। परन्तु न तो यह योजना पाकिस्तान के कायाकल्प के लिए बनाई गई थी और न ही इसने ऐसा किया। और आज वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान के हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं। पाकिस्तान की दुर्दशा के कारणों में एक प्रमुख कारक है यही चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना। पूर्व राष्टÑपति हू जिन ताओ के बाद, सत्ता में आने वाले राष्टÑपति शी जिनपिंग ने विश्व में चीनी प्रभुत्व के प्रसार की इस अति महत्वाकांक्षी योजना पर आगे बढ़ना प्रारंभ किया। यह परियोजना न केवल दक्षिण एशिया बल्कि अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, यहां तक कि पूर्वी यूरोप के देशों पर चीन का सामरिक और आर्थिक वर्चस्व स्थापित करने की है, इसे नाम दिया गया बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना को इसी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की एक प्रमुख परियोजना के रूप में देखा जाता है, जो चीन की तथाकथित महान शक्ति की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से तैयार की गई रणनीति है, जिसमें माओ के क्षेत्र विस्तार के मंसूबों से लेकर डेंग के व्यापारिक और आर्थिक वर्चस्व के मंतव्यों का समावेश है। चीन को पाकिस्तान का न्योता 1949 में चीन पर कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के साथ ही, एक कमजोर देश के रूप में पाकिस्तान ने इसे अरब सागर में स्थित पाकिस्तान के बंदरगाहों तक एक गलियारे के मंसूबे बांधने को प्रेरित किया। इसी के तहत भारत की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए 1959 में कराकोरम राजमार्ग के निर्माण के लिए चीन और पाकिस्तान अग्रसर हुए। बलूचिस्तान में ग्वादर बंदरगाह में 2002 में एक बार फिर से चीन की रुचि जाग्रत हुई और भारत को हिन्द महासागर में घेरने के लिए ‘स्ट्रिंग आॅफ पर्ल्स’ की रणनीति के एक भाग के रूप में चीन ने ग्वादर बंदरगाह का निर्माण शुरू किया, जो 2006 में पूरा हुआ। सैन्य तानाशाह जनरल परवेज मुशर्रफ के पतन और उसके बाद पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता के कारण तालिबान का उदय हुआ, लेकिन इस वजह से यह कार्य लगभग ठप ही पड़ गया। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के शासन के अंतिम दिनों, 2013 में, तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और चीनी प्रधानमंत्री ली के कियांग ने आपसी संपर्क को और बढ़ाने का फैसला किया, जिसके तहत चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे पर दोनों सरकारों के बीच दीर्घकालिक योजना पर सहयोग का एक समझौता मई 2013 में किया गया। 46 अरब डॉलर के प्रारंभिक परिव्यय के साथ, सीपीईसी को ग्वादर बंदरगाह, ऊर्जा, परिवहन अवसंरचना और औद्योगिक सहयोग के साथ एक मुख्य केंद्र के रूप में परिकल्पित किया गया था। इस परियोजना का उद्देश्य चीन के लिए तेल और गैस के परिवहन के लिए एक वैकल्पिक मार्ग तैयार करना और अपने दूरस्थ पश्चिमी क्षेत्रों में आर्थिक विकास को गति प्रदान करना था। इस परियोजना की स्थापना के समय आम मान्यता थी कि में विद्युत समेत अन्य अवसंरचनाओं, जैसे सड़क, रेल इत्यादि के अभाव के कारण उसे सकल घरेलू उत्पाद के 3 से लेकर 5 प्रतिशत तक का नुकसान प्रतिवर्ष उठाना पड़ता है। माना गया कि इन सब आवश्यक घटकों की पूर्ति हो जाने के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि हो सकेगी। लेकिन आज इस योजना को प्रारंभ हुए 7 साल से अधिक का समय बीत चुका है और यह पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद में कोई भी योगदान दे पाने की स्थिति में नहीं दिखाई देती। इसके अंतर्गत आने वाली महत्वपूर्ण परियोजनाओं की मौजूदा स्थिति को देखते हुए लगता है, अगले 3-5 वर्ष में भी शायद ही यह उस स्तर को प्राप्त कर सके। समय बढ़ने के साथ-साथ परियोजना की लागत भी तेजी से बढ़ती जा रही है। आरम्भ में अनुमानित लागत 46 अरब डॉलर से बढ़कर लगभग 62 अरब डॉलर हो गई है, जिसका सीधा परिणाम यह है कि चीनी ऋण तेजी से बढ़ रहे हैं और इन ऋणों और ब्याज के भुगतान से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ गई है। असंतोष के स्वर आज पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तेजी से सिकुड़ रही है। सकल घरेलू उत्पाद की वास्तविक वृद्धि नकारात्मक स्तर पर जा रही है। सीपीईसी की शुरुआत में गरीब पाकिस्तानियों को कई लाख नौकरियों का वादा किया गया था, परन्तु यह कुछ परियोजनाओं के निर्माण के लिए आकस्मिक श्रम को छोड़कर कोई भी स्थायी रोजगार का साधन निर्मित करने में विफल रही है। बड़ी मात्रा में चीनी श्रमिकों के नियोजन ने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी श्रमिकों को उनके रोजगार से वंचित कर दिया है। साथ ही इसमें पाकिस्तान के विविध क्षेत्रों से लगातार असंतोष के स्वर उभरे हैं। जहां बलूचिस्तान के राष्ट्रवादी पाकिस्तान के सहयोग से वहां चीनी उपनिवेश बनाने की साजिश का पुरजोर विरोध कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान द्वारा अवैध रूप से कब्जे में लिए गए गिलगित- बाल्टिस्तान में इस योजना पर गंभीर असंतोष देखने में आ रहा है। कुछ बिजली परियोजनाओं को छोड़कर, जिनसे तुरंत राजस्व की वसूली की जा सकती है, कोई भी सीपीईसी परियोजना समय पर पूरी नहीं हुई। यह कुप्रबंधन पाकिस्तान के सैन्य अधिष्ठान की मूढ़ता की स्वाभाविक परिणिति है। पाकिस्तान में सीपीईसी के प्रबंधन का जिम्मा जिस प्राधिकरण को सौंपा गया है, वह भी सीधे तौर पर सेना के कब्जे में है। इसमें व्यावसायिक कुशलता का पूर्णत: अभाव साफ देखा जा सकता है। हाल ही में सैन्य प्रमुख जनरल बाजवा के विरुद्ध भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं। कुल मिलाकर यह सरकारी अधिकारियों, सैन्य कमांडरों और कुछ चुने हुए व्यवसायी संगठनों का एक भ्रष्ट सिंडिकेट बन गया है, जो किसी भी तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त है। भ्रष्टाचार, पारदर्शिता के अभाव के कारण पाकिस्तान की जनता के कर के पैसे यूरोप, अमेरिका और मध्य पूर्व में संपत्ति खरीदने के लिए काले धन का स्रोत बन चुके हैं। सीपीईसी की आड़ में चीन धीरे-धीरे पाकिस्तानी उद्योग और व्यवसायों का अधिग्रहण करता जा रहा है। यही कारण है कि पाकिस्तान के औद्योगिक उत्पादन की विकास दर नकारात्मक बनी हुई है। पाकिस्तान के दूर-दराज इलाकों के बाजार चीनी माल से पटे पड़े हैं। शक नहीं कि एक बार यदि चीन, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के परिचालन की स्थिति में आ गया तो वहां न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक निर्णय चीनी हितों को ध्यान में रखते हुए ही लिए जाएंगे। इसे पाकिस्तान के लिए आर्थिक और राजनीतिक रूप से आत्मघाती कदम माना जा सकता है। तुर्की के साथ मिलकर विश्व में एक कट्टरपंथी धुरी विकसित करने के प्रयासों में पाकिस्तान अलग-थलग पड़ने लगा है। उसके परम्परागत सहयोगी सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात उससे दूर जा रहे हैं और पाकिस्तान अपनी आर्थिक जरूरतों तथा राजनीतिक-सामरिक समर्थन के लिए चीन पर इतना ज्यादा निर्भर हो चुका है कि वह एक चीनी उपनिवेश में परिवर्तित होने की प्रक्रिया में है। पर एक बड़े वर्ग का मानना है कि आज अपने सबसे बड़े सहयोगी चीन के साथ भी पाकिस्तान के संबंध उतने मधुर नहीं रहे, जिसकी डींगें माओ और चाऊ एन लाई के समय मारी जाती थीं। चीन और पाकिस्तान अब बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव पर एक गंभीर असहमति में उलझे हुए हैं। सीपीईसी की मुख्य निर्णय लेने वाली दसवीं संयुक्त सहयोग समिति की बैठक पिछले साल की शुरुआत में होने वाली थी। लेकिन असहमति के कारण इसे लगातार स्थगित किया जाता रहा। इस समिति की पहली बैठक अगस्त 2013 में और आखिरी नवंबर 2019 में आयोजित की गई थी। हालांकि यह बैठक कोविड-19 के चलते स्थगित बताई जा रही है परन्तु इसका वास्तविक कारण मुख्य लाइन 1 (एमएल-1) रेलवे परियोजना और विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) से जुड़ा हुआ है। एमएल-1 सीपीईसी की सबसे बड़ी परियोजना है और इसकी लागत 6.8 अरब डॉलर है। पाकिस्तान इसमें से 6 अरब डॉलर, चीन से 3 फसदी से कम ब्याज दर पर उधार लेना चाहता है। परन्तु चीन एमएल-1 के लिए धन उधार देने से हिचक रहा है क्योंकि स्थानीय राजनीतिक अस्थिरता और लड़खड़ाते आर्थिक हालात के चलते उसका निवेश खतरे में पड़ सकता है। पाकिस्तान की इस बिगड़ती आर्थिक स्थिति में जहां उसके मददगार अत्यंत सीमित हो चुके हैं, वहीं अब चीन द्वारा इनकार किये जाने की स्थिति में पाकिस्तान दिवालियापन के नजदीक पहुंच जाएगा। कर्ज में दबा मुल्क एक ओर पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है, वहीं दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की मानें तो उसका भविष्य कहीं अधिक भयावह है। आईएमएफ का अनुमान है कि 2020-21 के अंत में मुद्रास्फीति की दर 10.2 प्रतिशत पर पहुंच जाएगी जबकि चालू खाते का घाटा उस वर्ष के लिए 2.5 प्रतिशत के स्तर पर बना रहेगा। यह आगे बढ़ते हुए 2024-25 में जीडीपी के 2.7 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। आईएमएफ की तुलना में विश्व बैंक के अनुमान और भी बुरे हैं। यह अगले दो वर्षों में अनिश्चित आर्थिक सुधार के साथ गरीबी में वृद्धि की गहन आशंका को व्यक्त करता है। विश्व बैंक के अनुसार पाकिस्तान में 2020-21 और 2021-22 के लिए औसत वृद्धि 1.3 प्रतिशत से नीचे रहने का अनुमान है। इस वर्ष संक्रमण की लगातार बिगड़ती स्थिति और टिड्डियों के हमले के कारण फसलों की व्यापक क्षति तथा मानसून में भारी बारिश की आशंका जोखिम की ओर इशारा करती है। विश्व बैंक का यह भी अनुमान है कि चालू खाते का घाटा 2020-21 और 2021-22 तक जीडीपी के औसत 1.5 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा। सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर ब्याज भुगतान, बढ़ते वेतन, पेंशन बिल तथा ऊर्जा की कीमतों में वृद्धि और राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों के गारंटीकृत ऋण के भुगतान के कारण व्यय में भारी मात्रा में वृद्धि होने की संभावना जताई गई है। कमजोर विकास दर के कारण गरीबी की हालत के और भी बुरी होने की आशंका है। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान के पास विकल्प अत्यंत सीमित हैं। जैसा कि 1949 से लगातार देखने में आ रहा है, चीन के साथ घनिष्ठता रखने वाले देश कहीं अधिक बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। साम्यवादी चीन ने नव उपनिवेशवाद और गिद्ध पूंजीवाद का यह नवीन संश्लेषण विकसित किया है, जो पुराने साम्राज्यवादी पैंतरों की तुलना में कहीं अधिक खतरनाक है। पर पाकिस्तान के शासकों की लालची और अदूरदर्शी नीतियों ने आज इस देश को अपनी संप्रभुता गंवाने चीनी उपनिवेश बनने की स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है।
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