अगर अर्थव्यवस्था के लिए कोई मानवीय मॉडल आपको चाहिए तो समूची दुनिया को अपना परिवार समझना ही होगा, देश और दुनिया की पीड़ा और अभाव से खुद को संबद्ध कर लेने की सुमति ही हिंदू अर्थव्यवस्था का आधार हो सकता है
आम सर्द फरवरी की तरह ही थी 11 फरवरी 1968 की वह तारीख। सुबह मुगलसराय जंक्शन पर तीन-स्वेटर और उसके नीचे बनियान पहने पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का पार्थिव शरीर एशिया के सबसे बड़े रेलवे मार्शलिंग यार्ड में पाया गया था। तत्कालीन जनसंघ के रूप में सशक्त विपक्षी दल – जिसके तब भी 35 सांसद हुआ करते थे – के अध्यक्ष की मुट्ठी में मात्र पांच रूपये पाए गए थे. यह उन पंडित जी की कहानी है जिन्हें श्रेय जाता है भारतीय विचारधारा के अनुकूल अर्थशास्त्र के रचना का. ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में एक ऐसा मानवीय और आर्थिक दर्शन देने की जो विशुद्ध रूप से भारत-भारतीय-भारतीयता का, सनातन वांगमय में वर्णित विचारों के अनुरूप विशुद्ध सांस्कृतिक दर्शन को सामने रखने वाले भारतीय मानवीय आर्थिक दर्शन का यह प्रतिपादक अपनी बंद मुट्ठी में वह छोटा नोट रख कर मानो समाज को समूचे आर्थिक दर्शन का निचोड़ सामने रख कर चला गया था. यही वह आर्थिक दर्शन है जो कहता है – साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।….!
सवाल है कि यह दर्शन है आखिर है क्या ? क्या व्यावहारिक धरातल पर ख़ास कर कथित उदारीकरण, भौगोलीकरण, निजीकरण के इस दौर में भी यह प्रासंगिक है? जवाब यही होगा कि ऐसे समय में दीनदयाल जी का दर्शन और ज्यादा ज्वलंत और आवश्यक हैं. कुछ वर्ष पहले की बात है. वैश्विक रूप से एक ‘वर्ल्ड हिन्दू इकॉनोमिक फ़ोरम’ का गठन किया गया है. इसका दो दिवसीय सम्मेलन हांगकांग में हुआ. इस बैठक में वक्ताओं ने कहा था कि अगर दुनिया में अगर कोई भी मॉडल आज सफल हो सकता है, मानवता को दिशा दे सकता है, तो वह है ‘हिंदू अर्थशास्त्र’ का मॉडल. इसे अपना कर ही आप वर्तमान विश्व विसंगतियों से पार पा सकते हैं. मोटे तौर पर सभी वक्ताओं का यह मानना था कि अर्थशास्त्र का वर्तमान वैश्विक ढांचा बिल्कुल और पूरी तरह असफल होकर चरमरा सा गया है. अतिशय लाभ कमाने की लालसा पर आधारित वर्तमान मॉडल ही दुनिया भर में फैले असंतोष और रक्त बहाकर किए जाने वाली क्रान्ति का एकमात्र कारण है. इस कारण ही दुनिया भर में हाहाकार मचा हुआ है. वक्ताओं ने जिस ‘हिन्दू मॉडल’ की बात की , यह वही सनातन आर्थिक दर्शन है जिसे हम पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के ‘एकात्म मानव दर्शन’ के रूप में जानते हैं. पंडित जी का यही दर्शन है जिसमें मानव के सर्वांगीण विकास की बात की जाती है.
जैसा कि हम जानते हैं, मोटे तौर पर विश्व भर में अर्थव्यवस्था के दो पश्चिमी मॉडल की चर्चा की जाती है. एक पूंजीवादी और दूसरा साम्यवादी. इन्हीं दोनों मॉडलों के आधार पर अभी विश्व व्यवस्था की नींव है. जिसमें ‘पूंजी’ को ही सभी समस्याओं की जड़ मानने वाले साम्यवादी तो लगभग खत्म होने की कगार पर ही है. सोवियत रूस के विघटन के बाद तो खास कर देश-दुनिया का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां से हम यह कह सकते हैं कि यह व्यवस्था जीवित है. तेज़ी से विकसित हो रहा चीन भी अगर खुद को साम्यवादी कहता है तो ज़ाहिर है केवल अपनी सत्ता कायम रखने के लिए ही. अन्यथा जिस तेज़ी से उसने पूंजीवाद को अपनाया और दुनिया भर की पूंजी को खुद के यहां इकट्ठा कर ही अपने विकास की नींव रखी वह सबके सामने ही है.
प्रेक्षकों का यह भी मानना है कि जिस दिन चीन अपने निष्ठुर खोल से बाहर निकल ज़रा भी नवाचार को प्रोत्साहन देना शुरू करेगा बस शायद उसी दिन रूस की तरह ही उसका भी खंड-खंड हो जाना निश्चित है. इसीलिए रूस के अनुभवों से डरे हुए चीन ने खुद को आज भी बंद कमरे में रखा हुआ है. आज भी हम चीन के बारे में उतना ही जान पाए हैं जितना हमें वो जानने दे रहा है. आप केवल उसके बीजिंग या शंघाई जैसे कुछ चमकीले शहर को देख पाते हैं या फिर कुछ साल पहले ही उसके कब्ज़े में आये उस हांगकांग को, जहां संयोग से यह सम्मलेन हुआ था. और वही देख कर हम उसकी सफलता पर चमत्कृत होते रहते हैं. बीजिंग को ही दिखा कर दुनिया में अपने कथित विकास का सिक्का जमाने की चाह में पिछले ओलम्पिक के दौरान ही चीन ने किस तरह से अपने नागरिकों को, मजदूरों आदि को शहर से निर्ममता पूर्वक बाहर किया यह सब जानते हैं .
तो जहां विकास का साम्यवादी मॉडल लगभग अब मृतप्राय है वहीं दानवाकार पूंजीवाद पर आधारित शोषणकारी व्यवस्था, जन जंगल ज़मीन का बेदर्दी से दोहन कर मुट्ठी भर लोगों के लिए खड़ी की गयी अमीरी, धरती का सीना चाक कर एक ही पीढ़ी में ज़मीन के अंदर का सारा खनिज निकाल लेने की जिद्द, पर्यावरण को बेइंतहा क्षति पहुंचा कर भी, लूट-खसोट कर भी हासिल की हुई सम्पन्नता के बावजूद आज जिस तरह पश्चिमी देशों में भी असंतोष पैदा हो रहा है, जिस तरह अमेरिका के वॉल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने लोग पहुंच गए थे। जिस तरह दुनिया भर में पर्यावरण के नाम पर लोग उबल पड़े हैं, जैसे एक के बाद एक अमेरिकन बैंक दिवालिया होने की कगार पर आ गए थे, जैसे यूरोप में आर्थिक संकट की छाया पड़ी है.जैसे आज दुनिया भर में अपने डॉलर का सिक्का जमाने वाले अमेरिका के खुद की साख स्टेंडर्ड एंड पूअर जैसी एजेंसियों ने घटाई है, उससे तो यही लग रहा है कि अपनी समूची धरती को नर्क बना कर भी कथित पहली दुनिया के ये लोग अपने मुट्ठी भर अमीरों तक के लिए भी एक सुरक्षित भविष्य का निर्माण नहीं कर पाए हैं. ऐसे हालात में विकास के किसी वैकल्पिक मॉडल की तलाश, सस्टेनेबल डेवलपमेंट के किसी व्यवस्था की खोज होना लाजिमी ही है.
लेकिन सवाल है कि विकल्प क्या हो? जिस हिंदू अर्थशास्त्र की बात ऊपर कही गई है वह है क्या? ज़ाहिर है कोई एक ‘सम्प्रदाय’ नहीं होने के कारण समूचे हिंदू जगत का न तो कोई एक ग्रन्थ है और न ही कोई एक प्रणाली. तो आखिर हम किसे हिंदू मॉडल माने? ऐसे में शायद शास्त्रों में वर्णित अलग-अलग विचारों का एक समुच्चय बना कर किसी नये मार्ग की तलाश हमें करनी होगी. यही सार्थक कोशिश पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने की थी. उन्होंने विशुद्ध भारतीय धारणा पर आधारित एक नया मॉडल एकात्म मानववाद के रूप में दिया. हालांकि असमय उनकी भी मृत्यु हो जाने के कारण वह विचार भी उस रूप में सामने नहीं आ पाया जैसा शायद पंडित जी ने सोचा रहा होगा. फिर भी इतना कहना उपयुक्त होगा कि वह भारतीय मानव की सम्पूर्ण प्रकृति का अध्ययन कर उसके अनुरूप व्यवस्था किये जाने का आग्रह करता है.
उदाहरणतः जैसे भारत में अर्थशास्त्र के प्रणेता माने जाने वाले चाणक्य की बात करें. उन्हें हम केवल एक अर्थशास्त्री के रूप में नहीं जानते हैं. बल्कि एक प्रशासक, रणनीतिकार, योद्धा, गुरू आदि की अलग-अलग भूमिका में पाते हैं. यानी उन्होंने शासन की विविध अनुषंगों का विस्तृत अध्ययन और प्रयोग करते हुए उसके बाद ‘अर्थ’ के बारे में भी चिंतन किया. तो मानव की सम्पूर्ण प्रकृति, उसका स्वभाव, आचरण, उनकी ज़रूरतें आदि को सम्पूर्णता में जान कर ही सबके भलाई की इच्छा रखते हुए ही हम किसी कल्याणकारी मॉडल की चर्चा कर सकते हैं. ज़ाहिर है यह बिना आध्यात्मिकता के तो संभव नहीं होगा.
मोटे तौर पर वर्तमान अर्थव्यवस्था का आधार पश्चिम की एक थ्योरी (थ्योरी ऑफ परकोलेशन) पर आधारित है. इसे ‘रिसने का सिद्धांत’ कहते हैं. जिसके अनुसार आप अगर पूंजी को एक जगह केंद्रीकृत कर देंगे तो वह रिसकर नीचे तक भी जाएगा. इसे हम समझने के लिहाज़ से पानी का मॉडल कह सकते हैं जो रिसकर नीचे तक जाता है. लेकिन भारतीय सोच चाहे वह अध्यात्म की हो या अर्थव्यवस्था की इसके विपरीत ‘आग’ के मॉडल की चर्चा करता है. ऐसी उर्जा या संसाधन जो नीचे से ऊपर की ओर जाए. जैसे योग में उर्जा का प्रवाह उर्ध्वमुख करने पर, नीचे मूलाधार से सहस्त्रार की ओर जा कर कुण्डलिनी जागृत करने की बात कही जाती है. कबीर ने भी जिसे ‘ओलती के पाने बरेडी तक जाय’ कहा है वैसे ही सम्यक विकास रूपी कुण्डलिनी के लिए ज़रूरी यह है कि आप संसाधन को ऊपर इकट्ठा कर नीचे रिसने रहने का इंतज़ार करने के बजाय नीचे से उत्पन्न कर उसे ऊपर तक ले जाने का श्रमसाध्य लेकिन सस्टेनेबल कार्य संपन्न करें. इसे अर्थव्यवस्था का आध्यात्मिक मॉडल कहा जा सकता है.
सरल शब्दों में कहें तो हर तरह के विकास का लाभार्थी अगर समाज के सबसे नीचे के तबके को सबसे पहले बनाने का सोचा जाएगा, उन्ही को ध्यान में रख कर, उन्ही को संपन्न बनाने की मंशा से अगर कार्य किया जाएगा तो वही विकास सही अर्थों में टिकाऊ और उपयोगी होगा. संपत्ति के कुछ चुनिन्दा टापू बना कर, अपने गरीब नागरिकों को गरीबी में ही रख कर किसी स्थायी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती. सही अर्थों में आज मानव समाज की सबसे बड़ी चुनौती ‘असमानता’ है. लेकिन उससे निपटने के लिए किसी साम्यवादी तौर तरीके की ज़रूरत नहीं है. लेकिन उपरोक्त प्रणाली से समूचे समाज को ही कुंठित बना देने वाले असमानता के इस विकराल दानव से आपको पार पाना ही होगा. आपको दीनदयाल के इसी आध्यात्मिक दर्शन पर ध्यान देना होगा जो गांवों के विकास से शुरू कर क्रमशः ऊपर तक विकास की राह कैसे बने इसकी चिंता किया करते थे. अगर अर्थव्यवस्था के लिए कोई मानवीय मॉडल आपको चाहिए तो समूची दुनिया को अपना परिवार समझना ही होगा, देश और दुनिया की पीड़ा और अभाव से खुद को संबद्ध कर लेने की सुमति ही हिंदू अर्थव्यवस्था का आधार हो सकता है. तुलसी के ये शब्द हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं. ‘जहां सुमति तंह संपत्ति नाना, जहां कुमति तंह विपत्ति निदाना.’ दीनदयाल के दर्शन का आधार भी यही हो सकता है. निश्चित ही अंततः हम अपना विकास अपने ही तौर-तरीकों, अपने ही परम्पराओं-दर्शनों और अपने ही दीनदयाल के मार्ग पर चलते हुए कर सकते हैं.
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