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सिर्फ अपनी राजनीति चमकाना चाहते हैं टिकैत और जयंत चौधरी

by WEB DESK
Feb 2, 2021, 10:07 am IST
in भारत
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राकेश टिकैत दो बार चुनाव मैदान में किस्मत आ चुके हैं. दोनों बार जमानत जब्त हो गई थी. अब टिकैत और रालोद के नेता जयंत चौधरी खुलकर एक मंच पर आ गए हैं. मगर टिकैत के साथ विडम्बना यह है कि रालोद का जनाधार पूरी तरह लड़खड़ा चुका है. जयंत चौधरी और उनके पिता अजित सिंह गत लोकसभा चुनाव में अपनी सीट तक नहीं बचा पाए थे

किसानों की आड़ में आन्दोलन चलाने वाले किसान नेता राकेश टिकैत ने पहले तो अपने आन्दोलन को गैर राजनीतिक बताया मगर गणतंत्र दिवस की शर्मनाक घटना के बाद अधिकतर लोग इनका साथ छोड़ गए और तब राकेश टिकैत ने अपनी राजनीतिक मंशा खुलकर जाहिर कर दी. उसके बाद राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी और राकेश टिकैत दोनों लोग खुलकर जनता के सामने आ गए. कुछ दिन पहले तक राकेश टिकैत कह रहे थे “रालोद के टिकट पर मैंने चुनाव लड़ा था. मगर चुनाव के बाद से रालोद से कोई वास्ता – सरोकार नहीं है.” लेकिन अब किसानों के नाम पर शुरू किये गए आन्दोलन की असलियत सामने आ गई है. गैर राजनीतिक आन्दोलन चलाकर पहले सिख लोगों को हिन्दुओं से लड़वाने का षड्यंत्र रचा गया. जब उसमे असफल हो गए तो अब जाट बिरादरी को हिन्दुओं की अन्य जातियों के लोगों से लड़वाने की साजिश में जुट गए हैं ताकि हिन्दुओं को जाति के आधार पर बांटा जा सके.
हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुए उप चुनाव में जाट बाहुल्य इलाके में भी भाजपा ने जीत हासिल की है. दिलचस्प है कि जाट बिरदारी का नेता होने का दावा करने वाले जयंत चौधरी की राजनीतिक हालत बेहद खस्ता है. गत लोकसभा चुनाव में जयंत चौधरी अपनी सीट तक नहीं बचा पाए थे. अगर जयंत चौधरी की राजनीतिक पृष्ठभूमि को देखें तो चौधरी चरण सिंह के बाद उनके बेटे चौधरी अजित सिंह राजनीति में आये. चौधरी चरण सिंह की छवि को ध्यान में रखकर शुरुआत में लोगों ने चौधरी अजित सिंह को गंभीरता से लिया मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया. चौधरी अजित सिंह का अवसरवादी चेहरा लोगों के सामने आने लगा. अपने राजनीतिक करियर में चौधरी अजित सिंह दल – बदल करते रहे और जनता की नजर में उनकी अहमियत घटती चली गई. राष्ट्रीय लोक दल की अलोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गत लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह ने सपा- बसपा के साथ समझौता करके मात्र तीन लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ा था. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जब सपा – बसपा का समझौता हो रहा था. उस समय हालत यह थी कि मायावती, चौधरी अजित सिंह की पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) को ज्यादा महत्व देने को तैयार नहीं थीं मगर अखिलेश यादव को यह लग रहा था कि चौधरी अजित सिंह को शामिल कर लेने से ‘जाट’ वोट उनके साथ आ जाएगा और सपा की डूबती नाव को कुछ सहारा मिल जाएगा. अखिलेश यादव के काफी अनुनय – विनय करने पर मायावती, रालोद को गठबंधन में शामिल करने पर सहमत हुई थीं. सहमति बन जाने के बाद अखिलेश यादव ने अपने हिस्से में से रालोद को तीन सीट दिया था. काफी प्रयास के बाद प्राप्त हुई तीन सीट में से दो पिता – पुत्र ने आपस में बाँट लिया था. मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चौधरी अजित सिंह और बागपत से उनके बेटे जयंत चौधरी चुनाव मैदान में उतरे थे. बागपत सीट की विरासत अपने बेटे को सौंपकर मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने पहुंचे चौधरी अजित सिंह भाजपा के डॉ. संजीव बालियान से हार गए. वहीं उनके पुत्र जयंत चौधरी भी बागपत सीट की विरासत बचाने में असफल रहे. उन्हें भाजपा के डॉ. सत्यपाल सिंह ने हराया.
उधर, राकेश टिकैत ने भी दो बार चुनाव मैदान में किस्मत आजमाई मगर दोनों बार इनकी जमानत जब्त हो गई. किसान आन्दोलन के दौरान राकेश टिकैत से कई बार यह पूछा गया कि वे रालोद के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़े थे. क्या उनके इस आन्दोलन के कुछ राजनीतिक मायने भी हैं ? तब उन्होंने कहा कि अब उनसे राजनीति से कोई मतलब नहीं है. चुनाव लड़ने की बात पुरानी है. चुनाव हारने के बाद उनका रालोद से कभी सम्पर्क नहीं हुआ. गणतंत्र दिवस की शर्मनाक घटना के बाद जैसे ही राकेश टिकैत को लगा कि अब वे सिख समाज के लोगों को बहुत दिन तक भ्रमित नहीं कर पायेंगे. तब उन्होंने अपने पुराने राजनीतिक साथी जयंत चौधरी को आवाज दी. एक आवाज पर जयंत चौधरी अपने दल – बल के साथ धरना स्थल पर पहुंच गए.
राजनीतिक भविष्य तलाश रहे राकेश टिकैत के लिए विडम्बना यह है कि रालोद का जनाधार पूरी तरह डगमगा चुका है. जयंत चौधरी और उनके पिता अजित सिंह विरासत में मिली राजनीति को बचाने में पूरी तरह फेल हो चुके हैं.बता दें कि ‘जाट परिवार’ में जन्मे चौधरी चरण सिंह ने स्वाधीनता के समय राजनीति में कदम रखा था. वर्ष 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन से प्रभावित होकर उन्होंने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया. वर्ष 1930 में महात्मा गांधी द्वारा चलाये गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में शामिल हुए और नमक कानून तोड़ने के लिए लोगों को प्रेरित किया. चौधरी चरण सिंह ने गाज़ियाबाद की सीमा से लगी हुई हिंडन नदी पर नमक बना कर अंग्रेजों को चुनौती दिया. अंग्रेजों ने चौधरी चरण सिंह को गिरफ्तार कर लिया और नमक क़ानून तोड़ने के जुर्म में उन्हें 6 महीने की सजा हुई. सजा पूरी कर के चौधरी चरण सिंह जब जेल से बाहर आये तब वह महात्मा गांधी के स्वंतत्रता संग्राम में पूर्ण रूप से शामिल हो गए. सत्याग्रह आन्दोलन में चौधरी चरण सिंह वर्ष 1940 में फिर गिरफ्तार हुए और करीब साल भर जेल में रहने के बाद जेल से रिहा हुए. चौधरी चरण सिंह दो बार -वर्ष 1967 और वर्ष 1970 – मे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उसके बाद वो केन्द्र सरकार में मंत्री बने

https://www.panchjanya.com/Encyc/2021/2/2/Tikait-and-Jayant-Chaudhary-only-want-to-shine-their-politics.html

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