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होम मत अभिमत

अड़ना नहीं, बढ़ना होगा!

by WEB DESK
Jan 27, 2021, 07:11 am IST
in मत अभिमत
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तीन नये कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को समझने के लिए इसके तीन आयामों को समझना होगा। कानूनों से प्रभावित होने वाला वर्ग व्यापक है इसलिए इन कानूनों के विषय में राजनीति को किनारे रखते हुए विस्तृत और तथ्यात्मक विश्लेषण करना जरूरी है।

फैलाव खेती से खुदरा तक
इस विवेचन के क्रम में पहला प्रश्न तो यही आता है कि इन तीन कृषि कानूनों से प्रभावित होने वाले पक्ष कौन-कौन से हैं? यानी इस आंदोलन का वास्तविक फैलाव कहां तक संभव है, यह समझना होगा।

क्या वास्तव में इन कानूनों का फलक इतना सीमित है कि सिर्फ सीमित भूगोल, पहचान, रुझान वाले चेहरे ही वार्ता में शामिल होंगे। वास्तव में ये कानून सिर्फ किसान ही नहीं, उसके साथ उपभोक्ताओं, कृषि उत्पाद का व्यापार करने वालों, कॉरपोरेट, खाद्य प्रसंस्करण में लगी हुई इकाइयों, सामान्य खुदरा विक्रेताओं, थोक विक्रेताओं, सब पर असर डालता है। यानी एक पूरी श्रृंखला है जो हम सबको बांधती है। इस श्रृंखला का एक अत्यंत छोटा हिस्सा और उसपर भी अलगाववादी या मोदी विरोध की कुंठा को ही पहचान बना चुके चेहरे ही हमें आंदोलनरत दिख रहे हैं। यह संकेत है कि कुछ तत्व बड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दे को संकीर्ण, आक्रोशी बनाने में जुटे हैं।

साथ ही, यह केवल अनाज की बात नहीं है। तीनों कानून देश में उत्पादित लगभग-लगभग 32 करोड़ टन फल सब्जी, 30 करोड़ टन खाद्यान्न, लगभग 19 करोड़ टन दूध सहित लगभग एक अरब टन से ऊपर के कृषि उत्पादों के बाजार वाली कृषि क्षेत्र से जुड़ी अर्थव्यवस्था ही नहीं, समस्त 12 हजार अरब रुपये की खुदरा बाजार की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले हैं। इसलिए इन कानूनों के विरोध में होने वाले आंदोलन को किसान आंदोलन कहना, मुद्दे को सीमित कर देना है।

क्या बेमतलब हैं किसानों की आशंकाएं!
प्रश्न यह है कि क्या किसानों के उठाए सब सवाल बेमतलब हैं? यहां हमें समझना होगा कि जब भी कोई कानून बनाता है तो ऐसा कभी नहीं होता है कि एक ऐसा मसविदा सामने आता हो जिसमें संशोधन की कोई संभावना ही न छूटी हो। इसलिए किसी कानून पर उससे प्रभावित होने वाले लोगों की आशंकाएं बेमतलब ही हों, यह आवश्यक नहीं।

किसानों की सबसे बड़ी आशंका न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर है। उनकी मांग है कि निजी क्षेत्र में उपज एमएसपी से नीचे बिके। पहले ही मौसम की मार और पूंजी के अभाव से ग्रस्त किसानों की यह मांग एक संवेदनशील विषय है और इसे सुनिश्चित कराने का तंत्र बनाने पर सरकार को संवेदनशीलता से सोचना चाहिए।

दूसरी आशंका यह है कि पैनकार्ड धारक ही फसल खरीद सकता है। किसान डरे हुए थे कि पैनकार्ड तो कोई भी बनवा सकता है, खरीदार का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है, जिम्मेदारी क्या है, यह कैसे तय होगा। तो इस संबंध में खरीदारों के लिए पंजीकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। यह एक तर्कसंगत बात है, राज्यों को खरीदारों का पंजीकरण करना चाहिए। जो लोग कृषि उत्पाद की खरीद के व्यवसाय में है, उनके लिए केवल पैनकार्ड ही जरूरी न हो बल्कि उनका पंजीकरण भी होना चाहिए। इससे विश्वसनीयता आयेगी और किसान सुरक्षित महसूस करेगा। अच्छा है कि इस दिशा में केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को पहल के लिए इंगित किया है।

कानून में तीसरा महत्वपूर्ण विवादित बिंदु है यह है कि क्रेता और विक्रेता में किसी सौदे पर लड़ाई होने की स्थिति में एसडीएम कोर्ट से निपटारे की बात कही गयी है। लेकिन एसडीएम अदालतों पर पहले ही भारी बोझ है और जब इतने कृषि सौदों के मामले जायेंगे तो उनकी प्राथमिकता क्या रहेगी, उनके हाथ में पहले से ही नागरिक प्रशासन के कई अन्य मामले हैं। ऐसे में एसडीएम कोर्ट की जगह क्या कृषि न्यायालय जैसी कोई व्यवस्था हो सकती है! यह सरकार को देखना चाहिए।

चौथा महत्वपूर्ण बिंदु कांट्रैक्ट फार्मिंग है। कांट्रैक्ट फार्मिंग में एमएसपी से नीचे के किसी सौदे को मान्यता नहीं मिलनी चाहिए। इससे किसानों को सुरक्षा मिलेगी। इसके अलावा एमएसपी वाली फसलों के अलावा फल-सब्जी और अन्य तमाम कृषि फसलों का भी लागत के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ के फॉमूर्ले के आधार पर आकलन करने की तर्कसंगत व्यवस्था बननी चाहिए जिससे खेती लाभ का धंधा बन सके। इससे होगा यह कि पहले बेचने वालों में प्रतिस्पर्धा होती थी, इस कानून से खरीदने वालों में प्रतिस्पर्धा होगी।

इसके अलावा खरीदने वाले को एक ऐसा पोर्टल बनना चाहिए जिसमें कहां कितनी उपज हुई, कहां कितना भंडारण है, यह पारदर्शी तरीके से प्रदर्शित हो जिससे हितधारकों के सामने परिदृश्य साफ रहे और मुनाफाखोरी और कालाबाजारी न हो। यह धीरे-धीरे आकार लेने वाली प्रक्रिया है। खरीदारों की प्रतिस्पर्धा से बाजार उसके हिसाब से संतुलित होगा और यह देश की आवश्यकताओं के हिसाब से बहुत अच्छा है।

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क्या राजनीतिक है यह आंदोलन!
एक प्रश्न यह है कि क्या यह आंदोलन राजनीति प्रेरित है? इस आंदोलन में देखने में यह आ रहा है कि यहां जो किसान नहीं हैं, वे फसल काट रहे हैं। यानी वे राजनीतिक लोग, जिनका किसानी से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन सरकार के विरोध के लिए वे इस आंदोलन का उपयोग कर रहे हैं।

पहला उदाहरण दिल्ली का ही है। दिल्ली में खेती का रकबा बहुत कम है जो बाहरी दिल्ली में अधिकांशत: सिमटा हुआ है। किसान आंदोलन शुरू होने के पांच दिन बाद 1 दिसंबर को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तीन नये कृषि कानूनों में से एक कानून कि – किसान राज्य से बाहर अपनी फसल बेच सकेंगे, को अधिसूचित करा दिया। लेकिन आंदोलन के 12वें दिन केजरीवाल आंदोलनरत किसानों को समर्थन देने सिंघु बॉर्डर पहुंच गये। जब इस पर हो-हल्ला मचा तो केजरीवाल घर बैठ गये और उपमुख्यमंत्री ने कहा कि उन्हें केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने नजरबंद कर दिया है। आईआईटी के बजाय एनएसडी से निकले ‘कलाकार’ की तरह का यह बर्ताव बताता है कि दिल्ली अराजकता के पैरोकारों के हाथ में है।

किसान आंदोलन की राजनीति करने वाले एक और नारा अंबानी-अडानी का नाम लेकर उछालते हैं। इस संदर्भ में पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का जुलाई, 2016 के आखिरी हफ्ते में किया गया एक ट्वीट समीचीन है। उस ट्वीट में कैप्टन अमरिंदर ने कहा था कि हम रिलायंस समूह को पंजाब ले आये जो 3000 करोड़ रुपये का खुदरा बाजार प्रोजेक्ट शुरू करेगा। इससे डेढ़ लाख किसानों की आय तीन गुना हो गयी होती लेकिन अकाली दल नहीं माना। मतलब यह कि कांग्रेस करे तो सही, लेकिन अगर भाजपा वही करे तो वह गलत है। यह ट्वीट किसान आंदोलन के राजनीतिक होने की चुगली करती है।

बात करें वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के घोषणापत्र की तो इसमें नौवें और ग्यारहवें नंबर का मुद्दा किसानों से जुड़ा था। इसमें 9वें क्रमांक का मुद्दा है- कांग्रेस किसानों को इनपुट, प्रौद्योगिकी और बाजार उपलब्ध कराने के लिए किसान उत्पादक कंपनियों / संगठनों को बढ़ावा देगी।

इसी में 11वें क्रमांक का मुद्दा है- कांग्रेस कृषि उत्पाद बाजार समिति अधिनियम को रद करेगी और कृषि उपज को सभी रुकावटों से मुक्त करते हुए निर्यात और अंतर-राज्यीय सौदों समेत व्यापार की अनुमति देगी।

यानी, जो काम करने के लिए कांग्रेस अप्रैल-मई 2019 में पूरे भारत से समर्थन मांग रही थी, वही भाजपा सरकार द्वारा कर दिये जाने पर अब कांग्रेस इसके विरुद्ध भारत बंद की बात करती है।

तीसरे उदाहरण शरद पवार हैं- पवार सबसे ज्यादा अवधि वर्ष 2004 से 2014 तक 10 वर्ष कृषि मंत्री रहे हैं। अटल सरकार से यूपीए को सत्ता मिलने के वक्त कृषि विकास दर 4 प्रतिशत थी। और जब किसानों के अग्रणी नेता शरद पवार को कृषि मंत्री के रूप में प्रदर्शन करने का अवसर मिला तो कृषि विकास दर -0.2 प्रतिशत तक चली गयी थी। मोदी सरकार के आने के बाद छह वर्षों में कृषि विकास दर उबरकर 3.4 प्रतिशत हो गयी है। पवार के कृषि मंत्री रहते 1,71135 किसानों ने आत्महत्या की थी। कृषि क्षेत्र की हालत बेहद बुरी तरह बिगड़ते देख हैरान-परेशान शरद पवार ने तब राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था कि किसानों के हित के लिए आगे की बात सोचनी पड़ेगी और निजी बाजारों की स्थापना और कांट्रैक्ट फॉर्मिंग को प्रोत्साहन देना होगा। इस बयान की रोशनी में शरद पवार की पलटी को देखा ही जाना चाहिए।

एक और बात, किसानों के रूप में एक परिवेश के लोग जमावड़ा किये हुए हैं जो इन कानूनों से सबसे कम प्रभावित हुए हैं। पंजाब ने पूरे राज्य में एपीएमसी ऐक्ट लागू कर दिया था जिससे पूरा पंजाब ही मंडी हो गया और वहाँ बाहर का सौदा मान्य ही नहीं है। यानी वहां तो इन कानूनों का असर शून्य होना चाहिए किंतु आश्चर्य कि इस कथित किसान आंदोलन में वहीं के लोग सबसे ज्यादा हैं!

रंग बदलती राजनीति
देशभर में 500 से अधिक किसान संगठन हैं लेकिन गिने-चुने संगठन ही इस आंदोलन में शामिल हैं। इसके अलावा केरल, बिहार या कहिए अन्य राज्यों का प्रतिनिधित्व भी इस आंदोलन में नहीं है। कहना गलत न होगा कि इसके बजाय किसान के वेश में बहुरूपिये इस आंदोलन में घुस आये हैं। योगेंद्र यादव, केजरीवाल, हन्नान मुल्ला जैसों का इस आंदोलन में क्या काम? किसान के वेश में आंदोलन में घुसे इन ‘खर-पतवारों’ को किसानों को ही बाहर करना होगा। कोशिश यह हो कि किसानों के किसी विषय पर चर्चा के लिए देशभर के किसानों का प्रतिनिधित्व हो। पूरे देश में संवाद हो, संवेदनशीलता के साथ हो, विभिन्न आशंकाओं का निर्मूलन हो।

इस पर काम किया जाना इसलिए भी बहुत जरूरी है कि स्वतंत्रता के पश्चात सिंचाई के संसाधन बढ़े, बुवाई क्षेत्र का विस्तार हुआ, भूमि सुधार हुआ, हरित क्रांति हुई, नब्बे के दशक में वैश्विक स्तर पर बदलाव हुआ। अब समय आ गया है कि सुधारों का तीसरा चरण शुरू हो। निश्चित ही इसके लिए सम्वाद की संवेदनशीलता को सभी पक्षों को समझना होगा और इस सम्वेदनशीलता की कसौटी एक ही है- देश के लिए प्रतिबद्धता।
इसे आप ‘सबका साथ, सबका विकास’ भी कहें तो गलत न होगा! @hiteshshankar

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