वनवासी कल्याण आश्रम में 1,200 पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। इनमें से 300 महिलाएं हैं। इन कार्यकर्ताओं में 70 प्रतिशत जनजाति समाज और ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। देश के 323 जिलों में कल्याण आश्रम का कार्य है।
जनजाति क्षेत्रों में कार्य करने वाली संस्था ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य आज केरल से लद्दाख तक और कच्छ से कोहिमा तक फैला है। अभी वनवासी कल्याण आश्रम में 1,200 पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। इनमें से 300 महिलाएं हैं। सबसे बड़ी बात है कि इन कार्यकर्ताओं में 70 प्रतिशत जनजातीय समाज से ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं। देश के 323 जिलों में कल्याण आश्रम का कार्य है। पूरे देश में लगभग 20,000 प्रकल्प हैं। लगभग 14,000 गांवों में समितियां हैं। कल्याण आश्रम की पहुंच लगभग 52,000 गांवों तक है। नगरों में भी वनवासी कल्याण आश्रम की समितियां हैं, जिनका कार्य है प्रकल्पों के लिए धन संग्रह करना।
वनवासी कल्याण आश्रम की शुरुआत के पीछे एक घटना है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सेंट्रल प्रोविंस एवं बरार (आज के छत्तीसगढ़, म.प्र. आदि) प्रांत के मुख्यमंत्री बने पंडित रविशंकर शुक्ल। एक बार वे जशपुर गए तो वहां के लोगों ने काले झंडे दिखाकर उनका विरोध किया। इससे वे हतप्रभ हुए। पता चला कि इस क्षेत्र में कई वर्षों से ईसाई मिशनरियां काम कर रही हैं और उन्होंने स्थानीय लोगों को भारत के विरुद्ध भड़काया था। वे चितिंत हुए और इसका रास्ता निकालने की ओर बढ़े।
इस क्रम में उन्होंने महात्मा गांधी के सहयोगी ठक्कर बापा से इस समस्या की चर्चा की। ठक्कर बापा ने कहा कि इस समस्या के हल के लिए एक सामाजिक संवेदनशील व्यक्ति की आवश्यकता है। ऐसे व्यक्ति की खोज हुई तो रामाकांत केशव देशपांडे उपाख्य बाला साहब का नाम आया। वे संघ के स्वयंसेवक थे और 1942 के आंदोलन के कारण जेल में भी रहे थे। कांग्रेस के लोग भी उन्हें जानते थे। फिर उनके लिए श्रीगुरुजी से विचार-विमर्श किया गया। इसके बाद बाला साहब नागपुर में अच्छी-खासी वकालत छोड़कर अपनी पत्नी के साथ जशपुर चले गए। उस समय उनकी उम्र केवल 35 साल थी।
मुख्यमंत्री के आदेश से जशपुर में उन्हें ‘विकास अधिकारी’ का का पद दिया गया और वे काम करने लगे। उन्होंने कभी पैदल, कभी साइकिल, तो कभी बैलगाड़ी से गांवों का भ्रमण शुरू कर दिया। वे लोगों से मिलकर उनकी समस्या जानने लगे। सबसे बड़ी समस्या थी राष्ट्रीय विचारों की, शिक्षा की। उन्होंने थोड़े-बहुत पढ़े ग्रामीणों को ही शिक्षक बनाया और उन्हें बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी। बाला साहब ने एक वर्ष के अंदर ही जशपुर के आस-पास 108 विद्यालय शुरू करवा दिए।
इससे ग्रामीणों में उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी और वे उनकी बात मानने लगे। यह मिशनरी के लोगों को रास नहीं आया। उन्हें लगने लगा कि इस प्रकार चलेगा तो उनका क्या होगा। फिर 1952 में चुनाव आ गया। मिशनरी से जुड़े लोगों ने नेताओं के सामने शर्त रखी कि वे उन्हीं को वोट देंगे, जो बाला साहब का यहां से स्थानांतरण करवाएंगे। जब यह बात बाला साहब को पता चली तो उन्होंने सरकारी पद से त्यागपत्र दे दिया और ग्रामीणों के लिए काम करते रहने का संकल्प दोहराया।
उस समय जशपुर के राजा थे विजयभूषण सिंह देव। उन्होंने बाला साहब को बुलाया और पूछा, अब क्या करने का विचार है? उन्होंने कहा कि वे वनवासी समाज के कल्याण के लिए ही यहां आए हैं इसलिए एक संस्था बनाकर उनके लिए ही कार्य करना है। इसके साथ ही उन्होंने वनवासी छात्रों के लिए एक छात्रावास शुरू करने की बात कही। इस कार्य के लिए राजा भी तैयार हो गए। उन्होंने अपना एक पुराना महल छात्रावास के लिए प्रदान किया। उसी महल में वनवासी बच्चों के लिए 26 दिसंबर, 1952 को छात्रावास की शुरुआत की गई। इसी दिन को वनवासी कल्याण आश्रम के स्थापना दिवस के रूप में भी जाना जाता है।
इसके बाद आश्रम का काम आगे बढ़ने लगा। काम तेजी से बढ़े इसके लिए संघ ने श्री मोरू भैया केतकर, श्री भीम सिंह चोपड़ा, श्री कृष्णराव सप्रे जैसे प्रचारकों को भी वनवासी कल्याण आश्रम में भेजा। रामकृष्ण मिशन के स्वामी अमरानंद जी भी इस कार्य में लगे। शैक्षणिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए आश्रम के कार्य को आगे बढ़ाया गया। आपातकाल (1975) तक जशपुर और उसके आसपास आश्रम का कार्य चलता रहा। आपातकाल में कल्याण आश्रम के सभी कार्यकर्ता जेल में डाल दिए गए। स्वाभाविक रूप से छात्रावास भी बंद हो गया। सारी गतिविधियां ठप हो गर्इं। आपातकाल के बाद देशपांडे जी ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस से लंबी बात की। इसके बाद फिर से समाज के सहयोग से ही यह कार्य देश के विभिन्न प्रांतों में प्रारंभ करने का निश्चय किया गया।
‘‘जाग चुका है वनवासी समाज’’
कल्याण आश्रम के अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री अतुल जोग से हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
वनवासी कल्याण आश्रम के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
वनवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं की रक्षा करने के साथ-साथ उनका सर्वांगीण विकास करना। उन्हें स्वावलंबी बनाना, संगठित करके देश के लिए खड़ा करना। देश और समाज में वनवासी समाज की गौरवशाली बातों का प्रसार करना। कल्याण आश्रम वनवासी एवं नगरवासी के बीच एक सेतु का कार्य कर रहा है। इसलिए संस्था का ध्येय वाक्य है-‘तू-मैं, एक रक्त’।
आश्रम के कार्य का समाज पर कितना असर हुआ है?
समाज खड़ा हो रहा है या नहीं, यह देखना पड़ेगा। वनवासी समाज के युवा अपने अधिकारों के लिए खड़े हो रहे हैं। वे अपना विकास भी कर रहे हैं। राष्ट्रीय विचारों के साथ स्वर मजबूत कर रहे हैं। यही तो पूरा देश चाहता है।
वनवासी इलाकों में कन्वर्जन बहुत होता है। क्या आश्रम के कार्यों से कन्वर्जन रुका है?
बिल्कुल रुका है, लेकिन इसका श्रेय वनवासी समाज को ही देना होगा। कन्वर्जन करने वालों के विरुद्ध वनवासी समाज उठ खड़ा हुआ है। उन्हें जगाने में वनवासी कल्याण आश्रम की भूमिका रही है। आश्रम द्वारा चलाए जा रहे छात्रावासों की बड़ी प्रशंसा होती है।
इन छात्रावासों की सबसे खास बात क्या है?
इन छात्रावासों में ऐसे बच्चे रहते हैं, जिनके पास पढ़ाई के साधनों की कमी होती है। जब ये बच्चे वहां से पढ़कर अपने समाज में जाते हैं, तो वे हर तरह से एक उदाहरण बन जाते हैं। इस कारण कल्याण आश्रम के छात्रावासों की प्रशंसा होती है। अब तक 45,000 छात्र- छात्राओं ने छात्रावासों में पढ़ाई की है। ये लोग देश और समाज की सेवा में लगे हैं। आज लगभग 250 पूर्व छात्र पूर्णकालिक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत हैं। सेवा लेने वाले सेवा देने वाले बन रहे हैं।
आज शिक्षा के क्षेत्र में वनवासी कल्याण आश्रम का बहुत अच्छा कार्य है। 204 वनवासी विद्यालय हैं और 4,500 के करीब एकल विद्यालय चल रहे हैं। इस समय आश्रम के विभिन्न विद्यालयों में लगभग 1.5 लाख बच्चे पढ़ते हैं। झारखंड में 25 उच्च विद्यालय हैं। गत वर्ष 10वीं की बोर्ड परीक्षा में झारखंड के विद्यालयों के 1,092 विद्यार्थी बैठे थे, उनमें से 740 छात्र प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इस तरह के विद्यालय नागालैंड, महाराष्ट्र, राजस्थान आदि राज्यों में भी चलते हैं। भिलाई, बिलासपुर और रांची में प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी हेतु प्रकल्प चलता है, जिसमें वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े बच्चों को सरकारी नौकरी की तैयारी करवाई जाती है।
इस समय कल्याण आश्रम द्वारा पूरे देश में 239 छात्रावास चलाए जा रहे हैं। इनमें से 48 बालिकाओं के लिए हैं। इन छात्रावासों में लगभग 10,000 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। ये बच्चे बहुत ही प्रतिभाशाली हैं। त्रिपुरा के रियांग शरणार्थी शिविर की बालिका दानीरूंग रियांग छात्रावास में रहकर पढ़ाई करती थी। वहां उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। दानीरूंग ने योग विज्ञान में डॉक्टरेट करने के बाद जर्मनी से शोध कार्य पूरा किया है। वर्तमान में वे गुवाहाटी के पास सेवा भारती द्वारा संचालित योग चिकित्सा प्रकल्प में कार्यरत हैं। राजस्थान के उदयपुर स्थित महाविद्यालयीन छात्रावास के 8 छात्र एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे हैं। राकेश भील नामक एक छात्र ने श्री गोविंदगुरु जनजातीय विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर स्वर्ण पदक के साथ किया है।
कल्याण आश्रम का एक दूसरा प्रकल्प है स्वास्थ्य। इसके तहत अभी छह अस्पताल और लगभग 250 स्वास्थ्य केंद्र चल रहे हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग 4,500 स्वास्थ्य कार्यकर्ता काम कर रहे हैं। इनके सहयोग से प्रतिवर्ष 1,500 स्वास्थ्य शिविर आयोजित होते हैं जिनसे लगभग 12,00000 रोगी लाभान्वित होते हैं।
कल्याण आश्रम ग्राम विकास कार्यक्रम भी चलाता है। इसके अंतर्गत जल, जमीन, जंगल, जानवर एवं जन के विकास पर जोर दिया जाता है। बंगाल में 500 तालाब का निर्माण कर युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है।
कल्याण आश्रम जनजाति समाज में मौजूद खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए अनेक तरह के कार्यक्रमों का आयोजन करता है। हर वर्ष जिला, प्रांत और राष्ट्रीय स्तर पर तीरंदाजी प्रतियोगिता होती है। नरेश डामोर, विजय कुमार, सुमनलता मुर्मु, बीरलाल जैसे खिलाड़ी कल्याण आश्रम के कारण ही देश के सामने आए हैं। आश्रम से जुड़े खिलाड़ियों में से अनेक खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर खेल रहे हैं। नागालैंड की रहने वाली तीरंदाज छेवेलो ने रायपुर में आश्रम के छात्रावास में रहकर पढ़ाई की है। वह पहले पुलिस में गर्इं, वर्तमान में महिला कमांडो के दस्ते में अहम भूमिका निभा रही हैं। आश्रम जनजाति समाज को सरकारी योजनाओं से भी अवगत कराता है। पूर्वोत्तर में जनजाति समाज के बीच कल्याण आश्रम का कार्य कई मायनों में अद्वितीय है। जनजातियों की संस्कृति, परंपरा, उत्सव, गीत, भाषा जैसी पहचान की रक्षा एवं संवर्धन हेतु उल्लेखनीय कार्य कर रहा है।
आश्रम सेवा कार्यों के जरिए सीमावर्ती क्षेत्रों में देशभक्ति की अलख जगाने के साथ-साथ, सारे समाज को एक सूत्र में गूंथने का कार्य भी कर रहा है। इन कार्यों के जरिए कल्याण आश्रम अपने ध्येय वाक्य ‘तू-मैं, एक रक्त’ को साकार करने में संलग्न है। ल्ल
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