आज संस्कार भारती विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर चुकी है, जिसकी छाया में हजारों कलाकार पुष्पित और पल्लवित हो रहे हैं।
आज कला जगत में संस्कार भारती की एक अलग पहचान है। देश में यह एकमात्र ऐसी संस्था है, जो किसी विधा विशेष की बजाय साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक, चित्रकला, प्राचीनकला और लोककला के क्षेत्र में एक साथ काम करती है। भारत के सभी राज्यों में संस्कार भारती की इकाइयां काम करती हैं। मिजोरम और नागालैंड में इकाइयां नहीं हैं, पर संपर्क है। इसने कला और साहित्य में भारतीय संस्कृति को पुन: स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई है। यही नहीं, संस्कार भारती के कारण ही आज ‘इप्टा’, ‘प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ जैसी भारतीय संस्कृति विरोधी संस्थाएं हाशिए पर चली गई हैं।
संस्कार भारती की स्थापना के पीछे 1962 का भारत-चीन युद्ध है। उन दिनों यह महसूस किया जा रहा था कि जिस राष्ट्रीय भावना से भारत को आजादी मिली, वह गौण हो रही है। उल्लेखनीय है कि उस लड़ाई में भारत के युद्ध इतिहास में सर्वाधिक सैनिक शहीद हुए थे। सैनिकों की शहादत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री योगेन्द्र के दिल को भी झकझोर दिया। उन्होंने उन सैनिकों को श्रद्धांजलि देने के लिए ‘मां की पुकार’ नाम से एक प्रदर्शनी तैयार की। यह प्रदर्शनी अमीनाबाद पार्क, लखनऊ में प्रदर्शित की गई। इसमें एक व्यंग्य चित्र प्रसिद्ध व्यंग्यचित्रकार कांजीलाल का भी था।
इस कारण उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने उस प्रदर्शनी पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बावजूद वह प्रदर्शनी अपने उद्देश्यों में सफल रही। इसके बाद प्रयागराज के कुंभ में विश्व हिन्दू परिषद् की प्रथम धर्म संसद आयोजित हुई। इसके लिए श्री योगेन्द्र ने तत्कालीन गोरक्षा आन्दोलन को ध्यान में रखते हुए ‘धर्म गंगा’ नाम से प्रदर्शनी और झांकी तैयार की। यह प्रदर्शनी बहुत चर्चा में रही। आपातकाल के दौरान योगेन्द्र जी ने बाबा की वेशभूषा में संघ कार्य किया, तभी से लोग उन्हें ‘बाबा’ कहने लगे। आज बाबा 96 साल वर्ष के हो चुके हैं, पर उनकी कला साधना जारी है। इस कारण भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।
आपातकाल के बाद योगेन्द्र जी ने ‘जनता की पुकार’ नाम से एक प्रदर्शनी तैयार की। इसमें आपातकाल के दौरान हुईं अमानवीय यातनाओं का सजीव चित्रण कर लोगों को उस काल के सत्य और तथ्य से अवगत कराया गया था। इन क्रमिक गतिविधियों के कारण अनुभव किया जाने लगा कि केवल प्रसंगवश कार्य करने की बजाय उन्हें स्थाई स्वरूप और निरंतरता दी जाए। इसके बाद ही संस्कार भारती का बीजारोपण हुआ। इसके मुख्य परिकल्पनाकार थे वरिष्ठ समाजसेवी और भारतरत्न श्री नानाजी देशमुख। इसकी रूपरेखा पर श्री रज्जू भैया, श्री भाऊराव देवरस, श्री नानाजी जैसे मनीषियों ने काफी चिन्तन-मंथन किया और 1981 में संस्कार भारती पंजीकृत हुई।
संस्कार भारती का प्रथम अधिवेशन लखनऊ के चारबाग स्थित रविन्द्र्रालय में 11-12 जनवरी, 1981 को संपन्न हुआ। सांस्कृतिक कार्यकम का उद्घाटन राज्य के तत्कालीन संस्कृति मंत्री डॉ. अम्मार रिजवी ने किया था। प्रारंभ में संस्कार भारती जगह-जगह चित्रकला प्रदर्शनी लगाती थी और गांव-गांव में भक्ति और देशभक्ति से जुड़ी फिल्में ‘प्रोजेक्टर’ के माध्यम से दिखाती थी। इन कार्यों से संस्कार भारती की प्रसिद्धि बढ़ने लगी। इससे सांगठनिक विस्तार में मदद मिली।
विस्तार होने पर संस्कृतिकर्मी और अन्य कलाकारों को संस्कार भारती के निकट लाने की जरूरत महसूस हुई। इस विषय पर 1988-89 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय साधारण सभा में योजना बनी। इसे मूर्त रूप 1990 में भाग्यनगर, हैदराबाद में आयोजित प्रथम अखिल भारतीय कला साधक संगम में दिया गया। इसके बाद 1991, 1992 और 1994 में क्रमश: भोपाल, जयुपर और काशी में कला साधक संगम आयोजित हुए।
इन कार्यक्रमों से हजारों कला साधक संस्था के निकट आए। 1998 में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय कला साधक संगम मील का पत्थर साबित हुआ। इसमें देशभर से विभिन्न स्तरों के 4,700 कलासाधक शामिल हुए। इसके बाद संस्कार भारती ने अपने विस्तार पर जोर दिया। संयोग से उन दिनों संस्कार भारती के संस्थापक संगठन मंत्री बाबा योगेन्द्र अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे कर रहे थे। संस्था ने उनका अमृत महोत्सव मनाने का निर्णय लिया।
1999 से 2000 तक देश के अलग-अलग स्थानों पर 75 कार्यक्रम ‘अमृत महोत्सव’ के नाम से आयोजित किए गए। इन कार्यक्रमों से संस्था को आर्थिक मजबूती के साथ-साथ पूरे देश में ख्याति भी मिली। संस्कार भारती ने भारतीय नववर्ष के अवसर पर 2001 में काशी में कार्यक्रम करने का विचार किया। दशाश्वमेध घाट पर ‘सूर्यास्त से सूर्योदय तक अभिसिंचन’ महोत्सव आयोजित हुआ।
इस कारण भारतीय नववर्ष के प्रति समाज में एक नवीन चेतना जागृत हुई। संस्था का सांगठनिक विस्तार जैसे-जैसे बढ़ा वैसे-वैसे उसने अपना काम भी बढ़ाया। पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ते कन्वर्जन और आतंकवाद से उत्पन्न सांस्कृतिक संकट को ध्यान में रखते हुए कई कार्यक्रम किए। सबसे पहले 2003 गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर ‘हमारी संस्कृति, हमारी पहचान’ उद्घोष के साथ ‘रंगाली बिहू’ के नाम से भारतीय नववर्ष का कार्यक्रम आयोजित हुआ और यहीं से पूर्वोत्तर के राज्यों में संस्कार भारती का विस्तार प्रारंभ हुआ।
2005 में ‘अपना पूर्वोत्तर एक उत्सव’ दिल्ली के प्रगति मैदान में भारतीय नववर्ष के अवसर पर आयोजित हुआ। इसमें पूर्वोत्तर के 375 कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। 2007-08 में 1857 की क्रांति की 150वीं वर्षगांठ पर संस्था ने पूरे देश में ‘नमन 1857’ के नाम से आयोजन किया। प्रथम स्वातंत्र्य समर के केंद्र स्थल बिठूर, कानपुर में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इसके लिए पूरे देश से शहीदों की जन्मस्थली या कर्मस्थली से मिट्टी लाई गई थी, जिसे कलाकारों ने अपनी कला से अभिसिंचित किया। आयोजन स्थल पर हर जगह की मिट्टी को एक बड़े कलश में मिलाया गया, फिर उस मिट्टी को संबंधित स्थलों के लिए वापस भेज दिया गया।
10 मई, 2008 को पूरे देश में एक साथ लोगों ने ‘नमन 1857’ के रूप में शहीदों को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद 2011 में गुवाहाटी में ‘बाल कला संगम’ हुआ। इसमें 1,100 मीटर लंबे कैनवास पर पूर्वोत्तर के 14 वर्ष से कम उम्र के 2,000 बच्चों ने ‘हमारी संस्कृति : हमारी पहचान’ विषय पर चित्र उकेरे। 2013 में संस्कार भारती ने ईटानगर में ‘सरहद को स्वरांजलि’ नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन किया। यह कार्यक्रम कवि प्रदीप द्वारा रचित, सी. रामचंद्र द्वारा संगीतबद्ध और लता मंगेशकर द्वारा गाये गीत ‘ए मेरे वतन के लोगो…’ की 50वीं वर्षगांठ पर आयोजित हुआ।
संस्कार भारती ने 2019 में संपन्न प्रयाग ‘महाकुम्भ’ की सांस्कृतिक छटा को चार चांद लगाने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त संस्था ने पूर्वोत्तर भारत की कला-संस्कृति को विशेष रूप से दर्शाने हेतु कुम्भ के इतिहास में पहली बार ‘पूर्वोत्तर-एक झलक’ नाम से 49 दिन तक सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं। इसमें पूर्वोत्तर के सभी सातों राज्य एवं देशभर से लगभग 3,000 कलाकारों ने भाग लिया। आज संस्कार भारती विशाल वट वृक्ष का रूप धारण कर चुकी है। यह अपने ध्येय गीत ‘भारते नवजीवनम्’ को साकार करते हुए हजारों कलाकारों को पुष्पित और पल्लवित कर रही है।
‘हाशिए पर भारत विरोधी स्वर’
संस्कार भारती 38 वर्ष की हो गई है। लगभग चार दशक की इस यात्रा पर संस्कार भारती के अखिल भारतीय महामंत्री श्री अमीरचंद से हुई बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं-
संस्कार भारती के उद्देश्य क्या हैं?
संस्कार भारती कला को वाद-विवाद से ऊपर उठाकर पुन: सत्यं, शिवं, सुंदरम की ओर ले जाना चाहती है। उल्लेखनीय है कि भारत के मूल दर्शन में कलाएं केवल प्रदर्शन नहीं, दर्शन प्रधान हैं। ये कलाएं केवल भंगिमा नहीं, भाव-प्रधान हैं। ये केवल कानों को नहीं, प्राणों को भी प्रिय हैं। भारतीय कलाएं केवल समस्याओं का अंबार नहीं लगातीं, बल्कि समस्या और समाधान साथ-साथ लेकर चलती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के बाद इप्टा, प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप, जनवादी लेखक संघ जैसी दर्जनों संस्थाएं बनीं, जिन्होंने भारतीय संस्कृति पर न केवल चोट की, अपितु समस्या प्रधान रचनाएं कीं तथा खेमेबाजी-गिरोहबाजी भी की। इनका देश की आजादी के पूर्व से ही अपनी सुविधानुसार सत्ता का समर्थन एवं विरोध का इतिहास रहा है। संस्कार भारती इन सबसे ऊपर उठ कर देश और संस्कृति के लिए काम करने पर विश्वास करती है।
इसमें कितनी सफलता मिली है?
सफलता ऐसी मिली है कि आज भारत के विरोध में उठने वाले स्वर अपने को हाशिए पर पाते हैं।
संस्कार भारती की अब तक की उपलब्धियां क्या हैं?
संस्कार भारती के प्रयासों और कार्यक्रमों के कारण भारतीय नववर्ष को लेकर पूरे देश में एक नई चेतना जगी है। ‘फैन्सी ड्रेस कम्पीटिशन’ की जगह कृष्ण के रूप को सजाने का माहौल बना है। कला जगत में भारत, भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर फिर से सम्मान, श्रद्धा और गर्व का भाव जगा है। फिल्मों में हिंदू संस्कृति के विरुद्ध बोलने वालों का मनोबल घटा है।
आगामी योजनाएं क्या हैं?
इन दिनों पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर (हरिभाऊ वाकणकर) का जन्मशताब्दी वर्ष चल रहा है। उनके द्वारा सरस्वती नदी की खोज ने यह सिद्ध किया कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आए थे। उनकी इस खोज से वामपंथी इतिहासकार भयाक्रांत हैं। डॉ. वाकणकर संस्कार भारती के अखिल भारतीय संस्थापक महामंत्री थे। अत: संस्कार भारती पूरे देश में धरोहर यात्रा, प्रदर्शनी, व्याख्यान, परिचर्चा के माध्यम से उनके जन्मशताब्दी वर्ष को मना रही है। इसका समापन वाकणकर जी की कर्मस्थली उज्जैन में 4 मई, 2020 को उनके जन्मदिन पर प्रस्तावित है।
टिप्पणियाँ