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संसद का बजट सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। 15 दिन में केवल नौ घंटे ही कामकाज हुआ। संसद की कार्यवाही चलाने पर प्रति मिनट करीब 2.50 लाख रुपए का खर्च आता है। ऐसे में लोग सवाल उठा रहे हैं कि देश के करदाताओं के पैसे को इस तरह क्यों बर्बाद किया जा रहा है?
मनोज वर्मा
संसद का बजट सत्र हंगामे के साथ समाप्त हो गया। कांग्रेस के साथ अन्य विपक्षी सांसदों ने किसी न किसी बहाने संसद के दोनों सदनों में कामकाज नहीं होने दिया। संसद नियम और परंपराओं से चलती है, उन नियमों और परंपराओं से जो संसद द्वारा ही स्थापित किए गए। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर संसद क्यों नहीं चली? कौन जिम्मेदार है इसके लिए? तो इसका उत्तर यही सुनने को मिला कि चुनावी साल है इसलिए संसद में राजनीति के चलते ऐसा हो रहा है। कहने को पक्ष और विपक्ष के सभी प्रमुख नेता कहते भी हैं कि ऐसा नहीं होना चाहिए। संसद चलनी चाहिए। संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार कहते हैं, ‘‘संसद में गतिरोध के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से दोनों सदनों के कामकाज में कमी आई है। कारण राहुल विधायी कामकाज की बारीकियों को नहीं समझते हैं इसीलिए कांग्रेस ने अन्य दलों के पीछे चलते हुए अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है। कांग्रेस से काफी पहले ही वाईएसआर कांग्रेस और टीडीपी ने अविश्वास प्रस्ताव दे दिया था।’’ दूसरी ओर कांग्रेस प्रवक्ता मीम अफजल कहते हैं, ‘‘सदन न चलने के लिए सरकार जिम्मेदार है। उसने विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा को स्वीकार नहीं किया।’’
लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘‘एक बार सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस आ जाने के बाद उस पर फैसला लेना जरूरी होता है। इसे बीच में नहीं छोड़ा जा सकता। अविश्वास प्रस्ताव पर फैसले के बिना लोकसभा के सत्र का अवसान नहीं किया जा सकता। इसे या तो खारिज करना होगा या फिर चर्चा के बाद मतदान कराकर फैसला करना होगा।’’ लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप का कहना है, ‘‘अविश्वास प्रस्ताव खुद विपक्ष लेकर आया है और वही संसद न चलने दे तो ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव पर फैसले की जिम्मेदारी सरकार पर नहीं डाली जा सकती।’’ वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह कहते हैं, ‘‘क्षेत्रीय राजनीति की प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय राजनीति और संसद पर भारी पड़ गई। संसद में इस बार जिस तरह से राज्यों के मुद्दों को लेकर हंगामा और नारेबाजी की गई और संसद को नहीं चलने दिया गया, यह संसद और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है।’’ पर कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। वे कहते हैं, ‘‘संसद नहीं चल पा रही है तो इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। सरकार अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर रही है।’’ इस हंगामे की बड़ी वजह आंध्र के लिए विशेष राज्य का दर्जा भी है। इस मांग को लेकर टीडीपी सांसद लगातार दोनों सदनों में हंगामा करते रहे। इसी कड़ी में एक दिन चित्तूर से टीडीपी सांसद एन. शिवाप्रसाद नारद मुनि का वेश बनाकर संसद में अपना विरोध दर्ज कराने पहुंचे। इससे पहले भी वे हरिश्चंद्र, स्कूली छात्र, तेलुगू महिला, मछुआरे की वेशभूषा में विरोध जताने संसद आ चुके हैं।
दूसरी ओर लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने अपने स्तर पर लोकसभा की कार्यवाही चलाने की कई बार कोशिश की। उन्होंने सहमति बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई, पर सदन नहीं चला। सुमित्रा महाजन ने कहा भी, ‘‘संसद नियम और परंपराओं से चलती है। अविश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण नोटिस पर फैसला तभी हो सकता है जब सदन सुचारू रूप से चल रहा हो।’’ असल में तो अधिकांश समय यही देखने में आया कि लोकसभा में वही हंगामा कर रहे थे जिन्होंने अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया था। जाहिर है, दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। लिहाजा बजट सत्र का दूसरा हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ गया। एक आंकड़े के मुताबिक एक मिनट तक संसद की कार्यवाही चलाने पर करीब 2.50 लाख रुपए का खर्च आता है। ऐसे में अगर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही पूरे छह घंटे चलती है तो एक दिन में नौ करोड़ रुपए खर्च होते हैं। लेकिन चालू सत्र में 15 दिन के भीतर लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही हंगामे के बीच सिर्फ नौ घंटे तक ही चल सकी और इस पर 13.50 करोड़ रुपए खर्च हुए। अगर दोनों सदनों में काम-काज प्रतिदिन 6-6 घंटे होता तो 15 दिन में संसद को 90 घंटे तक चलना चाहिए। इस हिसाब से 15 दिन में 81 घंटे तक काम-काज ठप ही रहा और इस पर जनता के 120 करोड़ से ज्यादा रुपए बर्बाद हुए। आखिर इसी संसद ने पिछले साल बजट सत्र में कामकाज का शानदार कीर्तिमान बनाया था। उसको दोहराने या बेहतर बनाने का संकल्प क्यों नहीं लिया गया?
वर्ष 2017 के बजट सत्र में इसी संसद के निचले सदन यानी लोकसभा ने कामकाज के मामले में नया कीर्तिमान कायम किया था। पिछले कुछ दशकों से किसी आरोप या मुद्दे को लेकर अथवा किसी रणनीति के तहत संसद ठप करने की बढ़ती अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति के चलते यह वाकई बेहद सुखद एहसास था कि पिछले साल बजट सत्र के दोनों चरणों में हुईं लोकसभा की कुल 29 बैठकों में तय वक्त से भी 19 घंटे ज्यादा समय काम हुआ। कामकाज भी लगभग 113 प्रतिशत ज्यादा हुआ। पिछले बजट सत्र में न सिर्फ बजट पर बाकायदा बहस हुई, बल्कि जीएसटी सरीखे विवादास्पद, मगर महत्वपूर्ण विधेयक को चर्चा के बाद पारित किया गया। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि नरेंद्र मोदी सरकार की पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में वर्ष 2012 का मानसून सत्र सबसे कम कार्य वाला सत्र माना जाता रहा है। उस सत्र में सबसे सबसे ज्यादा हंगामा हुआ था। संसदीय कार्य राज्यमंत्री अर्जुन मेघवाल कहते हैं, ‘‘जब तक संसद में व्यवस्था न हो, शोर शराबा खत्म न हो, तब तक अध्यक्ष के लिए भी अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को आगे बढ़ाना कठिन होता है।’’संसद न चलने पर एक सवाल यह भी उठता रहा है कि जब सदन न चले तो सांसदों को उस समय का वेतन भत्ता भी नहीं लेना चाहिए। बहरहाल, संसदीय कार्य मंत्री अनंत कुमार ने कहा है कि भाजपा या राजग का कोई सांसद उन 23 दिनों का वेतन नहीं लेगा, जिनमें कोई कामकाज नहीं हुआ है। वेतन न लेने का फैसला कैबिनेट की बैठक में सर्वसम्मति से लिया गया ताकि लोगों के बीच यह संदेश जाए कि विपक्ष ने किस प्रकार संसद का सत्र व्यर्थ गंवाया। वेतन तभी लिया जाएगा जब अपने कार्यों से लोगों की सेवा की जाएगी। कांग्रेस की अलोकतांत्रिक राजनीति ने लोकसभा और राज्यसभा में काम नहीं होने दिया, जबकि हम इस मुद्दे पर उनसे चर्चा करना चाहते थे। आयकरदाताओं के पैसे खर्च करने के बाद भी कोई बिल पास न होना ‘आपराधिक बरबादी’ है।
काम की बात की जाए तो ऊपरी सदन में केवल ग्रेच्युटी के भुगतान (संशोधन) संबंधी विधेयक-2017 ही पारित किया जा सका, जबकि लोकसभा में वित्त विधेयक 2018 के साथ-साथ अगले वित्त वर्ष के लिए 89 करोड़ रु. के खर्चे की योजना को बिना किसी चर्चा के आधे घंटे में ही पारित कर दिया गया। सदन ने विधेयक में कर प्रस्तावों के लिए 21 संशोधनों के साथ-साथ 99 सरकारी विभागों और मंत्रालयों के लिए बजटीय योजना वाले विनियोग विधेयक को ध्वनि मत से पारित कर दिया। विपक्ष ने विभिन्न मुद्दों को लेकर सरकार को दोनों सदनों में रोका। मुख्य रूप से दक्षिण के चार प्रमुख राजनीतिक दलों-अन्नाद्रमुक, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस तथा तेदेपा, जिन्हें अन्य विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था, ने संसद की कार्यवाही को अवरुद्ध किया। प्रतिदिन जैसे ही सदन की कार्यवाही प्रारंभ होती, अन्नाद्रमुक के 37 सदस्य अध्यक्ष के आसन तक पहुंच जाते और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड के गठन की मांग करने लगते। टीआरएस चाहती थी कि राज्य में उसके द्वारा मुसलमानों को दिए गए 12 प्रतिशत आरक्षण को 9वीं सूची के अंतर्गत अधिसूचित किया जाए। राजग की सहयोगी रही तेदेपा गत माह अपना गठबंधन तोड़ने के बाद आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर और भी उग्र हो गई जैसा कि 2014 में राज्य के विभाजन के समय वादा किया गया था। वाईएसआर कांग्रेस भी यही मांग कर रही थी, लिहाजा दोनों दलों ने मोदी सरकार के खिलाफ अलग से अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस दे दिए। पर कृषि संकट, नीरव मोदी-पी.एन.बी. घोटाला, इराक मुद्दा, कैम्ब्रिज एनालिटिका डाटा चोरी, पश्चिम बंगाल तथा बिहार में रामनवमी पर हुई हिंसक झड़पों जैसे बहुत से महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पाई।
बहरहाल, संसद का बजट सत्र समाप्त हो गया है, लेकिन कर्नाटक में होने वाले विधानसभा चुनाव के परिणाम आने वाले दिनों में संसद की कार्यवाही की दिशा तय कर सकते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अविश्वास प्रस्ताव का इतिहास
संसदीय इतिहास में पहली बार अगस्त, 1963 में जे. बी. कृपलानी ने अविश्वास प्रस्ताव रखा था।
जवाहरलाल नेहरू सरकार के खिलाफ रखे गए इस प्रस्ताव के पक्ष में सिर्फ 62 और विरोध में 347 मत पड़े थे।
संसद में अब तक 26 से ज्यादा बार अविश्वास प्रस्ताव रखे जा चुके हैं, लेकिन ज्यादातर प्रस्ताव सदन में गिरते आए हैं।
पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार 1978 में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव की वजह से गिर गई थी।
सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के विरोध में प्रस्तुत किए गए। उनकी सरकार को ऐसे 15 प्रस्तावों का सामना करना पड़ा था।
लाल बहादुर शास्त्री और नरसिम्हा राव की सरकारों ने तीन-तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया।
अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करने का रिकॉर्ड माकपा सांसद ज्योतिर्मय बसु के नाम है। उन्होंने इंदिरा सरकार के खिलाफ चार अविश्वास प्रस्ताव रखे थे।
किसको मिलता है विशेष राज्य का दर्जा
14वें वित्त आयोग के बाद अब यह दर्जा पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों के अलावा किसी और को नहीं मिल सकता।
अभी 11 राज्यों अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और असम को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है। इन राज्यों को 90 प्रतिशत तक केंद्रीय अनुदान मिलता है, जो मदद के रूप में दिया जाता है। इसमें 10 फीसदी रकम ही बतौर कर्ज होती है।
बेहद दुर्गम इलाके वाला पर्वतीय क्षेत्र, अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटा, प्रति व्यक्ति आय और राजस्व काफी कम होना आदि विशेष दर्जे की शर्तें हैं।
महत्वपूर्ण विधेयक जो लटके
राज्यसभा
मोटर वाहन (संशोधन ) विधेयक
भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन )विधेयक
मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक
‘व्हिसल ब्लोअर’ संरक्षण विधेयक
लोकसभा
दंत चिकित्सक (संशोधन) विधेयक
उपकरण (संशोधन) विधेयक
शिक्षक शिक्षा (संशोधन )विधेयक
ग्राहक संरक्षण विधेयक
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