अमेरिका-चीन व्यापारिक युद्ध : ड्रैगन पर नकेल की चुनौती
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अमेरिका-चीन व्यापारिक युद्ध : ड्रैगन पर नकेल की चुनौती

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Apr 9, 2018, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Apr 2018 11:11:11

आयात शुल्क को लेकर अमेरिका-चीन के बीच बढ़ती व्यापारिक तनातनी से चीन को ज्यादा नुकसान होगा, क्योंकि अमेरिका चीनी वस्तुओं का बड़ा बाजार है। ऐसे माहौल में चीन का भारत से व्यापार बढ़ाने और अन्य व्यापारिक सुगमताएं कार्यान्वित करने का आश्वासन भारतीय दृष्टि से सकारात्मक हो सकता है

  भगवती प्रकाश

अमेरिका राष्ट्रपति पद के चुनाव के समय से अंतरराष्टÑीय व्यापार के मोर्चे पर अमेरिका और चीन के बीच शुरू हुई जुबानी जंग अब एक व्यापार का रूप ले रही है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के चीन से होने वाले 50 अरब डॉलर (तीन लाख करोड़ रुपये) के आयात पर 22 मार्च को सीमा शुल्क लगा देने से इस नोकझोंक के एक बड़े व्यापार युद्ध में परिणत होने के लक्षण दिखने लगे हैं। हालांकि अमेरिका के आकर्षक बाजार को खो देने की आशंकाओं के कारण चीन ने अमेरिकी कार्रवाई का जवाब देने की खानापूर्ति करते हुए शुरू में तो केवल 3.2 अरब डॉलर के आयात पर व्यापार पर सीमा शुल्क लगाने की धमकी दी। चीन वस्तुत: अमेरिका के साथ बड़े पैमाने पर व्यापार युद्ध की स्थिति को टालना चाहता है क्योंकि दोनों देशों का व्यापार संतुलन 375 अरब डॉलर की बढ़त के साथ उसके पक्ष में झुका हुआ है। इसलिए अगर दोनों के बीच विवाद बढ़ा तो इसका सर्वाधिक नुकसान चीन को होगा।
वैसे, दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश संबंध इस तरह एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं कि इसका प्रतिकूल असर दोनों पक्षों पर पड़ेगा। लेकिन अगर व्यापार युद्ध के कारण होने वाली हानि और चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे की बात करें तो अमेरिका के लिए इस घाटे को सहना ज्यादा मुश्किल होता जा रहा है जो वर्ष 2001 के 100 अरब डॉलर की तुलना में 2017 में बढ़कर 375 अरब डॉलर हो गया है। स्थानीय जन-प्रतिक्रिया व अपनी अंतरराष्टÑीय प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु 4 अप्रैल को उसने अमेरिका द्वारा आरोपित सीमा शुल्क को संतुलित करते हुए 50 अरब डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर शुल्क आरोपित कर दिया है।

चीन का रक्षात्मक रुख
अमेरिका के साथ व्यापारिक विवाद के बढ़ने की स्थिति में बड़े भारी नुकसान की आशंकाओं को देखते हुए चीन इसे टालना चाहता है। चीन के प्रधानमंत्री ली केकिंग ने 26 मार्च को फॉर्च्यून 500 कंपनियों के प्रतिनिधियों के समक्ष यह पेशकश की कि चीन अमेरिका से आयात को और बढ़ाएगा। उन्होंने इसके साथ ही यह आश्वासन दिया कि अमेरिका के साथ व्यापारिक मतभेदों और टकराव को पूरी सूझबूझ के साथ परस्पर बातचीत से हल किया जाएगा। चीन के प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि अमेरिका समेत दुनियाभर के निवेशकों के लिए चीन अपने बाजार को और खोलेगा। फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक चीनी अधिकारी इस बात पर राजी हो गए हैं कि अमेरिका के साथ व्यापार में संतुलन लाने के लिए उनका देश अमेरिकी कंपनियों से सेमीकंडक्टर तथा इससे जुड़े उत्पादों का आयात बढ़ाएगा। प्रधानमंत्री ली ने 20 मार्च को अमेरिका से दवाओं के आयात पर लगने वाले शुल्क को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की मंशा जताई तो चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने भी व्यापार घाटे को 100 अरब डॉलर तक कम करने की अमेरिकी मांग को विचार योग्य बताया।
हानिकारक है व्यापारिक युद्ध
अगर दोनों देशों के बीच व्यापारिक  विवाद बढ़ा तो अमेरिका को भी इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। तब आॅटोमोबाइल, असैनिक वायुयान समेत तमाम अन्य उत्पादों का चीन को होने वाला निर्यात प्रभावित हो जाएगा। अमेरिकी उपभोक्ताओं को भी चीन के उन उत्पादों की कमी खलेगी, जिन्हें वे आज धड़ल्ले से खरीदते हैं। अमेरिका की तुलना में चीन को तब कहीं अधिक आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन अगर उसने ‘जैसे को तैसा’ की रणनीति अपनाई तो अमेरिका की सैकड़ों कंपनियां मुश्किल में आ जाएंगी। चीन जो कुछ भी कदम उठाए, वे काफी संयमित रहे।

वैश्वीकरण की धारा का पलटना तय
अमेरिका और चीन के एक-दूसरे के निर्यात के रास्ते में शुल्क की बाधा खड़ी करने को इकलौती, अचानक और कभी-कभार होने वाली घटना के बतौर नहीं देखा जा सकता। ’90 के दशक के शुरुआती समय में धनी देशों ने वैश्वीकरण के जिस सिद्धांत के पीछे जान झोंक दी थी, उसका लक्ष्य अपने व्यापार और निवेश के मार्ग से भू-राजनैतिक बाधाओं को हटाना था। आज व्यापार, निवेश और रोजगार सृजन के मामले में दुनियाभर में जो असामनता पैदा हुई है, उसी की स्वाभाविक परिणति इस तरह के विवादों के रूप में सामने आती रहती है। इसी का नतीजा है कि वैश्विक विनिर्माण का 85 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा आज चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, कोरिया और ताईवान में सिमट गया है, यानी 230 में से सिर्फ 33 देशों में। औद्योगिक देशों ने 200 से अधिक देशों के बाजार, विनिर्माण और निवेश अवसरों पर कब्जा जमाने के लिए वैश्वीकरण का सहारा लिया। इसका भारत पर भी बुरा असर पड़ा और आज वैश्विक विनिर्माण क्षेत्र में उसकी भागीदारी केवल 2.1 प्रतिशत है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के विनिर्माण क्षेत्र पर कब्जा जमाने के बाद अपनी प्रौद्योगिकी आधारित गतिविधियां यहां से बाहर ले गर्इं जबकि यहां केवल असेंबली-लाइन रह गई। लेकिन चीन ने स्थिति को बदलकर रख दिया है और इन औद्योगिक देशों के बाजारों को चीनी उत्पादों से पाट दिया है। इस कारण सिंगापुर, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमेरिका जैसे धनी देश लोगों और वस्तुओं के मुक्त आवागमन की राह में रोड़े खड़े करके वैश्वीकरण के प्रवाह को पलटना चाहते हैं।

व्यापार विवाद से हमारा फायदा
चीन के साथ भारत का ‘वास्तविक’ व्यापार घाटा अमेरिका की तुलना में कहीं अधिक है। अमेरिका का व्यापार घाटा 375 अरब डॉलर है जो अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ 1.87 प्रतिशत है जबकि चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा वर्ष 2016-17 के हमारे जीडीपी की तुलना में 2.25 प्रतिशत है और इसके और बढ़ने का अनुमान है। 2017-18 की बात करें तो इसकी पहली छमाही में ही यह घाटा 30 अरब डॉलर से अधिक हो चुका है जबकि 2016-17 के बारह महीनों के दौरान यह 51 अरब डॉलर रहा। भारत ने 98 उत्पादों पर डंपिंग-रोधी शुल्क लगा रखे हैं और इनमें से अधिकतर एनडीए सरकार के दौरान लगे। इसके बाद भी चीन भारत के साथ व्यापार घाटे को कम करने पर सहजता से तैयार हो गया। अमेरिका के साथ व्यापार विवाद पर मंडराते ‘व्यापार युद्ध’ के खतरे के बीच चीन यह मानने को मजबूर हुआ है कि परस्पर दीर्घकालिक व्यापारिक रिश्तों के लिए भारत के साथ यह विशाल व्यापार घाटा घातक है जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है। चीन ने परस्पर व्यापार में भारतीय घाटे को पूरी तरह पाटने का भरोसा दिलाया है। इसलिए अमेरिका-चीन व्यापार विवाद की पृष्ठभूमि में तैयार हुए इस माहौल में भारत चीन की ओर से अपेक्षाकृत सकारात्मक कदम सुनिश्चित करते हुए चीन के साथ अपने व्यापार घाटे को कम कर सकता है।
    (लेखक पैसिफिक विवि, उदयपुर के कुलपति हैं)   

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