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राज्य/त्रिपुरा: इस जीत के बडेÞ मायने

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Mar 26, 2018, 12:00 am IST
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दिंनाक: 26 Mar 2018 00:12:12

भाजपा ने कम्युनिस्ट सरकार को त्रिपुरा में उखाड़ फेंका तो पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक आधे-अधूरे लाल दुर्ग में मायूसी छा गई। लेनिन का कम्युनिस्ट सिद्धांत और कार्यनीति यूं भी भारतीयों को कभी रास नहीं आई। त्रिपुरा ने भी अपना मत स्पष्ट कर दिया

  मनोज वर्मा

त्रिपुरा में भाजपा ने 25 साल पुराने वामपंथी गढ़ को ध्वस्त कर दिया। भाजपा के लिए यह जीत केवल एक छोटे राज्य में पहली बार सरकार बनाने का मौका नहीं है, बल्कि उससे अधिक इसके वैचारिक मायने हैं। असल में भाजपा ने इस पूर्वोत्तर प्रांत में सीधे तौर पर आजादी के बाद वाम विचाराधारा वाली सरकार को उखाड़ फेंका तो पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक आधे-अधूरे लाल दुर्ग में मायूसी छा गई।
1979 में जब अटल बिहारी वाजपेयी तत्कालीन प्रधानमंत्री मोराजी देसाई के साथ विदेश मंत्री के रूप में रूस की यात्रा पर गये थे, तब लेनिन की समाधि पर भी गये थे। वाजपेयी ने वहां कहा था कि हम में और रूसियों में यह अंतर है कि हम शिव की पूजा करते हैं और ये शव की। दरअसल, 24 जनवरी 1924 में निधन के बाद लेनिन का अंतिम संस्कार नहीं किया गया था। उनका शव मॉस्को के रेड स्क्वायर में रखा हुआ है। अटल जी ने अपनी बात इसी संदर्भ में कही थी। लेनिन का कम्युनिस्ट सिद्धांत और कार्यनीति भारतीयों को कभी अधिक रास नहीं आई। लिहाजा भारतीय राजनीति में वामपंथ हाशिए पर पहुंच गया है।
पहले पश्चिम बंगाल और अब त्रिपुरा में हार के बाद केवल केरल में वामपंथी गठबंधन सरकार बची है। केरल की सियासत में हर पांच साल बाद आमतौर पर बदलाव होता है और इस क्रम में अगली बार वामपंथी सरकार की हार तय कही जा सकती है। वैसे त्रिपुरा में भाजपा की जीत से कामरेड खेमा अचंभे में है। पांच साल पहले जिस त्रिपुरा में भाजपा खाता भी नहीं खोल पाई थी और जिसे राजनीतिक रूप से गंभीरता से भी नहीं लिया जाता था, उसने सभी राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाते हुए बेहतरीन प्रदर्शन कर दिखाया। वामदलों का गढ़ माने जाने वाले त्रिपुरा में भाजपा ने शून्य से शुरुआत करते हुए 35 सीटें जीत लीं और राजनीतिक इतिहास बनाते हुए देश के ईमानदार व तथाकथित सादगी से रहने वाले मुख्यमंत्री माणिक सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
त्रिपुरा के चुनाव परिणाम के बाद केरल को लेकर भी चचार्एं शुरू हो गई हैं। वामपंथी नेताओं से सवाल होने लगे हैं कि क्या केरल का हाल भी त्रिपुरा जैसा संभव है? इस सवाल का असल में एक आधार है। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने त्रिपुरा में 50 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 49 की जमानत जब्त हो गई थी। तब भाजपा को यहां केवल 1.87 फीसदी वोट मिले थे और वह एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। वहीं, 2016 में केरल विधानसभा चुनाव में भाजपा को 15.20 प्रतिशत वोट मिले तो 2011 में करीब नौ प्रतिशत वोट मिले थे। निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के अनुसार, इस बार भाजपा ने त्रिपुरा में 51 सीटों पर चुनाव लड़ा और 43 प्रतिशत वोट हासिल किए। भाजपा की गठबंधन सहयोगी आईपीएफटी ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा और लगभग आठ प्रतिशत वोट हासिल किए। दूसरी तरफ 2013 के विधानसभा चुनाव में 60 में से 50 सीट जीतने वाले सीपीएम नीत वाम मोर्चे ने इस बार महज 42.7 प्रतिशत मत हासिल किए हैं।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी मुख्यालय पर पत्रकारों से बातचीत में कहा, ‘‘पूर्वोत्तर में जीत के कई मायने हैं। तीनों राज्यों के परिणाम कांग्रेस के खिलाफ तो रहे ही, साथ ही यह भी सिद्ध हो गया कि ‘लेफ्ट’ भारत के किसी भी हिस्से के लिए ‘राइट’ नहीं हैं। त्रिपुरा की 20 जनजातीय सींटे भाजपा ने जीती हैं। ये हमारे लिए शुभ संकेत है।’’ वहीं, भाजपा सांसद प्रह्लाद पटेल कहते हैं,‘‘भारत के जो वामपंथी नेता हैं, उन्होंने कभी भी भारतीय समाज को एक आम भारतीय की नजर से देखने की कोशिश नहीं की। इसलिए वे वैचारिक और सांस्कृतिक दोनों स्तरों पर जनमानस से कटते चले जा रहे हैं।’’ असल में पूर्वोत्तर भारत के तीनों राज्यों- त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड- के विधानसभा चुनावों में जीत के साथ ही भाजपा को उत्तरी-पूर्वी राज्यों में निर्णायक बढ़त हासिल हो गई है। हालांकि भाजपा ने असम सहित समूचे पूर्वोत्तर क्षेत्र को लगभग कांग्रेस मुक्त कर दिया है, पर वैचारिक दृष्टि से भाजपा के लिए सबसे खास त्रिपुरा की जीत है। त्रिपुरा भले ही एक छोटा राज्य हो, लेकिन इस जीत का प्रतीकात्मक महत्व है। एक तरफ जहां भारत का वाम, उदारवादी और सेकुलर खेमा भाजपा की त्रिपुरा में जीत से हतप्रभ है, वहीं वैचारिक स्तर पर उसके सामने शून्यता की स्थिति है।
त्रिपुरा में युवा वर्ग का भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ बढ़ता रुझान इस बात का संकेत है, जिसकी परिणति त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति टूटने के दौरान नजर भी आई। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू कहते हैं कि पूर्वोत्तर में भाजपा ने विकास की राजनीति की, जबकि कांग्रेस ने भ्रष्ट सरकारें दीं और वामपंथ ने कथित सादगी के नाम पर विकास को अवरुद्ध किया।
दूसरी ओर, पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरह से भाजपा ने जीत दर्ज की है, उसके पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को राजनीतिक विरोधी भी मान रहे हैं। दरअसल, पिछले वर्ष संघ ने यहां एक विशाल हिंदू सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें राष्ट्रभाव और सेवा के साथ राष्ट्र निर्माण का जो चिंतन प्रस्तुत किया, उसने त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर को खासा प्रभावित किया है। पूर्वोत्तर राज्यों में हिंदू सम्मेलन काफी प्रेरणादायक रहा। इसके लिए हर इलाके के एक-एक वनवासी समूह से मिलने की योजना बनाई गई। लोगों को इसके लिए व्यक्तिगत तौर पर निमंत्रण भेजा गया। हर घर में भगवा ध्वज लगाया गया, जिसके चलते लगभग एक लाख घरों तक सीधा संपर्क स्थापित हुआ। मगर यह भी सच है कि केरल की तरह ही संघ के स्वयंसेवकों को त्रिपुरा के वामपंथी शासन में राजनीतिक हिंसा का सामना करना पड़ा था। असल में त्रिपुरा से लेकर केरल तक वामपंथी हिंसा सुर्खियों में रही है। भाजपा सांसद प्रह्लाद जोशी कहते हैं कि लेनिनवादियों ने दुनिया भर में हिंसा के बल पर विचारों का दबाने और शासन करने की कोशिश की। त्रिपुरा में भी वर्षों पहले संघ के चार प्रचारकों की हत्या की गई, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। त्रिपुरा की जीत के मौके पर भाजपा मुख्यालय पर कार्यकतार्ओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संघ के उन कार्यकतार्ओं को याद किया जिनकी त्रिपुरा में हत्या कर दी गई थी। इतना ही नहीं, अपने संबोधन के दौरान मोदी ने मंच से दो मिनट का मौन रखने का आह्वान भी किया। गौरतलब है कि करीब दो दशक पहले 6 अगस्त, 1999 को त्रिपुरा के धोलाई जनपद के कंचनछेड़ा से चार प्रचारकों का अपहरण कर लिया गया था। ये चार कार्यकर्ता थे- श्यामल कांति सेनगुप्ता, दीनेंद्र नाथ डे, सुधामय दत्त और शुभंकर चक्रवर्ती। वरिष्ठ पत्रकार गोविंद मिश्र कहते हैं,‘‘वामपंथी सरकारों के दौर में संघ या किसी दूसरी विचारधारा की राजनीति करने वालों को हिंसा का सामना करना पड़ता रहा है। बात चाहे पश्चिम बंगाल की हो या त्रिपुरा की। केरल भी इससे अछूता नहीं है।’’
पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावी नतीजे इसकी बानगी हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा अन्य पार्टियों के मुकाबले तेजी से मजबूत हुई है। पर त्रिपुरा में भाजपा की जीत सिर्फ संख्याबल की जीत नहीं है, बल्कि एक विचारधारा पर भी जीत है। माणिक सरकार के खिलाफ भाजपा ने जहां एक बेहतर गठबंधन किया, वहीं 25 साल में आम लोगों की बेबसी को भी दिखाया। भाजपा यह संदेश देने में कामयाब रही कि माणिक सरकार के चेहरे और कामरेड कार्यशैली में जमीन आसमान का अंतर है। वरिष्ठ पत्रकार शेखर अय्यर कहते हैं कि पूर्वोत्तर के नतीजों के बाद एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा की जहां राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी साबित हो गई है, वहीं यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अखिल भारतीय स्वीकार्यता का प्रमाण भी है। जाहिर है, त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगियों की सरकार का असर राष्ट्रीय राजनीति को भी प्रभावित करेगा।   

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