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चुनाव सुधार की राह

by
Mar 12, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Mar 2018 14:15:22

 

भारी-भरकम बजट पर लंबी कालावधि तक सरकारी मशीनरी को चुनाव प्रक्रिया में उलझाए रखना उचित नहीं है। भारत जैसे विकासशील देश में इस विषय में चली चर्चा परिणति तक जाए और आवश्यक बदलाव करके देश और देशवासियों के हित में एक देश-एक चुनाव की राह बने


 

शक्ति सिन्हा

निदेशक नेहरू स्मृति म्यूजियम और लाइब्रेरी 

 

चुनाव लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली का बेहद महत्वपूर्ण पक्ष होता है; यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को वैधता देता है। अत: चुनावों को महत्वहीन या बाधा मानना ठीक नहीं होगा। धनी एवं उच्च मध्यवर्ग, महानगरीय धनाढ्य वर्ग अक्सर चुनावी राजनीति को तमाशे की संज्ञा देते हुए उसे आर्थिक विकास, राजनीतिक स्थायित्व एवं सुशासन जैसे प्रमुख लक्ष्यों से भटकाने वाली क्रिया मानकर उसकी उपेक्षा करते हैं। दरअसल, यह उपेक्षा केवल चुनावों तक ही सीमित नहीं, बल्कि समूची लोकतांत्रिक राजनीति के प्रति होती है, जिसमें हमशा सुधारों की जरूरत महसूस की जाती है और इसे हल्का तथा भ्रष्ट माना जाता है। सुधारों की जरूरत से जुड़े इस विचार के पीछे अक्सर उन प्रयासों को दोहराया जाता रहा है जिसमें शासन-प्रणाली को राजनीतिक कार्यकारियों के हाथों से लेकर तकनीकी तौर पर दक्ष लोगों को दिए जाने की दलील रहती है। माना जाता है कि ये लोग दीर्घकालिक योजनाएं बनाने में ज्यादा सिद्धहस्त होते हैं और उनके कारण भ्रष्टाचार का समूल नाश नहीं तो उसमें कमी बेशक आती है। ऐसी सोच के कुछ प्रयास सफल भी रहे हैं। टी. एऩ शेषन के अधीन चुनाव आयोग असरहीन आचार-संहिता को बिना वैधानिक या न्यायिक मंजूरी के कानूनी तौर पर लागू करने के रूप में सफल रहा; इसने अपने आखिरी सत्र के 6 महीने के भीतर बैठक करने की संवैधानि क जरूरत के अलावा चुनाव की घोषणा करने के कार्यकारी की योग्यता भी छीन ली। केंद्रीय सतर्कता आयोग, कई अन्य नियामक आयोग भी इस दौरान सामने आए। 

भरोसेमंद चुनाव प्रक्रिया, वायु और जल प्रदूषण से निपटने के लिए कार्यकारी वर्ग पर दबाव बनाना, महंगाई मेंं कमी आदि बड़े परिवर्तन थे, लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि आखिर ये परिवर्तन किस कीमत पर आए? या कि क्या यही एकमात्र विकल्प थे? और क्या सत्ता के इस हस्तांतरण से वह बनावटी लक्ष्य पूरा हो सका जिसके लिए कार्यपालिका को कमजोर किया गया था? इन सवालों के जवाब एक साथ कराए जाने वाले चुनावों से सीधा संबंध रखते हैं और ‘सुशासन’ की चाह रखने वाले उन लोगों के बारे में तो खासतौर पर प्रासंगिक हैं जो चुनिंदा नुमाइंदों की भूमिका को सीमित रखने की पैरवी करते हैं।

यह मात्र छोटा-सा संदर्भ है कि कैसे भारत में शासन-प्रणाली का केंद्र होने की बजाय, चुनाव उसमेंं रुकावट साबित हुए; सच तो यह है कि छोटे-छोटे अंतराल के बाद कराए जाने वाले चुनावों की वजह से शासन-प्रणाली पर विपरीत असर पड़ा है। सबसे पहले याद रखना होगा कि भारत ने अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह प्रतिनिधि प्रणाली का चयन किया है। यह प्रणाली स्विस कैन्टोनल सिस्टम से अलग है जिसमें प्रत्येक मुद्दे पर नागरिक अपने मत डालते हैं। स्विट्जरलैंड तक में, मतदान पर आश्रित न होने के कारण प्रत्यक्ष लोकतंत्र पीछे छूटता दिख रहा है। प्रतिनिधि लोकतांत्रिक स्वरूप में, चुने जाने के बाद, नुमाइंदे बेशक सैैद्धांतिक तौर पर ही सही, बिना जनता की मंजूरी के, राजनीतिक तौर पर जरूरी कुछ ऐसे कठोर निर्णय ले सकते हैं जो अगले चुनावों से पहले सहायक साबित हो सकें। दूसरा, और ज्यादा जरूरी पक्ष यह है कि चूंकि प्रतिनिधि चुनकर आता है, इसलिए शासन-प्रणाली के लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने के लिए जनता की इच्छा पर अमल जरूर होना चाहिए। वहीं नौकरशाही कितनी भी पेशवराना और ईमानदार क्यों न हो, वह अपना सर्वश्रेष्ठ तभी दे पाती है जब उसके समक्ष राजनीतिक प्रबंधकों के स्पष्ट निर्देश और दूरदर्शी विचार हों।

दिल्ली में मार्च 2012 से फरवरी 2015 के अरसे के दौरान हुए चुनावों का दुर्भाग्यपूर्ण असर शासन-प्रणाली पर देखा गया। यहां आशय आचार-संहिता और बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों को चुनाव कार्य में लंबी अवधि के लिए लगाए जाने से है। आचार-संहिता के बारे में कुछ शब्दों में यह जानना जरूरी है कि कैसे उससे, न चाहते हुए भी शासन-प्रणाली की प्रक्रिया को नुकसान पहुंचा है। इसका मूल उद्देश्य सत्तासीन सरकार को अवांछित तरीकों से मतदाताओं पर असर डालने से रोकना था ताकि सबको बराबरी के अवसर प्राप्त हो सकें। परंतु जबरन अमल में लाने पर, इसके कारण, उपार्जन ही नहीं बल्कि रोजमर्रा के जरूरी निर्णय लिए जाना भी कठिन हो जाता है। विकास योजनाओं की घोषणा, नई परियोजनाओं के आरम्भ आदि पर पाबंदी को समझा जा सकता है क्योंकि इससे सत्तासीन सरकार को अनुचित लाभ मिल सकता है। परंतु रोजमर्रा के मामलों में कार्यकारी वर्ग को चुनाव आयोग की आज्ञा लेना, और उपार्जन तंत्र पर पूर्ण रोक लगाना, समझ से बाहर है। इस दौरान लोक सेवाएं राजनीतिक अधिकार से पूरी तरह बाहर होती हैं। जाहिर है कि इस अरसे में एक भी जरूरी फैसला नहीं लिया जाता। ऐसी आचार-संहिता के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठते हैं। आमतौर पर राज्यों के चुनाव आयोग नगरपालिका और पंचायत चुनाव कराते समय भारत के चुनाव आयोग की अपेक्षा अधिक तार्किक रहते हैं। विशेषकर 2012 के मध्य-अप्रैल के नगरपालिका चुनावों के दौरान आचार-संहिता 1 मार्च, 2012 से लागू कर दी गई थी, हालांकि उस दौरान नामांकन भरने की शुरुआत 19 मार्च से थी। इसके उलट, 4 दिसंबर, 2013 को विधानसभा चुनावों के दौरान, आचार-संहिता 4 अक्तूबर से लागू की गई। यह अलग बात है कि उस समय दिल्ली दिसंबर 2013 के अंत तक चुनी गई सरकार नहीं देख पाई थी, इसलिए शासन-प्रणाली का काम करीब तीन महीने के लिए ठप रहा, लेकिन दो महीने से ज्यादा की समयावधि के लिए चुनाव आयोग को तो कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता।

अप्रैल-मई 2014 में लोकसभा चुनावों के लिए दिल्ली शेष भारत के साथ तैयार थी; आचार-संहिता 5 मार्च, 2014 से लागू हो गई थी। 7 फरवरी, 2015 को पुन: दिल्ली विधानसभा चुनाव कराए गए, जिस दौरान आचार संहिता 13 जनवरी से लागू की गई थी, जो कि अपेक्षाकृत कम समय था क्योंकि इनका संबंध किसी अन्य राज्य के चुनावों से नहीं था और चुनी गई सरकार की गैर-मौजूदगी में संहिता लागू किए जाने का कोई आपात कारण भी नहीं था। दूसरे शब्दों में कहें तो मार्च 2012 से फरवरी 2015 के अरसे के पैंतीस में से सात महीनों, या पूरे समय के बीस प्रतिशत के दौरान दिल्ली में शासन-प्रणाली नदारद थी। हैरानी इस बात की है कि जो लोग शासन-प्रणाली के राजनीतिकरण और ‘एक राष्टÑ, एक चुनाव’ की अवधारणा के विरोध में दिखते हैं, और दलील देते हैं कि इससे मतदाताओं का निर्णय-प्रक्रिया मेंं दखल घटेगा, वे आचार-संहिता के इतने लंबे और लगातार अमल मेंं लाए जाने पर चुप्पी साधे दिखते हैं। ऐसे लोग एक साथ चुनावों को मतदाताओं के विचारों का विरोधी करार देते हैं। यह तर्क अपने आप में विरोधाभासी है।

सरकारी कामकाज के लगातार रोके जाने के अलावा यह प्रक्रिया इसलिए भी अवांछनीय है क्योंकि इस दौरान बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों को चुनावी कार्य के लिए लगाया जाता है। जब चुनाव आयोग चुनावों के खर्चों का हिसाब करते हैं, तो उसमें उस ‘मानव शक्ति’ से संबंधित खर्चों को नहीं जोड़ते क्योंकि कर्मचारियों का वेतन, रहने आदि का खर्च उनके संबंधित विभाग उठाते हैं। इसलिए चुनाव, मतगणना और चुनाव से सीधे जुड़े हजारों कर्मियों के वेतन और अन्य खर्च, पंचसितारा होटलों में समय बिताने वाले सैंकड़ों कर्मियों और दर्जनों पर्यवेक्षक चुनाव आयोजनों के खर्चों की गिनती से अक्सर बाहर रहते हैं।

आदर्श रूप में जननीति के अंतर्गत न केवल उपरोक्त खर्चे जुड़ते हैं, बल्कि विकल्प लागत या उत्पादकता में कमी और लाखों कर्मियों की कमी के कारण उनके मूल विभागों को होने वाला नुकसान भी जोड़ा जाता है। इस तमाम जमाजोड़ में राजकोष से जाने वाले वेतन, भत्ते, यात्रा खर्च, रहने आदि के खर्चे भी जुड़ते हैं। इसके बाद दोनों सूचियों को जोड़कर चुनाव की लागत तय होती है और देश को चुनाव खर्च का पता चलता है। हालांकि असली आंकड़े अभी मौजूद नहीं हैं, लेकिन बिना झिझक कहा जा सकता है कि यह खर्च राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले खर्च से अधिक होता है। इसकी रोशनी में चुनावी खर्चों से जुड़ी बहस को नया आयाम मिल सकता है। अत: यह जरूरी हो जाता है कि चुनाव कराने की असली कीमत जोड़कर उसे जनता के सामने रखा जाए ताकि एक साथ चुनाव कराए जाने से जुड़ी बहस पर आंकड़ों और तथ्यों की रोशनी में तार्किक विमर्श शुरू हो।

निष्कर्ष यह है कि शासन-प्रणाली और खर्च के मद्देनजर, एक साथ चुनाव कराए जाने का तर्क ठीक बैठता है। मतदाताओं को वोटिंग मशीनों के जरिए सरकारी आकलन और अपने आकलन को आवाज देने का अधिकार है। परंतु यह अधिकार उन्हें नियतकालिक तौर पर और लगातार मिलना चाहिए-4 से 5 वर्षों में एक बार मतदान तर्कसंगत होगा। परंतु यदि निर्णय-प्रणाली जनमत संग्रह पर आश्रित रहेगी और सरकारें जनता के मिजÞाज के आगे मजबूर दिखेंगी तो हम बेखौफ और दीर्घकालिक निर्णय-प्रणाली को कैसे मजबूत कर सकेंगे?

गरीबी उन्मूलन, आर्थिक संपन्नता और समृद्ध देशों में अपना समुचित स्थान प्राप्त करने के लिए भारत के सामने यही उचित मार्ग है।

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