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उत्तर प्रदेश में लोकसभा उपचुनावों ने सपा और बसपा की सत्ता लोलुप राजनीति का घिनौना चेहरा एक बार फिर से उजागर कर दिया है। इससे जहां अखिलेश यादव के अपने पिता मुलायम सिंह यादव के प्रति अनादर का भाव प्रकट होता है, वहीं मायावती की राजनीतिक अवसरवादिता को गले लगाने की मानसिकता जाहिर होती है
सुनील राय
लोलुपता में अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह को और क्या-क्या दिखाएंगे, यह कह पाना शायद मुश्किल होता जा रहा है। उधर अपनी ‘दलित राजनीति’ के अस्तित्व पर खतरा भांपते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती अपनी 23 वर्ष पुरानी दुश्मनी भुलाकर सपा का दामन थामने को आतुर हैं। बुआ-भतीजे के बीच हुए ‘समझौते’ से राजनीतिक गलियारों में खासी हलचल है। उत्तर प्रदेश सरकार के प्रवक्ता एवं स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह कहते हंै, ‘‘राज्यसभा की सीट के लिए मायावती ने दलित वोटों का सौदा कर लिया।’’
पाठकों को याद होगा, जब 2 जून 1995 को हुए गेस्ट हाउस काण्ड में मायावती ने आरोप लगाया था कि सपा के गुंडे उनकी हत्या करने के लिए आये थे, तब 24 से ज्यादा बसपा विधयाकों को जबरन उठवा लिया गया था। अब उसी बसपा की मायावती ने इलाहाबाद जनपद की फूलपुर लोकसभा सीट एवं गोरखपुर लोकसभा सीट पर हो रहे उप चुनाव के लिए सपा को समर्थन दिया है। बसपा नेताओं ने बाकायदा सपा का प्रचार भी शुरू किया है।
दिलचस्प तथ्य है कि सपा की कमान संभालने के बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस से समझौता करके जबरदस्त हार का मुंह देखा था। उसी कांग्रेस के साथ जिसके खिलाफ लड़कर मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी को खड़ा किया था। उस चुनाव के समय मुलायम ने समझौते पर ऐतराज जताया। मगर अखिलेश ने अपनी जिद के आगे पिता की एक नहीं सुनी। अखिलेश को लग रहा था कि कांग्रेस से समझौता करके वोटोें का बिखराव रोका जा सकता है। मगर जब चुनाव परिणाम जब आये तो सपा को ऐतिहासिक हार का मुंह देखना पड़ा। उसे 50 से भी कम सीटें मिलीं। मुलायम सिंह अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में स्वयं को रोक नहीं पाए, उन्होंने कहा, ‘‘जब मैंने अयोध्या में गोली चलवाई, लोग कहते थे हिन्दू वोट नहीं देगा, उस समय भी इतनी बड़ी हार नहीं हुई थी।’’ मुलायम अक्सर कहा करते थे, ‘‘जब तक मेरे पास मेरा ‘माई’ (एम और वाई, एम-मुसलमान, वाई-यादव) है तब तक मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।’’ मुसलमान वोट बैंक खिसक जाने से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कमजोर पड़ गयी। 1993 के आस-पास मुलायम ने महसूस किया कि अगर बसपा का वोट बैंक उनके साथ जुड़ जाए तो उत्तर प्रदेश में बहुमत से सरकार बनाई जा सकती है। उस समय तक बसपा के पास दलित वोट तो था, मगर बसपा ने भी सत्ता का स्वाद नहीं चखा था। मायावती ने अपनी किताब के विमोचन के समय यह कहा भी था, ‘‘बसपा जब तक सत्ता में नहीं आयी थी तब तक काफी कमजोर थी, उसको शेर बनाने का काम मुलायम सिंह ने ही किया था। अगर 1993 में समझौता न होता तो बसपा इतनी ताकतवर न हो पाती।’’
उस समझौते के बाद सपा-बसपा गठबंधन ने चुनावों में सभी राजनीतिक दलों के समीकरण को बिगाड़ दिया। सपा-बसपा गठबंधन सत्ता में आया। 4 दिसंबर, 1993 को मुलायम सिंह यादव दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। कुछ दिन बाद से ही बयानबाजी का दौर शुरू हो गया। हर महीने की एक तारीख को बसपा के पार्टी कार्यालय पर सरकार के कार्यों की समीक्षा होती थी और उसके बाद प्रदेश सरकार के खिलाफ बयान जारी होता था। 1 जून, 1995 को बसपा की मासिक बैठक में समर्थन वापसी का निर्णय लिया गया। समर्थन वापसी की घोषणा होते ही मुलायम सिंह तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा से मिले और भरोसा दिलाया कि वे विधायकों की सूची पर दस्तखत करा कर उन्हें जल्द ही सौंप देंगे। 2 जून, 1995 को बसपा विधायकों को उनके सरकारी आवासों से उठा लिया गया और उनसे जबरन समर्थन वाली सूची पर दस्तखत कराये गये। सभी बसपा विधायकों के जबरन दस्तखत हासिल कर, मुलायम सिंह ने वह कथित सूची राज्यपाल वोरा को सौंप दी। इस घटना की खबर प्रमुखता से प्रसारित हुई और अखबारों में बसपा विधायकों के अपहरण की तस्वीरें छपीं। उधर स्टेट गेस्ट हाउस में सपाइयों ने मायावती को घेर लिया था। मायावती ने आरोप लगाया था कि उनकी हत्या के इरादे से सपा के गुंडों ने गेस्ट हाउस को घेरा था। गेस्ट हाउस की बिजली-पानी आपूर्ति काट दी गई। 2 जून, 1995 के उस काण्ड को गेस्ट हाउस काण्ड के नाम से जाना जाता है।
इस कदर खुलेआम गुंडई से केंद्र सरकार भी हिल गयी। रात में ही मुलायम सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गयी। इधर भाजपा ने मायावती को समर्थन दिया, उस समय कांशीराम बीमार चल रहे थे। 2 जून की ही रात में मायावती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। गेस्ट हाउस काण्ड के बाद से मुलायम और मायावती के बीच राजनीतिक दुश्मनी काफी हद तक व्यक्तिगत हो गयी। इतनी कट्टर शत्रुता के बाद अब अखिलेश और मायावती साथ मिलकर दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
इसी तरह से जब अटल बिहारी वाजपेयी की 13 महीने की सरकार गिरी तब वामपंथी चाहते थे कि मुलायम सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जाए और कांग्रेस बाहर से समर्थन दे, मगर सोनिया गांधी चाहती थीं कि कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल है, इसलिए सपा और वामपंथी उनका समर्थन करें। उस समय सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं, मगर बात बनी नहीं। राष्ट्रपति ने किसी दल की बात न बनते देख लोकसभा भंग कर दी। सोनिया की वजह से मुलायम सिंह प्रधानमंत्री नहीं बन पाए और मुलायम की जिद से सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बन पार्इं। इस वजह से दोनों में राजनीतिक तल्खी बहुत ज्यादा बढ़ गई। लेकिन सपा की कमान संभालने के बाद अखिलेश ने अपने पिता के दोनों विरोधियों से बारी-बारी से समझौता कर लिया।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस तालमेल पर चुटकी लेते हुए कहा, ‘‘कह रहीम कैसे निभे केर बेर के संग! सपा-बसपा का गठबंधन सांप-छछूंदर के मेल जैसा है। बरसात में सांप और छछूंदर एक जगह बैठ जाते हैं और बरसात खत्म होते ही फिर दुश्मनी शुरू हो जाती है।’’
बहरहाल, हालत यह है कि बसपा से दोस्ती के चक्कर में अखिलेश का कांग्रेस से तालमेल खटाई में पड़ता दिख रहा है। हालांकि कुछ दिन पहले अखिलेश यादव ने कहा था, ‘‘हम लोग दोस्ती इतनी जल्दी खत्म नहीं करते हैं।’’ मगर इस उप चुनाव में कांग्रेस अपना प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतार चुकी है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने सपा-बसपा के गठबंधन पर निशाना साधते हुए कहा, ‘‘यह गठबंधन महज स्वार्थ के लिए है।’’
कोई कुछ भी कहे, सत्ता के लिए अखिलेश यादव अपने पिता के दुश्मनों को गले लगाने को तैयार हंै। तो मायावती अपने ऊपर हुआ जानलेवा हमला भूलने को तैयार हो चुकी हैं। सपा का कांग्रेस से समझौता लगभग टूट चुका है। बसपा इसके पहले एक बार सपा से और एक बार कांग्रेस से समझौता करके चुनाव लड़ चुकी है। मगर किसी से बहुत देर तक नहीं निभ पायी। अब देखने वाली बात होगी कि सपा और बसपा की नयी दोस्ती की डोर कब तक साबुत रहती हैै।
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