|
चतुर्थ सरसंघचालक श्री रज्जू भैया के जीवन का प्रतिपल संघ-समर्पण का उत्कृष्ट उदाहरण है। अत्यंत सादा जीवन और सतत् राष्ट्र साधना जैसे उच्चतम मूल्य उन्होंने स्वयंसेवकों में बहुत सहजता से रोपे थे
वीरेंद्र सिंह परिहार
11 मार्च, 1994 को नागपुर में रेशिमबाग में सम्पन्न बैठक में तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने कहा, ‘‘पूजनीय श्रीगुरुजी ने 1973 में मुझे यह भार सौंपा था। आप सभी के सहयोग से मैंने इसे अब तक निभाया। पर अस्वस्थता के कारण अब मेरे लिए प्रवास करना संभव नहीं है। अत: मैंने सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श के बाद यह निर्णय लिया है कि आज से हम सबके सुपरिचित प्रो़ राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया सरसंघचालक का दायित्व वहन करेंगे।’’ इसके बाद उन्होंने रज्जू भैया को पुष्पगुच्छ और श्रीफल भेंट किया। रज्जू भैया ने भी श्रद्धापूर्वक उनका आशीर्वाद प्राप्त किया और अपने संक्षिप्त उद्बोधन में सभी से सहयोग तथा शुभाशीष की कामना की।
प्रो़ रज्जू भैया का जन्म 29 जनवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद स्थित ग्राम बनैल में हुआ। उनके पिता कुंवर बलवीर सिंह अंग्रेजी शासन में बने पहले भारतीय मुख्य अभियंता थे। संपूर्ण क्षेत्र में इस परिवार की योग्यता की धाक थी। कुंवर बलवीर सिंह बड़े स्वाभिमानी, कर्मठ, प्रामाणिक, कर्तव्य-परायण तथा सादगी-पसंद व्यक्ति थे। शासन की ओर से निर्धारित वेतन उनकी आवश्यकताओं से काफी अधिक था, अत: वे पूरा वेतन लेते ही नहीं थे। रज्जू भैया के दो भाई भी प्रशासन में उच्च पदों पर कार्यरत थे। पिता की सरकारी नौकरी तथा स्थानांतरण के कारण रज्जू भैया की प्रारंभिक शिक्षा मसूरी, रुड़की तथा उन्नाव में हुई। इसके पश्चात् प्रयाग विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर उन्होंने भौतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और उसी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे।
प्रयाग से लंबे समय तक जुड़े रहने के कारण उनका संपर्क समाज जीवन के अनेक प्रमुख लोगों से हुआ। इनमें संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी,
कांग्रेसी नेता राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, लालबहादुर शास्त्री आदि प्रमुख थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में रज्जू भैया ने सक्रियता से भाग लिया। पर दूरगामी सोच तथा योजकता के अभाव के कारण यह आंदोलन बुरी तरह असफल रहा। अत: उन्होंने स्वयं को कांग्रेस की गतिविधियों से अलग कर लिया। इसी दौरान घर के निकट रहने वाले छात्र शांताराम तथा उनके सहयोगी श्यामनारायण श्रीवास्तव के माध्यम से वे संघ के तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री बाबूराव के संपर्क में आए। रज्जू भैया ने अपने घर से आधा किलो मीटर दूर लगने वाली भारद्वाज आश्रम की सायं शाखा में अपने मित्रों के साथ जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उनका काफी समय शाखा तथा संघ कार्यालय पर बाबूराव के साथ बीतने लगा। प्राध्यापक बन जाने के बाद भी यह क्रम निरंतर जारी रहा।
रज्जू भैया के जीवन की सर्वाधिक चर्चित घटना है स्नातकोत्तर की परीक्षा। उनकी यह परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ़ सी़ वी़ रमन आए थे। वे रज्जू भैया की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें बंगलौर चलकर अपने शोध कार्य में सहयोग देने का निमंत्रण दे डाला। इसके लिए डॉ़ रमन के सहयोगी डॉ. कृष्णन ने संघ प्रचारक बाबूराव मोघे से लंबी चर्चा की। परंतु रज्जू भैया को यह कैसे स्वीकार होता, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य मां भारती की आराधना को ही बना लिया था। उनके इस निर्णय ने उनके माता-पिता को भी स्तब्ध कर दिया था, जो उनका विवाह कर घर में पुत्रवधू लाने का सपना संजो रहे थे। परंतु रज्जू भैया ने तो आजीवन अविवाहित रहकर समाज
और राष्ट्र की सेवा का व्रत मन में पाल लिया था।
प्रयाग विश्वविद्यालय ने छात्रों, अध्यापकों, कर्मचारी तथा अन्य सभी वर्गों में लोकप्रिय ऐसा व्यक्तित्व अभी तक नहीं देखा था। वे भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष रहे, पर इतिहास, भूगोल, साहित्य आदि विषयों पर उनके भाषण को लोग बड़ी तन्मयता से सुनते थे। अपना अधिकांश वेतन वे निर्धन छात्रों का शुल्क भरने में खर्च कर देते थे। घर से विश्वविद्यालय प्राय: पैदल आना-जाना, साधारण वस्त्र पहनना, भोजन बनाना, स्वत: कपड़े धोना आदि कार्य देखकर लोग आश्चर्य करते थे। उनके मित्र पूछते थे, ‘‘इतना पैसा बचाकर क्या करोगे प्रोफेसर!’’ वे कहते, ‘‘अरे दो-चार आने बच जाएंगे तो किसी के काम ही आएंगे।’’
विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी के साथ-साथ संघ कार्य हेतु रज्जू भैया का पूरे उत्तर प्रदेश में प्रवास कार्य भी चलता रहता था। रेल, बस, मोटर साइकिल, पैदल, जो जहां जैसे मिला, पर समय से निर्धारित कार्यक्रम में पहुंचते थे। प्रेमनगर (देहरादून) के श्री रोशनलाल एक बहुत ही प्रेरक घटना सुनाते हुए कहते हैं, ‘‘1955 में देहरादून के विद्यार्थी स्वयंसेवकों का वन-विहार कार्यक्रम मानकसिद्ध मंदिर में आयोजित हुआ था। उसमें रज्जू भैया आने वाले थे। मैं उन्हें लेने के लिए देहरादून बस अड्््््््डे पर गया था। बस से उतरे तो नमस्कार के बाद मेरी दुबली-पतली काया और साइकिल की ओर देखकर बोले, मुझे बैठाकर कर चला लोगे। इसके बाद उन्होंने कहा कि तुम पीछे बैठो, मैं चलाता हूं। लगभग 15 कि.मी. तक साइकिल चलाकर वे मंदिर तक पहुंचे।’’ वरिष्ठ स्तंभकार श्री देवेंद्र स्वरूप कहते हैं, ‘‘1946 में उनका बलिया में प्रवास था।
स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो हम उन्हें उच्च श्रेणी के डिब्बे में ढूंढने लगे, लेकिन वे मिले नहीं। कुछ देर बाद देखा कि वे कंधे पर अपना बिस्तर और झोला टांगे तृतीय श्रेणी के डिब्बे से उतर रहे हैं। उनकी वापसी की यात्रा के लिए हम लोगों ने द्वितीय श्रेणी में आरक्षण कराया था, पर उन्होंने उस टिकट को तुरंत वापस कराया और अपनी जेब से पैसे देकर तृतीय श्रेणी के टिकट की व्यवस्था कराई। वे प्रवास का सारा खर्च अपने वेतन से ही वहन करते थे। अंत में जो कुछ भी बचता था, उसे वे भगवाध्वज के सम्मुख गुरुदक्षिणा के रूप में अर्पण कर देते थे। अपनी शल्य चिकित्सा का सारा खर्च उन्होंने स्वयं वहन किया।’’
1966 में विश्वविद्यालय से त्यागपत्र देकर वे संपूर्ण उत्तर प्रदेश एवं बिहार में संघ कार्य को गतिमान करने में जुट गए। इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी दादी श्रीमती अनंदा देवी के नाम पर प्रयाग में बना अपना मकान भी संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। आपातकाल के दौर में प्रा़े रज्जू भैया, प्रो. गौरव कुमार के नाम से निरंतर प्रवास करते रहे और स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे सत्याग्रह को दिशा प्रदान की।
जेल में बंद स्वयंसेवकों के परिवारजनों को कोई कष्ट न हो, इस ओर उनका विशेष आग्रह था। 1977 में चुनाव की घोषणा होने के बाद तो रज्जू भैया ने आगामी परिवर्तन में बड़ी भूमिका निभाई। जेल में गुप्त रीति से जाकर बडेÞ-बडेÞ नेताओं से भेंट की। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे नेता बहुत निराश थे।
उन्हें लगता था। इंदिरा गांधी के आतंक के चलते न तो लोग हमारे लिए काम करेंगे और न ही वोट देंगे। पर रज्जू भैया निरंतर प्रयास में लगे रहे, जिसका परिणाम इंदिरा गांधी की पराजय और जनता पार्टी की विजय थी। सारे विरोधी नेताओं को एक साथ लाने और जनता पार्टी बनवाने में रज्जू भैया ने अथक परिश्रम किया। उनकी इस असामान्य प्रतिभा और कुशल संगठन क्षमता के चलते उन्हें 1977 में सह सरकार्यवाह तथा 1978 में सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया। नौ वर्ष तक इस दायित्व का निर्वहन करते हुए रज्जू भैया ने पूरे देश का सघन प्रवास किया। बाद में उन्हें सरसंघचालक का दायित्व दिया गया। इस नाते उन्होंने देश-विदेश के स्वयंसेवकों का उन्होंने मार्गदर्शन किया। यहां तक कि उन्होंने यूरोप, अमेरिका, अफ्रीका तथा दक्षिण पूर्व-एशिया के अनेक देशों में प्रवास कर वहां जा बसे भारतीय मूल के हिंदुओं का उत्साहवर्धन किया। इस संबंध में एक घटना का उल्लेख जरूरी है। 1997 में उन्होंने अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे किए थे।
हिंदू परंपरा में इसे अमृत-महोत्सव के रूप में मनाया जाता है।
इस अवसर पर उनके जीवन के विविध पहलुओं का परिचय सबको मिल सके, इस हेतु एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित करने का निर्णय लोकहित प्रकाशन, लखनऊ की ओर से किया गया। परंतु उन्होंने प्राचीन ऋषि-मुनियों की भांति यश और प्रसिद्धि से दूर रहते हुए इस पुस्तक के प्रकाशन की अनुमति नहीं दी। शारीरिक दुर्बलता के चलते एक बार वे स्नानगृह में गिर गए जिससे उनके कूल्हे एवं कोहनी की हड्डी टूट गई। स्वास्थ्य में काफी सुधार के बाद भी चलने, देखने और बोलने में कठिनाई बनी रही। अत: 10 मार्च, 2000 को उन्होंने श्री कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शन को सरसंघचालक घोषित करते हुए भगवाध्वज को प्रणाम किया और फिर धीरे-धीरे चलते हुए अग्रेसर के पीछे खड़े हो गए। वे सरसंघचालक से सामान्य कार्यकर्ता बन गए। दायित्व से स्वैच्छिक मुक्ति के बाद भी वे प्राय: सभी बैठकों तथा कार्यक्रमों में उपस्थित रहते थे। वे सबसे एक ही आग्रह करते थे कि अपने शरीर तथा घरेलू परिस्थितियों के अनुरूप किसी न किसी काम में सक्रिय बने रहना चाहिए। सरसंघचालक के दायित्व से निवृत्त होने के बाद रज्जू भैया प्राय: पुणे के कौशिक आश्रम में रहते थे। 14 जुलाई, 2003 को 12:30 बजे दोपहर का भोजन करते ही तीव्र हृदयाघात से वे इस संसार-सागर से विदा हो गए। रज्जू भैया एक बार स्वयं वरिष्ठ अधिकारियों से कह चुके थे कि जहां उनका शरीरांत हो, अंतिम संस्कार वहीं किया जाए। इसलिए अगले दिन सायंकाल पुणे में ही उनकी अंत्येष्टि कर दी गई। आज भले ही वे शारीरिक रूप से हम सबके मध्य नहीं हैं, पर उनके विचार और कर्म कार्यकर्ताओं को प्रेरित करते रहेंगे।
टिप्पणियाँ