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इक्कीसवीं शताब्दी में हमारे यहां भारतीय संस्कृति का अर्थ ही बदल गया है। राजनीतिक उठापटक ने इतना दुष्प्रचार किया है कि हिंदू और भारतीय शब्द पर्याय नहीं रहे। प्राचीन वैदिक ग्रंथों, पुराणों तथा अन्य धर्म ग्रंथों की चर्चा करना भी सांप्रदायिकता की परिधि में माना जाने लगा है। अब गंगा-जमुनी संस्कृति के नाम से भारतीय संस्कृति को प्रचारित किया जा रहा है। इस्लामिक संस्कृति से घालमेल करके गत 700 साल को ही भारतीय संस्कृति बताया जा रहा है। ज्यादातर हिंदू नेता भी भारतीय संस्कृति की व्याख्या इस्लाम से हटकर नहीं कर पाते। ऐसे समय में भारतीय संस्कृति का सही स्वरूप प्रस्तुत करने वाली एक पुस्तक आई है, जिसका शीर्षक है- ‘भारतीय संस्कृति महान् एवं विलक्षण।’
इस पुस्तक को संदर्भ ग्रंथ कहा जाए तो अधिक उपयुक्त होगा। भारतीय संस्कृति प्राचीनतम है, विशाल एवं महान् है। इसके एक-एक विषय पर विस्तार से व्याख्या करने वाली अनेक पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, परंतु विद्वान लेखक ने इसमें समस्त विशेषताओं को समाहित करने का अनूठा प्रयास किया है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है कि जिन शब्दों, मंत्रों, सिद्धांतों और तत्वों की व्याख्या दी गई है उनका शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किया गया है। जहां आवश्यक समझा गया, वहां लेखक ने मौलिक तथा व्यावहारिक दृष्टिकोण भी स्पष्ट किया है। भारतीय संस्कृति सबसे पुरातन है। इसी को वैदिक या सनातन संस्कृति भी कहते हैं। इसमें अद्वितीय ज्ञान का भंडार है। इसका जितनी गहराई से अध्ययन करते हैं, यह उतनी ही व्यावहारिक और आदर्श दिखाई पड़ती है। भारतीय संस्कृति के आधार पर ही वैज्ञानिक खोज भी हो रही है। सभी पुरातन सिद्धांत आज भी वैज्ञानिक खोजों की रोशनी में सही सिद्ध हो रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि ऐसे सनातन सत्यों को उजागर करने वाली यह विशाल पुस्तक किसी गुरुकुल में संस्कृत पढ़े हुए, आश्रम में रहने वाले संन्यासी महात्मा ने नहीं लिखी, अपितु आधुनिक नवीनतम एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में विशेषज्ञता प्राप्त (पीएच.डी.) तथा उसी विषय के व्याख्याता डॉ. शिवकुमार ओझा द्वारा रची गई है। इस ग्रंथ की रचना के लिए लेखक ने कितना श्रम, कितना स्वाध्याय किया होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है वह सराहनीय तथा श्रद्धा के योग्य है।
भारतीय संस्कृति के संबंध में पाश्चात्य ही नहीं, भारतीय विद्वानों ने भी बिना प्रमाण के अनेक भ्रांतियों को प्रसारित किया है। डॉ. ओझा ने लगभग सभी भ्रांतियों का उन्मूलन करके निश्चयात्मक प्रामाणिक आधार स्पष्ट किए हैं। लेखक की प्रमुख विशेषता यह है कि वह प्रत्येक विषय में स्वयं स्पष्ट समझ रखता है तथा उसे तर्क-वितर्क एवं प्रमाणों से पाठक को भली प्रकार समझा देता है। शुद्ध शास्त्रों (श्रीमद्भागवत, गीता, उपनिषद्, दर्शन आदि) में जो विषय भाषा की क्लिष्टता के कारण स्पष्ट नहीं हो पाते, उन्हें भी लेखक ने सुस्पष्ट करके पाठक के समक्ष परोसा है। सृष्टि की भ्रांत धारणाओं को दूर करके समझाया है कि भारतीय संस्कृति तीन सनातन तत्व मानती है- प्रकृति, जीव तथा ब्रह्म। फिर प्रकृति का अर्थ क्या है? भक्ति क्या है? मोक्ष क्या है? पुरुषार्थ चतुष्टय कौन से हैं? इनको पाने के क्या मार्ग हैं? कर्म, तप और यज्ञ में क्या अंतर है? वर्णाश्रम व्यवस्था में क्या वैज्ञानिकता है? दु:ख क्या है? सुख क्या है?
सुख और आनंद में क्या अंतर है? योग और संयोग में भारी अंतर है। समत्व योग कैसे व्यावहारिक और श्रेष्ठ है। ब्रह्म की प्राप्ति की क्या आवश्यकता है? इसके क्या साधन हैं? सगुण-निर्गुण ब्रह्म क्या है? स्वर्ग और नरक क्या है? कैवल्य, मुक्ति या निर्वाण से क्या उपलब्ध होगा? भक्ति से क्या परमात्मा मिलता है?
इस ग्रंथ को पढ़कर कोई भी पाठक अपनी संस्कृति संबंधी समस्त शंकाओं का समाधान यहां प्राप्त कर सकता है। भावी पीढ़ी
को अपनी संस्कृति की महानता की
अनुभूति कराने के लिए ऐसे ग्रंथ की आवश्यकता निस्संदेह थी। आजकल अनेक कथावाचक, योगी, महात्मा स्वयं को अवतार बताकर अपनी पूजा करवा रहे हैं तथा आम आदमी को ठग रहे हैं। इसीलिए गुरु, कथाव्यास तथा अवतार का अंतर समझाया
गया है। लेखक ने अवतार की पहचान भी स्पष्ट की है।
अवतार के प्रकार भी स्पष्ट किए गए हैं- पूर्णावतार, अंशावतार, युगावतार, कलावतार, आवेशावतार, अर्चावतार, अनुकंपावतार। यदि पाठक इस ग्रंथ को पढ़ लें तो स्वयं को अवतार कहने वाले ठगों के बहकावे में नहीं आएंगे।
लेखक ने ब्रह्म की व्याख्या इस पकार की है- चार अक्षर हैं- ब, र, ह म। ‘ब’ अर्थात् बनाने वाला ‘र’ से रक्षा करने वाला, ‘ह’ यानी हरण करने वाला, ‘म’ का अर्थ मुक्त करने वाला।
लेखक ने भारतीय संस्कृति के मानवीय सद्गुणों की भी विस्तार से जानकारी दी है। यहां केवल नाम गिनवाए जा सकते हैं- अभय, सत्वसंशुद्धि, ज्ञानयोग व्यवस्थिति, दान, दम, यज्ञ, तप, स्वाध्याय, आर्जव, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शक्ति, अमैथुन, दया, अलोभ, मार्दव, हृी (लज्जा), अचपलता, तेज, क्षमा, धृति, शौच, अद्रोह और नातिमानता। प्रत्येक शब्द की व्याख्या और भेद समझाए गए हैं।
डॉ. ओझा ने यह भी बताया कि ज्ञान क्या है। ज्ञान ब्रह्म को जान लेना है, आत्मा को जान लेना है। अंतर में साक्षात्कार ही दर्शन है। कर्म का बंधन ही बंधन है। कर्मों के अधीन है जीव बार-बार आता है। वर्ण व्यवस्था की उपयोगिता विस्तार से समझाई गई है। आश्रम व्यवस्था से जीवन की सुव्यवस्था कैसे की जाती है। प्रत्येक आश्रम में क्या कर्तव्य करने अपेक्षित हैं? पुरुषार्थ चतुष्टय में अर्थ और काम का महत्व स्पष्ट किया गया है। परम लक्ष्य मोक्ष से माना गया है। कर्म, ज्ञान तथा श्रद्धा पूर्ण चेष्टाएं लक्ष्य की ओर बढ़ाती हैं।
अल्पज्ञ जीव को सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान ब्रह्म तक की यात्रा कराना ही भारतीय संस्कृति है। हमें उन महापुरुषों का अनुकरण एवं अनुसरण करना चाहिए जिनका आचरण आदर्श रहा है। किसी जीवन को उत्कृष्ट बनाना है तथा समस्त विश्व को इसी दिशा में ले जाना है। इसीलिए समस्त वसुधा को एक परिवार माना गया है। यदि वसुधैव कुटुंबकम् का आदर्श अंत:करण से तथा दैनिक व्यवहार में समाहित हो जाए तो विश्व में कोई समस्या ही ना रहे। विपरीत स्वभाव वाले भी परस्पर मिलकर रहें। पुस्तक में भारतीय संस्कृति से जुड़ी हर बात है। यह पुस्तक हर उस व्यक्ति को पढ़नी चाहिए, जो भारतीय संस्कृति को जानना चाहता है।
अंत में लेखक को सलाह है कि इस विशाल ग्रंथ को चार खंडों में विभाजित कर दें तो यह ज्यादातर पाठकों तक पहुंच सकता है। आज की व्यस्तता इतने वृहद् ग्रंथ को पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करती। यह ऐसे ही है कि वृक्ष पर लटके फल सुंदर और आकर्षक तो हैं, परंतु रुकने, तोड़ने, खाने का समय नहीं। फिर भी इस विशाल ग्रंथ के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं। पाठक इसे अवश्य पढ़ें, नवनीत निश्चित रूप से मिलेगा।
आचार्य मायाराम पतंग
पुस्तक का नाम : भारतीय संस्कृति महान् एवं विलक्षण
लेखक : डॉ. शिवकुमार ओझा
प्रकाशक : डॉ. शिवकुमार ओझा, 42/104, त्रिवेणी भवन, वसंत विहार, पोखरण मार्ग-2, ठाणे
पृष्ठ : 662
मूल्य : रु. 4000/-
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