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सप्ताह के समाचारों का त्रिआयामी चित्र :
अर्थक्षेत्र में चार दिन में चौकड़ी मारते हुए पहली बार 36,000 के पार पहुंचने वाले सेंसेक्स की खबर है। अंतरराष्टÑीय फलक पर या कहिए दावोस से ऐसा ‘हैवन आॅफ फ्रीडम’ बनाने, जहां सहयोग और समन्वय हो, बंटवारे और टूट के लिए जगह न हो— का भारतीय आह्वान है। और इसके बरअक्स भारतीय राजनीति ने मानो दोनों क्षेत्रों से
अपने मिजाज के मुताबिक बातें उठाई हैं। यहां फिर वही 36 के आंकड़े, टूटन और दरारों की खबरें हैं।
सेंसेक्स के कुलांचों और दावोस की मिठास के उलट माकपा का अंतर्द्वंद्व और शिवसेना की त्यौरियां अब उस बिंदु पर हैं जहां उसे केवल फौरी कड़वाहट या धड़ेबाजी कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।
महाराष्टÑ में सरकार के साथ होकर भी छिटकी रहने वाली शिवसेना ने ऐलान कर दिया है कि वह अगले विधानसभा और लोकसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। उधर माकपा (प्रकाश करात गुट) ने 2019 में पार्टी के कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का सीताराम येचुरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही घटनाक्रम राजनीति की वर्तमान सतह पर फिलहाल कोई उथल-पुथल पैदा नहीं करते। माकपा का ऐलान 2019 के लिए है और शिवसेना भी
न तो महाराष्टÑ में भाजपा और न ही केंद्र में राजग सरकार से फिलहाल अलग होने जा रही है। किन्तु साथ ही यह भी सच है कि इन घटनाक्रमों के भीतर भविष्य के राजनैतिक समीकरण
छिपे हैं।
शिवसेना भाजपा से छिटकेगी तो क्या होगा!
कॉमरेड कांग्रेस के साथ जाएंगे और इसके लिए जिद करते हुए टकराएंगे तो क्या होगा! वही होगा जो समय से सबक न लेने वालों का होता है। समय की कसौटी पर आजमाई हुई यह बात किसी राजनीतिक पंडित ने नहीं कही बल्कि जनता द्वारा दोनों पार्टियों को पूर्व में समझाई जा चुकी है।
माकपा के भीतर (और बाहर भी) विडंबनाओं से भरे कॉमरेड टकराते ही रहे हैं, किन्तु भाजपा और शिवसेना के बीच बात का हद से ज्यादा बिगड़ने का सिलसिला बालासाहेब ठाकरे के अवसान के बाद शुरू हुआ। शिवसेना ने तो पिछला विधानसभा चुनाव ही भारतीय जनता पार्टी से अलग रहकर लड़ा था! क्या हुआ? 288 सदस्यीय विधानसभा में जहां भाजपा 122 सीटों के साथ उभरी, वहीं शिवसेना केवल 63 सीटों पर सिमट गई। यानी ताजा संदर्भों में यह आजमाई हुई बात है कि सूबे की जनता भाजपा-शिवसेना की युति को पसंद करती है और युति के टूटने पर भाजपा के पक्ष में झुकती भी है। समझने वाली एक और बात यह है कि राजनैतिक समीकरण भी भाजपा और शिवसेना को स्वाभाविक मित्र बनाते हैं। विधानसभा में भाजपा के लिए शिवसेना और बृहन्मुंबई महानगर पालिका में शिवसेना के लिए भाजपा का समर्थन जरूरी है। किन्तु फिलहाल तालमेल और भविष्य को लेकर लंबे-चौड़े ऐलान करती शिवसेना विश्लेषकों को समझ-बूझ के मामले में बेसुध और नाहक दंभ से भरी लगने लगी है।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार बुरे प्रदर्शन से ज्यादा बुरी बात यह है कि पार्टी ने घटनाक्रम से सबक नहीं सीखा और जनाधार खोते हुए भी सहयोगी के प्रति उसकी जुबानी धार तेज ही होती दिखी।
अब बात वामपंथी विडंबनाओं की। हालांकि विचार और व्यवहार में वामपंथी दोमुंहापन सदा से रहा है किन्तु भीतरी धड़ेबाजी का इस तरह खुले में आना माकपा के लिए ज्यादा नुक्सानदेह है।
पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान केरल में कांग्रेस से (भले दिखावे के लिए ही सही) लड़ने और प. बंगाल में तृणमूल से तिलमिलाहट के चलते कांग्रेस को गले लगाने के लिए बेचैन रही पार्टी में खिसियाई बिल्लियां 2019 आम चुनाव का खंभा नोच रही हैं। भविष्य में कांग्रेस से ‘हाथ’ मिलाने की दिशा में बंगाल की ओर से बढ़ता मसौदा प्रस्ताव पार्टी की केंद्रीय समिति में केरल की ‘हंसिया’ ने काट डाला। गौरतलब है कि पार्टी के भीतर येचुरी पश्चिम बंगाल और करात केरल कैडर की प्रतीक आवाज माने जाते हैं।
प्रकाश करात गुट और सीताराम येचुरी के बीच जारी खींचतान की कहानियां पश्चिम बंगाल और केरल विधानसभा चुनाव के समय भी सुर्खियां बनी थीं किन्तु अब यह भिडंÞत ऐसे स्तर पर है जहां पोलित ब्यूरो सदस्य करात महासचिव येचुरी पर निर्णायक तौर पर भारी पड़ रहे हैं। प्रस्ताव का 31 के मुकाबले 55 मतों से निरस्त होना बताता है कि अंदरखाने लड़ाई के चलते पार्टी बुरी तरह विभाजित है। यह स्वाभाविक भी है। केरल में वाम सत्ता में है।
वामपंथी सिद्धांतों के आग्रही कहे जाने वाले करात के साथ केरल का ‘हिंसक ’ गढ़ है। वहीं दूसरी ओर सुविधा की राजनीति के माहिर कहे जाने वाले येचुरी के बंगाल का लालगढ़ कभी का ढह चुका है।
बहुत कहासुनी के बाद येचुरी ने प. बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से तालमेल की राह बनाई थी और मुंह की खाई थी। उनकी यह कलाबाजी पहली बार नहीं थी। वर्ष 2005 में भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर पहले कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील सरकार को गिराने और फिर बचाने का करतब करने वाले येचुरी पार्टी के भीतर साख खो रहे हैं।
सत्ता गलियारों में येचुरी को कांग्रेसी रंग में रंगा कॉमरेड भी कहा जाता है। पार्टी नियमों के चलते राज्यसभा में तीसरी पारी न खेल पाने पर येचुरी के मलाल और करात की संतुष्टि
को कइयों ने पढ़ा है। इन भंगिमाओं में दबी इबारत यह भी इशारा कर रही है कि एक गढ़ (बंगाल) गंवाने के बाद दूसरे गढ़ (त्रिपुरा) को बचाने की बेचैनी वामपंथी कुनबे में रार को और बढ़ाने वाली है। बहरहाल, शिवसेना का ऐलान या माकपा केंद्रीय समिति का फैसला, दोनों ही कदम पार्टीहित में और ‘रणनीतिक’ बताए जा रहे हैं। वैसे भी व्यक्तिगत कुंठाओं, अहं की टकराहटों और साख में सुराखों के बीच हताशा के पैबंद को इससे अच्छा और नाम दिया भी क्या जा सकता है! व्यक्तिगत आकांक्षाओं के लिए लचक जाने और सैद्धांतिक राह पर समन्वय की बजाए अवरोधक की तरह अड़ने वालों की राजनीति को जनता कैसे देखेगी?
2018 में बहुत कुछ देखा जाना है, महाराष्ट्र और लोकसभा के घटनाक्रम दूर हैं, फिलहाल आप त्रिपुरा पर नजर जमाए रखिए। संभवत: सूचना और संकेतों का अनदेखा आयाम वहीं से निकलेगा।
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